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क्या भारत प्रचार युद्ध में चीन के मुक़ाबले पिछड़ रहा है?

क्या भारत सरकार देश और दुनिया के सामने चीन के आक्रामक रवैये और हिंसक कार्रवाई को प्रभावी ढंग से रख पा रही है? क्या वह दुनिया को बता पा रही है कि चीन ने किस तरह उसकी सीमाओं का उल्लंघन किया है और वह सैनिकों की हत्या करके भड़काने वाली हरकतें कर रहा है? क्या वह दुनिया को बता पा रही है कि अगर चीन को न रोका गया तो इसके कितने घातक परिणाम निकल सकते हैं?

ये सवाल हम इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि आधुनिक युद्धों में अपने पक्ष के प्रचार का महत्व बहुत बढ़ गया है। अब एक जंग अगर सरहद पर लड़ी जाती है तो दूसरी प्रचार के मोर्चे पर। और जो देश प्रचार के मोर्चे वाली इस जंग में जितना ताक़तवर और प्रभावशाली होता है, वह उतना ही विश्व जनमत को प्रभावित करता है। 

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इसका सीधा सा मतलब ये है कि जो देश जितने अच्छे ढंग से दुनिया के सामने अपना पक्ष रख पाता है उसकी उतनी ही ज़्यादा सुनी और मानी जाती है। इसे प्रोपेगेंडा वॉर (प्रचार युद्ध) भी कहा जा सकता है।

प्रोपेगेंडा वॉर एक तरह से परसेप्शन का युद्ध है। इसके ज़रिए दूसरे देश की नाजायज़ हरकतों को उजागर किया जाता है और अपने देश की सकारात्मक छवि पेश की जाती है।

प्रोपेगेंडा वॉर में ये दिखाने की कोशिश की जाती है कि दूसरा देश हमलावर है और आप शांति के पक्षधर हैं। यानी आप जो कुछ भी कर रहे हैं, वह बचाव में कर रहे हैं और ऐसा करना किसी भी देश का हक़ माना जाता है। इसी के आधार पर दुनिया अपनी राय बनाती है कि कौन सही है और कौन ग़लत। 

चीन के विस्तारवादी इरादे  

अब अगर हम चीन से चल रहे विवाद के संदर्भ में इसे लें तो भारत सरकार की कोशिश ये होनी चाहिए थी कि वह दुनिया को बताए कि चीन ने किस तरह भारतीय भूमि पर कब्ज़ा कर लिया है और बीस भारतीय सैनिकों की जान लेने के लिए ज़िम्मेदार है। उसे बताना चाहिए था कि चीन के विस्तारवादी इरादे क्या हैं और वह किस तरह से तमाम तय नियम-कायदों को धता बताकर विवाद पैदा कर रहा है। 

भारत को दुनिया के सामने ये स्थिति भी रखनी चाहिए थी कि चीन ने कैसे पिछले दो महीनों में भारतीय सीमाओं का अतिक्रमण किया है और कैसे उसने साठ किलोमीटर ज़मीन हड़पी है।

भारत को ये भी बताना चाहिए था कि छह जून की बातचीत में सहमति के बावजूद चीन ने डी-एस्केलेशन के दौरान उसका उल्लंघन किया और उसके बीस से ज़्यादा सैनिकों को मार डाला। 

बातचीत से है उम्मीद?

