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प्रतीकात्मक तसवीर।

अस्पताल व्यवस्था चरमराई... ऐसे बंध रही ज़िंदगियाँ बचने की उम्मीदें

आप जब कुछ करते हैं तो अपने स्वभाव, संस्कार और इंसानियत के नाते करते हैं। उसका कारण ढूंढेंगे तो मिलेगा भी नहीं। मैंने कोविड के इस भयावह समय में लोगों को अपनों को बचाने की खातिर लाचार देखा, बेबस देखा। इंसान जब मुसीबत में होता है, खासकर जब जान पर बन आती है- उसके या उसके अपनों की, तब वह उसी को याद करता है, जिसपर उसका सबसे ज्यादा भरोसा होता है। यह सिर्फ समझने वाली बात है। जिसपर गुजरी होगी, उसको समझने में देरी नहीं लगेगी। मुझे भी किसी ने अपने भाई और किसी ने अपने पति की खातिर फोन किया। जान नहीं बचेगी यह लग गया था, लेकिन एक उम्मीद थी कि इस वक्त भी इलाज मिल जाए तो शायद ज़िंदगी बच जाए। ठीक ऐसे ही वक्त पर उन लोगों ने फोन किया, जिनको मैं अपना कहता हूँ या वे कहते होंगे कि हां इस शहर में उनको मैं जानता हूं या जानती हूं। मैंने उन लोगों को इलाज मिले इसकी खातिर सिस्टम को झकझोरा। जीवन भर मैं लिहाजी रहा। अपने लिए कुछ कहने में हमेशा हिचक रही। लेकिन इन मामलों में मैंने अपनी पूरी ताकत लगाई और उसका फल ये रहा कि जिंदगियां बचीं। अगले दिन जब फोन आता है कि सर अब बच जाएंगे, ठीक हैं, शरीर के अंदर कुछ अच्छा सा पसरता हुआ लगता है। शायद वह आत्मा या रुह के उल्लसित होने से होता होगा।

मेरे एक सहयोगी पिछले तीन दिनों से कोरोना की चपेट में हैं। कल जब मैंने तबीयत जानने के लिए फोन किया तो सांस उखड़ रही थी। बोले सर, ब्रीदिंग प्रॉब्लम है। चेस्ट का सीटी स्कैन कराना बहुत ज़रूरी है, कहीं भी करवा दीजिए। मामला नोएडा का था इसलिए मैंने पंकज सिंह, जो यहां के विधायक हैं, उनको कहा। फौरन जवाबी फोन आया- मेट्रो अस्पताल भेजिए, अभी करवा रहे हैं। सीटी स्कैन हो गया। आज रिपोर्ट आई, चेस्ट में थोड़ा इंफेक्शन है। उनकी पत्नी दवा लेने के लिए निकली, मगर एक दवा मिल नहीं रही थी। मेरे पास फोन आया। मैंने कहा तुम थोड़ा समय दो मैं खुद कुछ जगहों पर तफ्तीश करके बताता हूँ। लेकिन फेविफ्लू 400 नहीं मिली। आखिरकार उन्हीं लोगों ने यहां से 800 किमी दूर इस दवा का इंतजाम करवाया। 

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दोपहर में कानपुर के एक सज्जन ने ट्वीट के जरिए रिक्वेस्ट की – सर, एक बेड चाहिए ऑक्सीजन के साथ कानपुर में, पेशेंट का ऑक्सीजन लेवल कम हो रहा है, अगर मदद मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी। साथ में फोन नंबर भी था। मेरे पापा को आज बुखार आ गया। मैं डर गया। तुरंत अपने मित्र और यशोदा अस्पताल के मालिक रजत अरोड़ा को बताया। उन्होंने फ़ौरन एक आदमी भेजा – एंटी जेन और आरटीपीसीआर टेस्ट, दोनों के लिए। एंटी जेन निगेटिव आया तो थोड़ी राहत मिली। अब आरटीपीसीआर रिपोर्ट का इंतजार है। पापा को मैंने आइसोलेशन में डाल दिया है। उन्हीं के चलते आज ऑफिस नहीं गया। जब मैं उनके इलाज, टेस्ट और दवा में लगा था, उसी दौरान यह ट्वीट आया। मैंने मेरे कानपुर के तेज तर्रार रिपोर्टर राहुल को मैसेज डाला। लिखा ये ज़रूरी केस है, करवा दो। राहुल ने करवा दिया। पता तब चला जब जिन्होंने गुजारिश की थी उन्होंने ही ट्वीट पर बहुत सारी दुआएं डालीं।

