सिद्धारमैया
कांग्रेस - वरुण
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चुनाव आयोग ने मध्य प्रदेश के बीजेपी और कांग्रेस नेताओं को वाणी-संयम के जो निर्देश दिए हैं, वे बहुत सामयिक हैं लेकिन कांग्रेसी नेता कमलनाथ का ‘मुख्य चुनाव-प्रचारक’ का दर्जा छीनकर उसने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब अदालत ही उसका फ़ैसला करेगी।
अदालत क्या फ़ैसला करेगी और कब करेगी, यह देखना है लेकिन विचारणीय तथ्य यह है कि चुनाव आयोग को क्या इतनी सख्ती बरतनी चाहिए, जितनी वह बरत रहा है?
कमलनाथ को इसलिए दोषी ठहराया जा रहा है कि उन्होंने अपनी एक पूर्व महिला मंत्री और अब बीजेपी उम्मीदवार इमरती देवी को ‘आइटम’ कह दिया था। ‘आइटम’ शब्द के कई अर्थ हैं, कुछ बुरे भी हैं लेकिन ‘इमरती’ शब्द के साथ तुकबंदी करते हुए अगर उन्होंने कह दिया कि इमरती क्या ‘चीज’ हैं तो इसके पीछे उनकी मानहानि के बजाय हंसी-मजाक का मक़सद ज्यादा रहा होगा।
कमलनाथ ने बाद में इस बात पर खेद भी प्रकट कर दिया लेकिन इस मामले को बीजेपी द्वारा इतना ज्यादा तूल इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि आजकल चुनाव का दौर है। एक-दूसरे के विरुद्ध जितनी ग़लतफहमी फैलाई जा सके, उतने ज्यादा वोट मिलने की संभावना बनी रहती है।
अब कांग्रेस भी पीछे क्यों रहे? उसने भी वही पैंतरा अपनाया है। उसने बीजेपी नेता कैलाश विजयवर्गीय के इस कथन को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ‘चुन्नू-मुन्नू’ हैं। यह व्यंग्य की भाषा है। चुनाव सभाओं में यदि चिऊंटी न काटी जाए और हंसी-मज़ाक न किया जाए तो उनमें भीड़ टिकेगी कैसे? इस तरह के बहुत-से किस्से बिहार से भी सुनने में आ रहे हैं।
मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया का कहना है कि किसी कांग्रेसी नेता ने उनकी तुलना धोबी के कुत्ते से कर दी है लेकिन इसका बुरा मानने के बजाय सिंधिया ने कुत्ते की स्वामीभक्ति यानी उसकी जनता के प्रति वफादारी की तारीफ कर दी। उन्होंने नहले पर दहला मार दिया।
ऐसे नाजुक वक्त में चुनाव आयोग यह तो ठीक कर रहा है कि वह नेताओं पर उंगली उठाता है लेकिन उसे सख्त क़दम तभी उठाना चाहिए जबकि वाकई कोई नेता बहुत ही आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करे। वरना चुनाव-प्रचार बिल्कुल उबाऊ और नीरस हो जाएगा।
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