लेकिन ऐसा नहीं लगता कि सरकार ने ये काम प्रभावी ढंग से किया है। ये स्पष्ट दिख रहा है कि सरकार इस प्रोपेगेंडा युद्ध में चीन के मुक़ाबले पिछड़ रही है। वह दुनिया को ये सारे सच बताने से या तो कतरा रही है या फिर घबरा रही है। कतराने की वज़ह ये हो सकती है कि वह इस मामले को तूल नहीं देना चाहती हो और बातचीत के ज़रिए उसे अभी भी समाधान ढूँढने की उम्मीद हो। 

एक बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ये मुद्दे उठ जाते हैं तो फिर बात हाथ से निकल जाती है। दोनों पक्षों के  दावों-प्रति दावों के बीच बात बिगड़ती चली जाती है। 

कतराने की दूसरी वज़ह ये भी हो सकती है कि सरकार को अपने दावों पर भरोसा ही न हो, उसे ये लगता ही न हो कि वह जो दावा अंतरराष्ट्रीय मंच पर करने जा रही है, क्या वह टिक भी पाएगा। अगर बिना आत्मविश्वास और तैयारी के ऐसा किया जाएगा तो ज़ाहिर है कि ये भारत पर उल्टा पड़ सकता है। 

जहाँ तक घबराने की बात है तो उसकी स्पष्ट वज़हें सामने हैं और वे ये हैं कि सरकार को लग रहा है कि ऐसा करना घरेलू राजनीति में उसके लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। अव्वल तो ऐसा करने का मतलब है कि उसे स्वीकारना पड़ेगा कि उसने साठ किलोमीटर भूमि चीन के हाथों गँवा दी है और अब वह उसे वापस लेने की स्थिति में नहीं है। 

जो पार्टी और नेता एक-एक इंच ज़मीन की रक्षा का दम भरते हों वे साठ किलोमीटर ज़मीन के छीन लिए जाने की बात सार्वजनिक रूप से कैसे स्वीकार कर सकते हैं। इसीलिए इस मुद्दे पर भारत सरकार ने अपने होंठ सिल रखे हैं।
विपक्षी दलों द्वारा बार-बार पूछे जाने के बावजूद मोदी सरकार कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं है। 

चीनी हमले के बारे में भी सरकार का यही रवैया है। उसकी ओर से कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है और न ही वह इस हमले के बारे में कोई विवरण देने को तैयार है। प्रोपेगेंडा वॉर इस तरह से नहीं लड़ी जा सकती। इसके लिए आपको खुलकर और पूरे आत्मविश्वास के साथ लड़ना होता है। 

चीन पूरी तरह आक्रामक 

चीन द्वारा लड़ी जा रही इस जंग को देखिए। वह पूरी आक्रामकता दिखा रहा है। हमारी ज़मीन पर कब्ज़ा करके हमको ही आँखें दिखा रहा है, हमें ही दोषी भी बता रहा है। उसका दावा है कि गलवान घाटी की वह तमाम भूमि उसी की थी। यहाँ तक कि भारतीय सैनिकों पर हुए हिंसक हमले के लिए भी उसने भारत को ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया है। 

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बताया जाता है कि लेफ्टिनेंट जनरल के स्तर की बातचीत के दौरान भी उसका यही रवैया था। उसने साफ़ कह दिया था कि साठ किलोमीटर की वह ज़मीन उसकी है और वह उससे पीछे हटने नहीं जा रहा है। चीन ने लगातार भारत सरकार पर दबाव बनाया हुआ है और सचाई यही है कि वह प्रोपेगेंडा वॉर के पहले दौर में हार गई है। 

और ये तब है जब भारत की एक लोकतंत्र के रूप में प्रतिष्ठा है। चीन इस मामले में हमारे सामने कहीं नहीं टिकता। उसके द्वारा दी जाने वाली सूचनाओं की विश्वसनीयता भी बहुत कम है और इस समय उस पर हर तरफ से हमले हो रहे हैं। ये तो भारत सरकार के लिए सर्वाधिक अनुकूल स्थितियाँ थीं मगर वह इसका फ़ायदा उठा ही नहीं पा रही। 

सीधी सी बात है कि सरकार को दुविधाओं से उबरना होगा और सच का सामना करना होगा। अपने राजनीतिक फ़ायदों के लिए वह देश के हितों को कुर्बान नहीं कर सकती। 

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मुकेश कुमार

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