एक फोन आया। लखनऊ में एक परिवार पॉजिटिव है। वह अब बाहर नहीं जा सकता और घर में खाने-पीने के सामान से लेकर दवा तक नहीं है। आसपास के लोगों को फोन कर रहे हैं, लेकिन वे मदद करने को तैयार नहीं है। उनका पता, नंबर सब मैसेज में आ गया। मैंने लखनऊ के लोगों और प्रशासन से निवेदन किया कि इस परिवार को सामान पहुँचाया जाए। कई लोगों ने मुझे दवाई भेजनेवाली दुकानों के नाम पता दिए, मैंने परिवार के साथ साझा किया। कुछ लोगों ने खाना सप्लाई करनेवालों के बारे में भी बताया। शाम तक जाकर उस परिवार की मुश्किल हल हो गई।

दिन में कई मैसेज आते रहे। किसी को प्लाज्मा की ज़रूरत तो किसी को दाखिले की। जितना बन पाया किया। कुछ हुआ, कुछ नहीं। लेकिन जो नहीं हुआ वह कल भी नहीं होगा, ऐसा नहीं है।

शाम में मेरे एक छोटे भाई सरीखे सज्जन का फोन आया। उनके एक दोस्त मुरादनगर में रहते हैं। कोरोना पॉजिटिव हैं और उनका ऑक्सीजन लेवल लगातार गिर रहा था। उनको तुरंत एडमिशन की ज़रूरत थी। आजकल अस्पतालों में किसी को भर्ती करवाना नाको चने चबाने जैसा हो गया है। मुझे उस वक़्त एक ही नाम सूझा और मैंने फोन लगाकर कहा कि सर ये लाइफ़ का सवाल है, मैं आपके यहाँ भिजवा रहा हूँ, प्जील एडमिशन दिलवा दीजिए। दूसरी तरफ़ थे देश के जाने माने कॉर्डियोलॉजिस्ट पद्म विभूषण डॉ. पुरुषोत्तम लाल। पुराना रिश्ता है और मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूँ। इसके कई कारण हैं। उन्होंने कुछ सेकंड की चुप्पी के बाद कहा- कोई नहीं आप भेजो, मैं बोलता हूँ। 

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मरीज जब पहुँचा तो जो अस्पताल में थे उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। बोलो मामला क्रिटिकल है। अभी आईसीयू है नहीं और इनको आईसीयू में ले जाना पड़ेगा। मुझे मेरे उसी छोटे भाई जैसे सज्जन का फ़ोन आया– भैया ये लोग तो एडमिट ही नहीं कर रहे। मैंने डॉ. लाल के असिस्टेंट जिनको डॉक्टर साहब ने एडमिशन करवाने का काम दे रखा था, उनको फोन किया। मैंने कहा- सुनो, क्या मरीज अब ये ढूंढे कि किस अस्पताल में आईसीयू है? क्या तबतक ये बच पाएगा? आप एडमिट करो, ऑक्सीजन देना शुरू करो, दवाएँ चलाओ – फिर आईसीयू देखेंगे। एडमिशन हो गया और रात 9 बजे फोन आया कि सुधार जारी है।

