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होली विशेष :  जब रंगों को सांप्रदायिक बना दिया गया

भारत में नफ़रत के ये रंग 20वीं सदी की शुरूआत के साथ दिखने शुरू हुए। इसके पहले तक रंग माहौल में रंग भरने के अलावा कोई और काम करते हों ऐसा बहुत कम ही दिखाई देता है। यह बात अलग है कि रंगों में नफ़रत भरने के लिए अक्सर बहुत पुराने अतीत के उदाहरण ज़रूर पेश किए जाते हैं।
हरजिंदर

कहते हैं कि हर समाज हर देश के अपने रंग होते हैं। यह बात सिर्फ मुहावरे की नहीं है। अगर हम खालिस रंग की ही बात करें तो रंगों को लेकर हर समाज की अपनी पसंद और नापसंद होती है। यह किसी भी समाज के अतीत से निकलती है और कईं बार उसे भविष्य की ओर ले जाती है। रंगों की इस पसंद और नापसंद को लेकर कोई दिक्क़त भी नहीं है, दिक्क़त तब होती है जब कुछ रंगों से खास किस्म के आग्रह ही नहीं नफ़रत तक जोड़़ दी जाती है। 

भारत में नफ़रत के ये रंग 20वीं सदी की शुरूआत के साथ दिखने शुरू हुए। इसके पहले तक रंग माहौल में रंग भरने के अलावा कोई और काम करते हों ऐसा बहुत कम ही दिखाई देता है। यह बात अलग है कि रंगों में नफ़रत भरने के लिए अक्सर बहुत पुराने अतीत के उदाहरण ज़रूर पेश किए जाते हैं।

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विभाजन के रंग

बीसवीं सदी की दो घटनाएं हैं, जिन्होंने रंगों के मतलब को बदलने की शुरूआत की। ये दोनों घटनाएं थीं- एक तरफ मुसलिम लीग की स्थापना और दूसरी तरफ हिंदू महासभा की स्थापना। मुसलिम लीग ने चाँद तारे वाले हरे झंडे को कब अपना लिया इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन यह झंडा जल्द ही उसका हिस्सा बन गया।

दूसरी तरफ हिंदू महासभा की स्थापना 1915 में कुंभ मेले के दौरान हुई। यानी उस माहौल में जहाँ चारों तरफ मंदिरों, घाटों, अखाड़ों और पद-पातशाहियों के शिविरों पर भगवा पताकाएँ लहरा रहीं थीं। इस भगवा रंग की पताका को उसने बहुत सहज ढंग से अपना लिया। 

जिस तरह से भगवा या केसरिया रंग हिंदू धर्म से जुड़ा रहा है, कुछ वैसा ही जुड़ाव हरे रंग का इसलाम से भी है।

अभी तक ये धर्म के रंग थे, या धार्मिक परंपराओं के रंग थे। या ये ऐसे रंग थे जिससे खास समुदाय के लोग अपना सहज जुड़ाव महसूस कर लेते थे। कम से कम ये विभाजन के रंग तो नहीं ही थे।

लेकिन 20वीं सदी की शुरूआत में इसी सहज जुड़ाव को राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश शुरू हो गई। 

झंडे में लाल रंग

जल्द ही कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले स्वतंत्रता आंदोलन को भी महसूस हुआ कि उसका भी एक झंडा होना चाहिए। और उस आंदोलन ने अपने रंग तलाशने शुरू कर दिए। यह शुरू से ही साफ था कि लाल और नीला ये दो रंग ऐसे हैं जिनसे परहेज बरता जाना है। ये ब्रिटिश झंडे यानी यूनियन जैक के रंग थे, जिसे क्रांतिकारी लोग जगह-जगह जलाया करते थे, उसका रंग भला किसे स्वीकार होता? 

