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‘फ्रंटलाइन वॉरियर’ बन गाँधी ने महामारी को हराया था; आज के नेता सबक़ लेंगे?

दुनिया आज जब कोविड-19 की महामारी से जूझ रही है तब उसके पास मानवता की रक्षा के लिए जन-जन की सेवा करने वाला न कोई महात्मा गाँधी है और न ही कोई मदर टेरेसा। महामारी से संघर्ष के दौरान मनुष्य को साहस और सहारे की आवश्यकता होती है। यह साहस उन्हें उस विश्वसनीय नेतृत्व से मिल सकता है जो हमेशा मानव कल्याण को अपने निजी हितों से ऊपर रखता हो। भारत के पास महात्मा गाँधी द्वारा दक्षिण अफ़्रीका में संक्रामक महामारी का मुक़ाबला करने का समृद्ध अनुभव है।

वह 1904 का साल था जब गाँधी वापस दक्षिण अफ़्रीका गए। तब तक गाँधी को दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले हिन्दुस्तानी साम्राज्यवाद और नस्लीय भेदभाव से मुक्ति का नेता स्वीकार कर चुके थे। उस समय दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले हिन्दुस्तानियों में हिंदू, मुसलमान और पारसी थे। गाँधी हमेशा ही जहाँ भी गए, सबसे पहले वहाँ के मज़दूरों से मिलते थे। यहाँ तक कि जब वह ब्रिटेन गए तो वहाँ भी मज़दूरों के दुःख-दर्द को सुना-समझा।

गाँधी जब दक्षिण अफ़्रीका पहुँचे तब वहाँ पर प्लेग महामारी फ़ैल गई थी। हिन्दुस्तानी मज़दूरों के तिरस्कार के लिए ब्रिटिश लोग ‘कुली’ शब्द का उपयोग करते थे और उनके रहने के इलाक़ों को ‘कुली लोकेशन’ कहते। मज़दूरों के उन इलाक़ों में साफ़-सफ़ाई के अभाव में गंदगी रहती थी लेकिन महामारी उस गंदगी से नहीं बल्कि एक सोने की खदान से फ़ैली थी।

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गाँधी ने कैसे किया महामारी का मुक़ाबला?

गाँधी ने महामारी से लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए चार तरीक़े अपनाए। पहला तरीक़ा तो यह था कि वह ख़ुद कुछ लोगों के साथ मज़दूरों की बस्ती में गए। उन्होंने अपने साथ जाने के लिए कल्याण दास और माणेकलाल सहित चार लोगों को चुना। ये चारों ही लोग अकेले थे यानी परिवार नहीं था जिसके कारण बीमारी के फैलने का ख़तरा कम हो गया। जब इन चारों लोगों को गाँधी ने समुदाय में जाकर बीमारी से मुक्ति की कोशिश करने की बात कही तो उन सब का एक ही जवाब था, ‘जहाँ आप वहाँ हम।’ ये गाँधी के प्रति उनके सहकर्मियों का विश्वास था। एक मि. रिच भी थे जो गाँधी के साथ लोगों की सेवा में जाना चाहते थे लेकिन गाँधी ने यह कह कर मना कर दिया था कि उनका परिवार बड़ा है, उन्हें नहीं जाना चाहिए। मि. रिच ने बाहर रहकर सहयोग किया।

गाँधी ने दूसरा तरीक़ा जन-संवाद का अपनाया। जन-संवाद के माध्यम के रूप में उस वक़्त गाँधी के पास अपना अख़बार ‘इंडियन ओपिनियन’ था। उन्होंने महामारी विषयक पत्र लिखा जिसे पढ़कर कई लोग मदद के लिए आगे आए।

गाँधी ने तीसरा तरीक़ा लोगों से लगातार संवाद करके, उन्हें इस महामारी के प्रति जागरूक करने का अपनाया। उनको मानसिक संताप से बाहर निकालने की कोशिश करते रहे।

इस महामारी से मुक्ति के लिए गाँधी ने चौथे तरीक़े के तौर पर प्रशासन के कामों की समीक्षा करते हुए उसे लगातार उसके दायित्वों का बोध कराने का अपनाया। 

