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वायरस के साथ और संसद के बिना जीना सीखने की आदत?

सरकार के एक आधिकारिक प्रवक्ता ने कहा है कि देश को अब कोरोना के वायरस के साथ ही जीना सीखना होगा। लेकिन इस सवाल का उत्तर अब किससे माँगा जाए कि महामारी के संकट से निपटने के दौरान सरकार द्वारा किए गए प्रयासों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और प्रवासी मज़दूरों सहित नागरिकों द्वारा भुगते गए कष्टों की जवाबदेही तय करने लिए कोई सदन 2024 के चुनावों के पहले देश को उपलब्ध होगा भी कि नहीं?
श्रवण गर्ग

आश्चर्य व्यक्त किया जा सकता है कि एक बहुत ही महत्वपूर्ण ख़बर को या तो ग़ैर-इरादतन या फिर पूरी तरह से सोच-समझकर बहस में आने ही नहीं दिया गया। ख़बर सरकार के एक आधिकारिक प्रवक्ता द्वारा दी गई यह जानकारी है कि देश को अब कोरोना वायरस के साथ ही जीना सीखना होगा। जानकारी में किसी तरह की वैसी आशा की किरणें नहीं हैं जैसी कि अब तक दिखाई जाती रही हैं। कोई स्पष्ट आश्वासन और उसका ब्योरा नहीं है कि संकट पर कब तक क़ाबू पा लेने की उम्मीद है, दवा या वैक्सीन की खोज किस मुक़ाम तक पहुँच गई है, आने वाले कितने दिनों में ज़िंदगी पटरी पर आ पाएगी, नागरिकों को सरकार से किस तरह की राहत की उम्मीद करना चाहिए, आदि, आदि। न तो मीडिया की ओर से ऐसा कोई सवाल पूछा गया और न ही अपनी ओर से प्रवक्ता द्वारा कुछ भी बताया गया। इतनी बड़ी ख़बर को सब्ज़ी के साथ मुफ़्त में बँटने वाले धनिए की तरह जारी किया गया और वे तमाम लोग जिन्हें उसका संज्ञान लेना था अपने थैलों में रखकर भूल भी गए।

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महामारी के साथ नागरिक जीना ज़रूर सीख लेंगे। इस तरह की परिस्थितियों में उनसे ऐसा अपेक्षित भी है। पर क्या उन्हें उन प्रजातांत्रिक संस्थानों के साथ जीना भी एक अनिश्चितकाल तक के लिए भूल जाना चाहिए जिनके साथ उनकी आस्थाएँ बँधी हुई हैं और विश्वास जुड़ा हुआ है?

हाल ही में प्रकाशित अपने एक आलेख में एक प्रतिष्ठित न्यायविद ने सुझाव दिया था कि महामारी से निपटने के लिए दुनिया भर में सरकारों ने अपने आपको अतिअसाधारण शक्तियों से सुसज्जित कर लिया है। फ़्रांस में चुनाव टाल दिए गए हैं, आदि, आदि। आलेख का मूल सुझाव यह था कि इन असाधारण परिस्थितियों में जब कि सभी लोग सरकार का सहयोग कर रहे हैं, कार्यपालिका के फ़ैसले लेने के काम में अदालतों की ओर से किसी भी तरह के अवरोध नहीं खड़े किए जाने चाहिए।

चूँकि महामारी के साथ जीने की आदत का सम्बंध अनुशासनपूर्वक सोशल या फ़िज़िकल डिस्टेन्सिंग का पालन करने से है, तो फिर नागरिकों को लॉकडाउन के प्रतिबंधों के साथ-साथ यह भी मानकर चलना चाहिए कि आने वाले एक लम्बे समय तक संसद और विधान सभाओं की बैठकें भी नहीं हो पाएँगी।

प्रधानमंत्री, प्रतिरक्षा मंत्री और गृह मंत्री संसद में साथ-साथ कैसे बैठ पाएँगे? संसद के सीमित स्थान में इतने सारे सांसद अपेक्षित दूरी बनाकर कैसे बैठ सकेंगे? संकट अगर टुकड़ों-टुकड़ों में भी दो-तीन वर्षों तक बना रहता है तो चुनावों की सम्भावनाओं को लेकर जनता को किस तरह का मानस बनाकर चलना चाहिए? बिहार में इस साल के अंत में अपेक्षित चुनावों का क्या होने वाला है? बिहार लौटने को आतुर प्रवासी मज़दूरों की संख्या ही कई लाख की बताई जाती है। अगर ऐसा है तो उन्हें बिहार पहुँचाने वाली रेलगाड़ियाँ ही चुनाव की तारीख़ों तक चलती रहेंगी।

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ऐसा मान लेने का कोई कारण नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान संसद सहित सभी प्रजातांत्रिक संस्थाओं के भविष्य को लेकर व्यक्त की जा रही इन चिंताओं के प्रति कांग्रेस और विपक्ष सचेत नहीं है। तो फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस में इस मुद्दे पर बात करने का साहस ही नहीं हो? जिस प्रतिष्ठित न्यायविद के आलेख का ऊपर ज़िक्र किया गया है उसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि आपातकाल के दौरान 19 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक प्रजातंत्र को ठंडे बस्ते में पटक दिया गया था। आगे यह भी कहा गया है कि प्रजातंत्र को अगर उससे तब कोई नुक़सान नहीं पहुँच पाया तो निश्चित ही लॉकडाउन के प्रतिबंधों से भी नहीं पहुँचेगा।

इस सवाल का उत्तर अब किससे माँगा जाए कि महामारी के संकट से निपटने के दौरान सरकार द्वारा किए गए प्रयासों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और प्रवासी मज़दूरों सहित नागरिकों द्वारा भुगते गए कष्टों की जवाबदेही तय करने लिए कोई सदन 2024 के चुनावों के पहले देश को उपलब्ध होगा भी कि नहीं?
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