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मैंने तो अपने कुछ जाननेवालों या दोस्तों की खातिर लड़ना शुरू किया लेकिन पिछले चार-पांच दिनों में इतने लोगों ने अपनी परेशानियाँ बतानी शुरू कीं, इतने लोगों को सख्त ज़रूरत आन पड़ी कि लगा अगर ईश्वर ने आपको कुछ लोगों का भरोसा बनाया है तो उसको बचाने की खातिर यह करते रहना ही ठीक है। आज जिस बात की तकलीफ है वो दो है। मेरे एक मित्र जो बिहार के पूर्णिया जिले के अच्छे खासे परिवार से आते हैं, उनके रिश्तेदार नोएडा के सेक्टर 29 के सरकारी अस्पताल में दाखिल हैं। उन्होंने फोन कर कहा कि उनसे बात ही नहीं हो पाती। कभी कभार जब अस्पताल के लोग परमिट करते हैं तभी बात होती है। कह रहे थे कि सुबह से किसी ने कोई दवा नहीं दी। मैं चलकर ही बाहर से अंदर आया और यह बताया भी कि मुझसे चला नहीं जा रहा है, सांस फूल रही है तो कर्मचारी ने कहा कोई बात नहीं आप चलिए हम ऑक्सीजन लगा देंगे। लेकिन वह दोबारा कभी आया ही नहीं। मेरे मित्र ने बताया कि वे बेहद डरे हुए हैं। कुछ भी करके उनकी दवाई शुरू करवा दीजिए। मैंने डीएम, कमिश्नर नोएडा को ट्वीट किया और पूरा हाल बताया। यह भी कहा कि मरीज की स्थिति क्या है, बताया जाए। लेकिन कोई जवाब नहीं आया। यह प्रशासन का अधिकार नहीं है, उसकी नाकामी है। सरकारें और सरकारी सेवा के लोग जनता का काम करने के लिए हैं और जनता के पैसे पर हैं। इसलिए वे नहीं करेंगे या नहीं बताएंगे, उनके पास यह अधिकार नहीं है। हम जब अपने अधिकार छोड़ते हैं तो सामने वाला उनपर अनाधिकृत तरीके से कब्जा कर लेता है। कल मैं उन मरीज के बारे में पता करूंगा।

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दूसरी तकलीफ गुड़गांव के एक कोविड केस को लेकर रही। एक महिला जो मेरे पुराने मित्र की भांजी हैं उनके ससुर एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती हैं। सारा परिवार पॉजिटिव है इसलिए बाहर कोई जा नहीं सकता। ससुर को छोड़कर बाक़ी सब घर में क्वारेंटीन हैं। अस्पताल वालों ने पहले आईसीयू में डाला, फिर ठीक हो रहे हैं कहकर वार्ड ले आए। फिर रेमडेसिविर देने के नाम पर बहुत कुछ किया, फिर बताया कि फेफड़ों में 40 परसेंट इंफेक्शन है, फिर कहा कि अब 60 परसेंट है। परिवार बाहर नहीं निकल सकता और वो इस बात को लेकर बेचैन हैं कि उसके बुजुर्ग के साथ ये क्या हो रहा है। एक बात जो कहनी ज़रूरी है- इस भयावह तबाही में कुछ लोग मोटी कमाई कर रहे हैं। उनको जान की नहीं पड़ी है बल्कि वे इस काम में लगे हैं कि कितना निचोड़ लें, किसको ऐंठ दें, अगर शरीर लाश भी बन जाए तो उसपर भी पैसा बनाते रहो। ऐसे लोगों के साथ जो भी हो सकता है होना चाहिए बिना ये सोचे कि ग़लत हुआ कि सही। सही ग़लत तो इंसान की खातिर सोचते हैं, हैवानों के लिए थोड़े! समय बहुत ख़राब है। बहुत ख्याल रखें अपना और अपनों का भी।

उसका फल ये रहा कि जिंदगियाँ बचीं। अगले दिन जब फोन आता है कि सर अब बच जाएंगे, ठीक हैं, शरीर के अंदर कुछ अच्छा सा पसरता हुआ लगता है। शायद वह आत्मा या रुह के उल्लसित होने से होता होगा।

मेरे एक सहयोगी पिछले तीन दिनों से कोरोना की चपेट में हैं।

(राणा यशवंत के फेसबुक वाल से)
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राणा यशवंत

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