गाँधी ने बीमार लोगों को अस्पताल पहुँचाया। लोगों के लिए खाने का इंतज़ाम किया। उन्होंने न केवल लोगों को दवा देने से लेकर पानी पिलाने तक की सेवा की बल्कि मरीज़ों का मल-मूत्र भी साफ़ किया।

सोचिए, उस इंसान के दिल में मनुष्यता के प्रति कितनी करुणा होगी। गाँधी की निडरता एक तरफ़ साम्राज्यवाद से संघर्ष से जहाँ विकसित हुई वहीं मनुष्य को काल के मुहँ से बचाने के कारण व्यापक हुई।

उन्होंने आधुनिक चिकित्सा पद्धति से लोगों का इलाज होने दिया लेकिन साथ में परम्परागत चिकित्सा पद्धति का भी उपयोग किया। फेफड़ों की इस बीमारी के लिए डॉक्टर मरीज़ों को ब्रांडी दे रहे थे। गाँधी ने तीन मरीज़ों का परम्परागत चिकित्सा पद्धति से इलाज किया। उनकी छाती पर मिट्टी की पट्टी बाँधी। इन तीनों मरीज़ों में से दो बच गए थे। 

अकेला ही चला, कारवाँ बनता गया 

दक्षिण अफ़्रीका फेफड़ों की इस संक्रामक प्लेग नामक महामारी की महात्मा गाँधी को जानकारी उनके एक सहयोगी मदनजीत ने दी। मदनजीत उनके अख़बार ‘इंडियन ओपिनियन’ के लिए काम करते थे। वह अख़बार के ग्राहक बनाने और चन्दा एकत्रित करने के लिए घूम रहे थे तो उन्हें महामारी की जानकारी मिली। जब उन्होंने महामारी के समय गाँधी को बुलाया तो उसे पूरी तरह से विश्वास था कि गाँधी ज़रूर आएँगे। एक कार्यकर्ता का अपने नेतृत्व पर इस तरह का विश्वास दुर्लभ है। आज कोरोना महामारी में हम देख सकते हैं कि नेता तो कार्यकर्ताओं को अपने राजनीतिक प्रचार के लिए लगा देते हैं लेकिन कार्यकर्ता नेताओं को सुझाव और सलाह बहुत कम दे पाते हैं।

गाँधी ने जब महामारी से लड़कर लोगों को बचाने का फ़ैसला किया था तब वह अकेले ही थे लेकिन लोगों का उन पर विश्वास था। जिस व्यक्ति को कहा वही गाँधी के साथ जुड़ गया। यहाँ तक कि वे अंग्रेज़ भी गाँधी के साथ आ गए जिनके ख़िलाफ़ वह लड़ रहे थे। गाँधी का संघर्ष एक व्यक्ति के विरोध में न होकर साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति के विरोध में था। 
गाँधी ने महामारी के ख़िलाफ़ कारवाँ बनने के बारे में अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में लिखा है, ‘भावना शुद्ध हो तो संकट के लिए सेवक और साधक मिल ही जाते हैं।’

आज जब महामारी में नेताओं को जनता से दूर होते देखते हैं तब प्रश्न उठता है कि क्या भारत सहित विश्व में नेतृत्व की भावना शुद्ध नहीं है? बिना जनता के तो संसार की कोई शासन प्रणाली नहीं चल पाई है आज तक। क्या लोगों की संवेदना ‘स्वयं’ को बचाने के दायरे से बाहर जाकर ‘अन्यों’ को बचाने तक विस्तृत नहीं हो पा रही है? इन सवालों का जवाब अभावों और संकट में फँसे उन करोड़ों लोगों की आवाज़ है जो हमारे आसपास गूँज रही है लेकिन हम उन्हें सुन नहीं पा रहे हैं या सुनकर अनसुना कर रहे हैं। गाँधी ने ऐसी आवाज़ों को न केवल सुना बल्कि उनके साथ अपने दृढ़ संकल्प को जोड़कर उन्हें मज़बूती प्रदान की। 

