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ब्राह्मण करेंगे दलित हनुमान की पूजा? हरे राम, हरे राम!

हनुमान की दलित पहचान योगी का विचार नहीं है, बल्कि यह आरएसएस का काफ़ी पुराना विचार है, जिसे उसने योगी के माध्यम से आदिवासी इलाक़ों से निकाल कर व्यापक स्तर पर दलित वर्गों से जोड़ने की राजनीति की है। किन्तु, यह दाँव आदिवासियों में तो चल सकता है, उसके बाहर यह आरएसएस और बीजेपी के लिए उलटा पड़ जाएगा।
कँवल भारती

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हनुमान को दलित क्या कह दिया, प्याली में तूफ़ान आ गया। उनकी एक तसवीर भी मीडिया में वायरल हुई, जिसमें वे अपनी गोद में एक बंदर को बिठाए हुए फ़ाइलें देख रहे हैं। अब ब्राह्मण की परेशानी यह है कि वह दलित की पूजा नहीं कर सकता, क्योंकि उसके पुरखों ने सारे भगवान् उच्च वर्ण में बनाए हैं। फिर हनुमान दलित कैसे हो सकते हैं? एक तो करेला और वह भी नीम चढ़ा। यानी, एक तो दलित और वह भी वर्ण बाहर - अवर्ण। अब एक अवर्ण को हर मंगलवार को कैसे भोग लगाएँ? यही दुविधा तुलसीदास की भी थी। वह भी एक अवर्ण को कैसे शीश झुका सकते थे? अत: उन्होंने हनुमान को मूँज का जनेऊ पहना दिया—‘काँधे मूज जनेऊ छाजे’। यानी जनेऊ पहनने से हनुमान ब्राह्मण हो गए। 

हनुमान को दलित कहे जाने के विरुद्ध दो प्रतिक्रियाएँ सामने आ रही हैं। एक ब्राह्मणों की ओर से, जिनके लिए, जैसा कि स्वामी स्वरूपानंद ने कहा है, हनुमान जी को दलित कहना अपमानजनक है। यानी दलित सबसे अपमानजनक प्राणी है। अत: ब्राह्मणों की भावनाएँ यहाँ तक आहत हुईं कि उनमें से एक राजस्थान ब्राह्मण सभा ने योगी के ख़िलाफ़ क़ानूनी नोटिस ही भिजवा दिया है। कुछ ने हनुमान को ब्राह्मण साबित करने के लिए उनका ‘चौबे’ गोत्र भी ढूंढ लिया। वह ब्राह्मण फिर कैसे, जो वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध दलित को पूज्य मान ले, इसलिए किसी ब्राह्मण ने यह कहकर कि हनुमान जब प्रगट हुए थे, तो उस समय जातिप्रथा ही नहीं थी, हनुमान को दलित मानने की जड़ ही ख़त्म करनी चाही। पर क्या जड़ इस तरह ख़त्म होती है? यह शतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन घुसेड़ कर संकट से मुक्ति पाने का भ्रम पालना है। सवाल यह है कि जिस समय हनुमान पैदा हुए थे, उसी समय श्रीराम भी तो जन्मे थे, फिर श्रीराम की क्षत्रिय जाति कैसे आ गई? अगर उस युग में जाति-व्यवस्था नहीं थी, तो वशिष्ठ ब्राह्मण, श्रीराम क्षत्रिय और केकैयी शूद्र कैसे मान लिए गए? अगर ये वर्ण हैं, जाति नहीं, तो केवट निषाद के बारे में क्या ख्याल है? क्या वह जाति नहीं है?

हनुमान प्रभु राम का अवतार कैसे?

अभी मैंने किसी महाशय का कथन पढ़ा कि ‘हनुमान प्रभु राम का रूद्र अवतार हैं, और जाति इंसान की होती है, अवतार की नहीं’। आस्था तर्क नहीं करती है, बल्कि आस्था को बचाने के लिए तर्क गढ़ने की कोशिश करती है, जो हमेशा फूहड़ होती है। इसलिए यह तर्क भी फूहड़ है। सारे शास्त्र कहते हैं कि श्रीराम विष्णु के अवतार हैं, जिन्होंने क्षत्रिय कुल में जन्म लिया था और शिव रूद्र के अवतार हैं, जो वैदिक देवता था। अगर हनुमान श्रीराम के अवतार हैं, तो यह अवतार श्रीराम की मृत्यु यानी सरयू में देह त्याग करने के बाद ही होना चाहिए। तब तो श्रीराम के जीवनकाल में उनके सेवक के रूप में हनुमान के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। अत: कहना न होगा कि ज़मीन-आसमान की ये सारी कुलाचें अपने इस सच पर परदा डालने का उपक्रम है कि वे हनुमान के रूप में एक दलित को पूज रहे हैं। हनुमान आदिम जनजातीय समुदाय से थे। श्रीराम ने जिन लोगों की सहायता से जिन लोगों के ख़िलाफ़ युद्ध किया था, और जिन लोगों की सहायता से जिन लोगों को मारा था, वे सब लोग अनार्य थे, यानी वे आर्य, ब्राह्मण आदि नहीं थे। वे सब जनजातीय समुदायों और समाजों से थे और निस्संदेह अनार्य समुदायों में जाति-व्यवस्था नहीं थी। आज भी आदिवासी जनजातीय समुदायों में जाति व्यवस्था नहीं है। त्रेता युग की - जनजातियों की सहायता से जनजातियों का सफ़ाया कर ब्राह्मण राज कायम करने की - कहानी आदिवासी क्षेत्रों में आज भी चल रही है। आरएसएस इन क्षेत्रों में आदिवासियों को वनवासी कहकर उन्हें हनुमान से ही जोड़ने का काम कर रहा है।दूसरी प्रतिक्रिया दलितों की ओर से आई है। उनका कहना है कि अगर हनुमान दलित हैं, तो हनुमान मंदिरों पर दलितों का कब्जा होना चाहिए। आगरा और लखनऊ में कुछ दलित संगठनों ने हनुमान मंदिरों पर कब्जा करने के लिए प्रदर्शन भी किए हैं। ‘हिंदुस्तान’ (2 दिसम्बर) की ख़बर है कि ‘लखनऊ में दलित उत्थान के बैनर तले दलित समुदाय के कुछ लोग हज़रतगंज के दक्षिणमुखी हनुमान मंदिर पर कब्जा करने पहुँच गए। उनके बैनर पर लिखा था- ‘दलितों के देवता बजरंगबली का मन्दिर हमारा है।’ अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग ने भी कहा है कि ‘दलित समाज में ही वानर गोत्र होता है’। 

