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सिन्धु का पानी रोकना नामुमकिन है भारत के लिए

पुलवामा हमले के बाद देश में राष्ट्रभक्ति का उन्माद है। कोई युद्ध की दुन्दुभि बजा रहा है, तो कोई पाकिस्तान को दिए गए मोस्ट फ़ेवर्ड नेशन (एमएफ़एन) के दर्जे को ख़त्म करने को निर्णायक कार्रवाई के रूप में पेश कर रहा है। उन्माद की यह आग इतनी प्रचंड है कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में विदेश सचिव रहे कंवल सिब्बल ने पाकिस्तान को जा रहे सिन्धु नदी के पानी को रोकने का मशविरा दे डाला। 
  • उरी हमले (18 सितम्बर 2016) के हफ़्ते भर बाद ख़ुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी यह जुमला छोड़ चुके हैं कि पानी और ख़ून एक साथ नहीं बह सकता। हालाँकि, सिन्धु नदी की भौगोलिक सच्चाई ऐसी है कि भारत यदि सिर के बल खड़ा हो जाए तो भी उसका पानी नहीं रोक सकता।
पुलवामा हमले के बाद पूर्व विदेश सचिव रहे कंवल सिब्बल ने कहा, ‘भारत को जितना सख़्त होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। भारत को सिन्धु जल सन्धि को तोड़ देना चाहिए। इससे पाकिस्तान सीधा हो जाएगा।’

भारत को दिलाएँगे पाक का पानी!

उरी हमले के बाद 27 जनवरी 2017 को प्रधानमंत्री ने जालन्धर की एक चुनावी रैली में एलान किया, ‘पंजाब के किसानों को ज़्यादा पानी मिलना चाहिए। इसके लिए हमने फ़ैसला किया है कि सिन्धु नदी का जो पानी पाकिस्तान को चला जाता है, वह भारत को मिलना चाहिए।’ इससे पहले 25 नवम्बर 2016 को भी मोदी ने पंजाब के बठिंडा में एक रैली में कहा था, ‘सिन्धु नदी का पानी भारतीय किसानों का है। हमारे किसानों को पर्याप्त पानी मुहैया कराने के लिए हम कुछ भी करेंगे।’

नामुमकिन है सिन्धु को रोकना

प्रधानमंत्री होने के नाते नरेन्द्र मोदी को अच्छी तरह से मालूम था कि पाकिस्तान के हिस्से वाले सिन्धु के पानी को रोकना तक़रीबन नामुमकिन है। सच्चाई तो यह है कि 1960 में दोनों पड़ोसियों के बीच हुए सिन्धु नदी जल समझौते के मुताबिक़, भारत को जो 20 फ़ीसदी पानी मिला था, उसके दोहन के लिए भी हम आज तक कोई ख़ास इन्तज़ाम नहीं कर पाये। 

कश्मीर के गुरेज़ सेक्टर में किशनगंगा नदी पर एक बड़ी पनबिजली परियोजना ज़रूर चल रही है, लेकिन एक तो इसके बनकर तैयार होने में अभी दसियों साल और लगेंगे और दूसरा इसके बन जाने के बाद भी सिन्धु बेसिन के कुल पानी के मुक़ाबले उसके मामूली से हिस्से का ही दोहन हो पाएगा।
  • ऐसा नहीं है कि भारत की पूर्ववर्ती सरकारें सिन्धु नदी के पानी की अहमियत से अनजान थीं। बल्कि सच्चाई तो यह है कि सिन्धु के बेशुमार पानी को रोकना भारत के बूते की बात ही नहीं है। इसके लिए जितनी बड़ी इंज़ीनियरिंग और जितने अधिक धन की ज़रूरत होगी, उसे जुटाना भारत के लिए बहुत टेढ़ी खीर है।

सिन्धु नदी का उद्गम चीन के क़ब्ज़े वाले तिब्बत से होता है। लेकिन महाशक्ति होने के बावजूद चीन चाहकर भी सिन्धु के पानी को अपने ही देश में नहीं रोक सकता। दरअसल, मनुष्य कितना भी बलशाली हो जाए, वह हर एक क़ुदरती ताक़त या भौगोलिक परिस्थिति को ठेंगा नहीं दिखा सकता। 

ग्लेशियरों (हिमनद) से निकलने वाली हिमालय की बारहमासी नदियाँ अपने साथ बहुत बड़ा पर्यावरण भी बनाती हैं। नदी के क़ुदरती मार्ग में बड़े फ़ेरबदल का सीधा मतलब है कि उसके सारे पर्यावरण को भी बदलना होगा। यही पहलू हर एक कल्पना को सीमित करने के लिए काफ़ी है।