स्वास्थ्य व्यवस्था गाँधी की प्रमुख चिंता

गाँधी महामारी से पहले ही स्वास्थ्य को लेकर बहुत संजीदा थे। वह आजीवन व्यक्तिगत रूप से और सामुदायिक रूप से स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरूक करते रहे हैं। दक्षिण अफ़्रीका में उन्होंने हिन्दुस्तानी मज़दूरों को पट्टा दिलाने के लिए जो केस लड़े उनसे मिलने वाली आधी रक़म को अस्पताल बनाने के काम में लगाने की बात कही। अंततः महामारी से निपटने के लिए उन्होंने एक कामचलाऊ अस्पताल खड़ा कर लिया था। यह अस्पताल उन्होंने समुदाय और सरकार के सहयोग से विकसित किया। दरअसल, उन्होंने अपील की तो म्युनिसिपैलिटी ने अस्पताल के लिए कुछ साधन उपलब्ध कराए। चारपाइयों की व्यवस्था गाँधी ने समुदाय के सहयोग से कर ली थी। 

गाँधी यह भी जानते थे कि यही म्युनिसिपैलिटी हिन्दुस्तानियों के साथ कितना भेदभाव कर रही है। इसकी वे लगातार आलोचना करते रहे लेकिन म्युनिसिपैलिटी द्वारा किए जा रहे प्रयासों की सराहना भी की। 

विचार से ख़ास

एक समय जब म्युनिसिपैलिटी को लगा कि इन बस्तियों से लोगों को कुछ दिन के लिए दूर ले जाना होगा। उस समय सारे लोगों के समाने सवाल आया कि वे अपने पास रखी जमा पूँजी का क्या करें? इससे पहले वे जमा पूँजी को घरों में गाड़कर रखते थे। अब म्युनिसिपैलिटी उन घरों में आग लगाने वाली थी ताकि चूहे मर जाएँ। हिन्दुस्तानी मज़दूरों ने अपने सबसे विश्वसनीय साथी को चुना और सारी पूँजी गाँधी को लाकर दे दी। गाँधी के सामने पैसों का ढेर लग गया। आप सोचिए, आज के नेता क्या करते? सच तो यह है कि आज के नेतृत्व को जनता अपनी पूँजी सौंपती ही नहीं। गाँधी ने बैंकों से बात की और धातु के मुद्रा को सैनेटाइज करके बैंकों में जमा कराया गया। इससे लोगों की आदत भी बदली और वे अपना पैसा बैंकों में रखने लगे। 

जब हिन्दुस्तानी मज़दूरों को उनकी बस्ती से दूर तम्बुओं में रखा गया तो गाँधी रोज़ साईकिल से उनके पास जाते थे। उनसे बातें करते थे और उनकी ज़रूरतों का ख्याल रखते थे क्योंकि गाँधी जानते थे कि एकांतवास ‘क्वरंटीन’ होने में इंसान कैसी मन:स्थिति में पहुँच जाता है।

वह जब इससे पहले दक्षिण अफ़्रीका आये थे तब बम्बई (अब मुंबई) में प्लेग फैला हुआ था। जहाज़ पर सारे यात्रियों की जाँच की गई और गाँधी को भी पाँच दिन के लिए ‘क्वरंटीन’ कर दिया गया। 

महामारी से मुक्ति के गाँधी के प्रयासों से भारत सहित पूरा विश्व बहुत कुछ सीखा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि डरी और सहमी हुई जनता कभी भाषणों और सलाहों से नहीं निडर हो पायेगी। उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर एक सामूहिक निडरता पैदा करनी होगी। सामुदायिक पहल और लोगों में जागरूकता से न केवल बीमारी से मुक्ति पाई जा सकती है बल्कि बेहतर स्वास्थ्य की पहल भी हो सकती है। एक नागरिक के रूप में गाँधी सिखाते हैं कि शासन पर लगातार निगरानी रखने और उसके प्रति आलोचनात्मक रवैया रखने की आवश्यकता है।

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संदीप मील

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