हनुमान मंदिरों पर दलितों का क़ब्ज़ा जायज़

दलितों की प्रतिक्रिया जायज़ है। अगर हनुमान दलित हैं, तो उनके मंदिरों पर भी दलितों का हक़ होना ही चाहिए। पर मुख्यमंत्री कहते हैं कि यह अराजकता है, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। क्यों भई, यह अराजकता कैसे है? अगर यह अराजकता है तो राजनीति क्या है? योगी जी, यह अराजकता नहीं, राजनीति है। एक राजनीति आपने की कि हनुमान दलित थे। आपने सोचा कि हनुमान को दलित और आदिवासी कहने से राजस्थान के दलित और आदिवासी बीजेपी को वोट दे देंगे। पर जब हनुमान ने ही, दलित और आदिवासी होते हुए, उन्हें कुछ नहीं दिया, तो बीजेपी उन्हें क्या दे देगी? जैसे डूबते को तिनके का सहारा भी बड़ा सहारा लगता है, शायद उसी तरह योगीजी को लगा होगा कि अब गाय, गंगा और राम का मुद्दा तो सहारा बन नहीं रहा है, तो हो सकता है कि डूबती बीजेपी को दलित हनुमान ही बचा लें। इसलिए उन्होंने दलित हनुमान का राजनीतिक चारा दलितों के आगे फेंक दिया।अब सवाल यह है कि हनुमान का यह नया मुद्दा क्यों पैदा किया गया? आरएसएस और बीजेपी की राजनीतिक फ़िजा में गाय, गंगा और श्रीराम मन्दिर का मुद्दा रहा है। उसके साधु-संत भी इसकी के लिए धर्म-समागम करते फिर रहे हैं। यह अलग बात है कि इस बार जनता उनमें शामिल नहीं हो रही है। फिर हनुमान कहाँ से आ गए? न तो कहीं कोई मुगलकालीन ढांचा गिरा कर हनुमान का विवादित मन्दिर बन रहा है, और न कोई हनुमान बनाम मुसलमान का कोई मसला चर्चा में है। फिर हनुमान बनाम दलित की इस नई राजनीति का मक़सद क्या है?योगी क्या, कोई भी भाजपाई नेता अकारण बयान नहीं देता। सारे बयान, सारे मुद्दे और सारे नारे आरएसएस के कारखाने में तैयार होते हैं। योगी क्या, किसी भी भाजपाई नेता की मजाल नहीं है कि वह अपनी मर्ज़ी से कोई बयान दे दे। अत: अगर योगी ने हनुमान को दलित कहा है, तो यह उनका अपना बयान नहीं है, बल्कि यह आरएसएस से आया बयान है। आरएसएस हनुमान को वन-नर बता कर ही आदिवासियों को राम से जोड़ने का काम कर रहा है। वन-नर हिन्दू वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत नहीं आते हैं, इसलिए वे न ब्राह्मण हैं और न ठाकुर और न बनिया, वे शूद्र भी नहीं हैं, क्योंकि अवर्ण हैं। अवर्ण को आप दलित, आदिवासी, वंचित कुछ भी कहिए।हनुमान की दलित पहचान योगी का विचार नहीं है, बल्कि यह आरएसएस का काफ़ी पुराना विचार है, जिसे उसने योगी के माध्यम से आदिवासी इलाक़ों से निकाल कर व्यापक स्तर पर दलित वर्गों से जोड़ने की राजनीति की है। किन्तु, यह दाँव आदिवासियों में तो चल सकता है, उसके बाहर यह आरएसएस और बीजेपी के लिए उलटा पड़ जाएगा। इसका कारण है एक तबक़े में दलितों के प्रति नफ़रत।

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