भारत में एक पुरानी कहावत है- “कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी”। यानी कोस-कोस पर पानी बदल जाता है और हर चार कोस पर वाणी यानी भाषा बादल जाती है। और इसी तरह हमारी पौराणिक कहानियाँ भी भाषा और भाव के बदलाव के साथ-साथ बदलती रहती हैं। हमारा परम्परागत त्योहार होली इस वर्ष भी देहरी पर आ पहुँचा है। बचपन से होली मनाने का पढ़ा और सुना कारण तो यही कहानी थी कि पौराणिक काल के ऐरच नगर के स्वयंभू और अहंकारी राजा हिरण्यकश्यप की ज़िद थी कि उसके राज्य में केवल वही पूज्य है और ईश्वर की पूजा कोई न करे। लेकिन हिरण्यकश्यप के बेटे प्रह्लाद को ईश्वर भक्ति ही अच्छी लगती थी। राजा ने अपने बेटे को ऐसा करने से रोकने के लिए कई तरह की प्रताड़नाएँ दीं लेकिन अंतत: प्रह्लाद हर तरह के षड्यंत्र से बच निकला। यहाँ तक कि अपनी क्रूर बुआ होलिका के साथ आग में बैठकर भी वह ईश्वर कृपा से बच गया और होलिका जल गयी। इस प्रसिद्ध कहानी के हिसाब से होली बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक मानी जाती रही है।
लेकिन पुराणों से निकली एक प्रचलित कथा और भी है, जिसके अनुसार श्रीकृष्ण, (जो विष्णु के आठवें अवतार माने जाते हैं) का होली से गहरा संबंध भी है। यह पौराणिक कहानी बताती है कि मथुरा के राजा कंस, जो कृष्ण के मामा भी थे, ने कृष्ण को मारने की एक के बाद एक कई साज़िशें कीं। कंस ने पूतना को दुधमुँहे कृष्ण को छल से विषपान कराने भेजा था। पूतना मर गयी लेकिन कृष्ण बच गये। कहा जाता है कि बालकृष्ण उस विष के प्रभाव से तभी से साँवले रंग के हो गये थे। बचपन में कृष्ण को अपने साँवले रंग से बड़ी अप्रसन्नता थी। बहुत प्रसिद्ध गाना भी हमने सुना ही है कि राधा के गोरे और अपने साँवले होने के कारण कृष्ण क्षुब्ध होकर माता यशोदा से सवाल पूछते थे। -“राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला?” कृष्ण के ऐसे सवालों से यशोदा मुस्कुराती भी हैं पर बेटे का दर्द भी समझती हैं और कृष्ण को सलाह देती हैं कि तुम अपनी पसंद के रंगों से राधा और अपने सखाओं को रंग दो, फिर श्वेत– श्याम का भेद ही मिट जाएगा। कहते हैं तब से ही रंगों से होली खेलने का रिवाज़ चल निकला।
कृष्ण और उनके सखा नंदगाँव से राधा के गाँव बरसाने में कूदते-फाँदते पहुँच जाते थे और सभी गोपियों के ऊपर ख़ूब रंग डालते थे। जवाब में बरसाने की राधा और सभी गोपियाँ उन पर रंग और गुलाल की बौछारों के साथ-साथ गीले कपड़ों की गुँथी हुई चुनरियों से और छड़ियों या लट्ठों से प्रहार भी करती थीं।
आज भी बरसाने में फाल्गुन की नवमी के दिन छड़ीमार या लट्ठमार होली की और फाल्गुन अष्टमी के दिन लड्डू होली की परंपरा है। इसकी पौराणिक कहानी कुछ ऐसी है कि द्वापर युग में बरसाने की होली खेलने का निमंत्रण लेकर राधारानी के पिता बृषभानजी ने राधा की सखियों को नंदगाँव भेजा गया था। इस न्यौते को कृष्ण कन्हैया के पिता नंद बाबा ने स्वीकार कर लिया और स्वीकृति का पत्र एक पुरोहित जिसे पंडा कहते हैं उनके हाथों से बरसाना भेजा। बरसाने में बृषभानजी ने नंदगांव से आए पंडे का स्वागत किया और थाल में लड्डू खाने को दिया। पंडा लड्डू खा ही रहा था कि इस बीच बरसाने की गोपियों ने उन्हें गुलाल लगा दिया। फिर क्या था पंडे ने भी जवाब में गोपियों को लड्डूओं से मारना शुरू कर दिया, तो ऐसे लड्डू होली भी शुरू हो गयी।
इस तरह से कृष्ण की होली की जो भी कथायें हमने सुनीं, उनमें बड़े सहज रूप में दिखता है कि कृष्ण, उनके सखाओं, गोपियों और सभी क्षेत्र के बाशिंदों के बीच बड़ी मस्ती से होली खेली जाती थी। बस तभी से चल रही है गोकुल, वृंदावन, बरसाने और मथुरा में अनोखी होली।
कृष्ण की होली किसी भी तरह के जाति या लिंग के भेदभाव से परे है। कृष्ण नहीं देखते कि जिसे रंगना है उसे छूने की मनाही तो नहीं या उसका कुल क्या है। होली में सबको बराबरी से रंगों में सराबोर करने वाले कृष्ण आगे चलकर विश्व की सबसे प्रसिद्ध कृतियों में से एक भगवदगीता का सम्भाषण करते हैं और कर्मयोग के दर्शन से अर्जुन को निष्काम कर्म की प्रेरणा देते हैं। कृष्ण एक ओर बचपन में सहज रूप में चपल हैं वहीं दूसरी ओर गम्भीरता के सागर भी हैं। आज के समय में बड़ी ज़रूरत महसूस होती है ऐसे एक कृष्ण की, जो प्यार के अगणित सौम्य और चटकीले रंग बरसा दें, जो सब को परस्पर स्नेह से सराबोर कर दें।
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