भारत, चीन और पाक के बीच सिन्धु बेसिन क़रीब 11.5 लाख वर्ग किमी. में फैला है। यह अपनी 5 सहायक नदियों चिनाब, झेलम, सतलज, राबी और ब्यास के बेसिनों से मिलकर बना है। यह भारत के गंगा बेसिन से भी बड़ा है। उत्तर प्रदेश जैसे चार राज्य सिन्धु बेसिन में समा सकते हैं।
सिन्धु की लम्बाई गंगा से भी अधिक यानी 3 हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा है। सिन्धु के अलावा सतलज भी चीन से निकलती है। जबकि बाक़ी चारों नदियों का उद्गम स्थल भारतीय सीमा में ही है। कराची और कच्छ के रण के बीच सभी सहायक नदियाँ सिन्धु के डेल्टा में मिलते हुए अरब सागर में विलीन होती हैं।
1960 की सिन्धु जल सन्धि की बदौलत भारत और पाकिस्तान के बीच तीन-तीन नदियों का बँटवारा हुआ। सिन्धु, चिनाब और झेलम जैसी पश्चिमी नदियों का 80 फ़ीसदी पानी पाकिस्तान के और बाक़ी 20 फ़ीसदी पानी भारत के हिस्से में आया। इस पानी का इस्तेमाल सिंचाई और पनबिजली उत्पादन के लिए हो सकता है। बशर्ते, भारत नदी के दुर्गम रास्तों में ऐसे बाँध और बिजलीघर बना सके जिससे नदी का प्रवाह एक सीमा से ज़्यादा बाधित नहीं हो। ऐसी परियोजनाओं को ‘Run of the river projects’ कहते हैं।

सिन्धु की आड़ में झाँसा

कश्मीर के दुर्गम पहाड़ी और बर्फ़ीले इलाकों की तो छोड़िए, अन्य क्षेत्रों में भी किसी एक नदी बेसिन के पानी को दूसरे नदी बेसिन की ओर ले जाना बहुत मुश्किल काम है। इसमें बड़े पैमाने पर आबादी के विस्थापन की नौबत भी आती है। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि क़ुदरत ने किसी भी बेसिन को ऐसा नहीं बनाया है कि वह अपने पड़ोसी बेसिन के अधिकतर पानी को भी संभाल सके। 

नदियों को जोड़ने की योजना के तहत एक नदी के पानी को दूसरे नदी के बेसिन में भेजने की कल्पना को साकार करने का काम देश के एकाध राज्यों के बीच शुरू हुआ है। लेकिन इससे सम्बन्धित नदियाँ बहुत छोटी हैं।

सियासी उल्लू सीधा करना ही मक़सद

ज़रा सोचिए कि इन तथ्यों को अच्छी तरह से जानने-समझने के बावजूद देश के महत्वपूर्ण लोग भारतवासियों को कैसी अज्ञानता में धकेलना चाहते हैं! ऐसे लोगों की मंशा को बेनक़ाब करना ही असली राष्ट्रभक्ति है जो जनता की आँखों में धूल झोंककर अपना सियासी उल्लू सीधा करना चाहते हैं। ऐसा नहीं होने की वजह से ही अन्ध-भक्तों की टोली उन्माद फ़ैलाने लगती है। मानो, सिन्धु नदी का पानी रोकना किसी बहते नल को बन्द कर देने जैसा आसान काम है।

  • भौगोलिक दृष्टि से देखें तो दो-तिहाई पाकिस्तान सिन्धु बेसिन में बसा है। पाकिस्तान ने सिन्धु पर कई बाँध, सिंचाई के लिए नहरें और पनबिजलीघर बनाये हैं। सिन्धु नदी के अपने ही हिस्से का पानी रोकने के लिए भी भारत को कई विशाल बाँध, विकराल सुरंगें, नहरों का व्यापक जाल तैयार करना होगा। इतना होने के बाद ही सिन्धु जल सन्धि को तोड़ने की बात हो सकती है। 

भारत में भी तबाही लाएगी सिन्धु 

कल्पना कीजिए कि जब पाकिस्तान को सिन्धु का पानी नहीं मिलेगा, वहाँ पानी के लिए हाहाकार मचेगा तो क्या दुनिया की महाशक्तियाँ मानवाधिकारों की दुहाई देते हुए दख़ल नहीं देंगी? क्या इससे ऐसा तनाव पैदा नहीं होगा कि युद्ध की नौबत आ जाएगी? युद्ध की दशा में विशाल बाँधों की सुरक्षा असम्भव हो जाएगी। बाँधों के टूटने से पाकिस्तान में तबाही तो बाद में होगी, पहले तो भारत पर क़हर बरपा होगा।

साफ़ है कि जो भी सिन्धु के पानी को रोकने की बात करते हैं, वे सिर्फ़ हवाई क़िले बनाते हैं। ज़मीनी हक़ीक़त तो यह है कि आज भारत के अधिकतर राज्य नदियों के पानी को लेकर आपस में ऐसे झगड़ते हैं, मानो वे नेक-दिल पड़ोसी नहीं बल्कि एक-दूसरे के जानी-दुश्मन हों।

यमुना लिंक नहर का मसला लंबित

पंजाब और हरियाणा भी दशकों से यमुना लिंक नहर का मसला नहीं सुलझा सके। पंजाब के लोग किसी भी क़ीमत पर हरियाणा को पानी नहीं देना चाहते। भले ही यह पानी समुन्दर में ही बहकर क्यों न चला जाए! इस जल-विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट के कड़े रवैये से भी आज तक कुछ भी हासिल नहीं हुआ।

राज्यों और केन्द्र में चाहे क्षेत्रीय दलों की सरकारें रही हों या बीजेपी-कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों की, देश में अभी तक अपनी नदियों के पानी से जुड़े झगड़ों के समाधान की संस्कृति तो विकसित हो नहीं सकी, फिर भी तुर्रा यह है कि हम सिन्धु को मुट्ठी में बाँध लेंगे! काश! डींगे हांकने की भी कोई सीमा होती।
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मुकेश कुमार सिंह

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