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हालांकि 1921 में पिंगली वैंकैय्या ने कांग्रेस के लिए जो पहला झंडा बनाया उसमें एक रंग लाल भी था। उसमें सबसे उपर एक सफेद पट्टी थी, उसके नीचे हरी पट्टी और सबसे नीचे लाल पट्टी, बीच में एक चरखा था जो तीनों रंगों को कवर करता था। लेकिन इस लाल रंग का शेड यूनियन जैक के लाल रंग से अलग था। 

झंडे में चरखा

झंडे में चरखा बनाने की सिफारिश लाला हंसराज ने थी और तीन रंगों का चुनाव खुद गांधी ने ही किया था। उन्होंने इस पर लिखा भी कि सबसे ऊपर सफेद रंग होगा जो सभी धर्मों का प्रतिनिधित्व करता है, उसके नीचे हरा रंग है जो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता है और फिर लाल रंग है जो हिंदुओं का प्रतिनिधि रंग है।

गांधी आंदोलन में सभी धर्मों के लोगों को एक साथ लेकर चलना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सभी रंगों को एक साथ लाने की कोशिश की। लेकिन जाने अनजाने में ही उन्होंने रंग को धर्म से जोड़ने की कोशिश पर भी मुहर लगा दी थी।

शायद गांधी भी इस बात को समझ गए थे, इसलिए बाद में जब उन्होंने इस झंडे की व्याख्या की तो धर्मों वाली यह बात नहीं कही। 

देश का झंडा

कांग्रेस के नेताओं को लगता था कि वे जो बना रहे हैं वह एक पार्टी का झंडा नहीं एक देश का झंडा होगा। और यह जो झंडा बना था उसकी समस्या यह थी कि वह बल्गारिया के झंडे की तरह लगता था। इसलिए उसे बदला जाना ज़रूरी लगा तो कांग्रेस ने पट्टाभि सीतारमैय्या की अध्यक्षता में एक झंडा समिति बनाई।

समिति की पहली सिफारिश पूरी तरह से भगवा झंडा बनाने की ही थी। कुछ लोगों को यह बात स्वतंत्रता आंदोलन की चेतना के मुताबिक़ नहीं लगी, इसलिए इसे बदलवाया गया और बात फिर से तीन रंगों की अलग तरतीब पर आ गई।

लेकिन जवाहर लाल नेहरू यह चाहते थे कि लाल रंग की जगह भगवा, गेरुआ, जोगिया या केसरी रंग इस्तेमाल किया जाए क्योंकि यह भारतीय परंपराओं का रंग है।

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स्वराज का झंडा

एक तर्क यह भी दिया गया था कि आमतौर पर कुसुम के फूल से तैयार होने वाला यह रंग भारत में ज्यादा आसानी से उपलब्ध है। कहा जाता है कि कुछ लोगों ने इस पर प्रसिद्ध रसायनशास्त्री प्रफुल्ल चंद्र राय से भी बात की थी, क्योंकि राय भारतीय रंगों पर एक छोटी से पुस्तिका भी लिख चुके थे।

हालांकि शुरू में जो झंडा सामने आया उसे कांग्रेस का नहीं स्वराज का झंडा कहा गया लेकिन जल्द ही यह पूरे स्वतंत्रता आंदोलन का झंडा बन गया।

जहाँ कांग्रेस तीन रंगों का समावेश कर रही थी, वहीं एक दूसरी धारा थी जो न सिर्फ भगवा पर जोर दे रही थी बल्कि मामले को सांप्रदायिक रंग भी दे रही थी।

दामोदर सावरकर ने अपनी किताब ‘हिंदू पद-पादशाही’ में शिवाजी के भगवे झंडे का जिक्र किया, ‘जिसने मुसलमानों के हरे झंडे को झुकने पर मजबूर कर दिया था।‘

भगवा झंडा

बाद में जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बना तो उसने भगवा झंडे को ही अपनाया। 

दूसरी तरफ पाकिस्तान बना तो उसने चाँद तारे वाले हरे झंडे को एक सफेद पट्टी के साथ अपना लिया। इसके बाद से सांप्रदायिकता में जो रंग भरे गए वे आज तक जारी हैं। 

काश किसी होली हम रंगों के इस भेद को ख़त्म कर पाते!

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