बँटवारा 1947 में लगा एक ऐसा ज़ख्म है जिससे आज भी रह-रह कर दर्द, ग़म, ग़ुस्सा और नफ़रत रिसते रहते हैं। बँटवारे की सांप्रदायिक सियासत ने सिर्फ़ दो मुल्कों के बीच दीवार खड़ी नहीं की, बल्कि दो कौमों के बीच सदियों के साथ के बावजूद मौजूद दरार को और भी गाढ़ा कर दिया है। हिंदू-मुसलमान, पाकिस्तान, बँटवारा, हिंदू राष्ट्र के शोर-शराबे और कटुतापूर्ण विमर्श को समझने के लिए दरअसल बार-बार एक लंबे धारावाहिक फ़्लैशबैक की तरफ़ जाने की ज़रूरत है।
शुरुआत गाँधी से ही करते हैं।
“सब मिलकर मुझको सुनाते हैं कि यहाँ मुसलमान ऐन मौक़े पर दगा़ देने वाले हैं। वे पाकिस्तान का साथ देने वाले हैं और वे पाकिस्तान के लिए हिंदुस्तान के सामने लड़ने वाले हैं। वे लिखते हैं कि 100 में से 98 मुसलमान दगा़बाज़ हैं। मुझको कहना पड़ेगा मैं यह नहीं मानता।”
अगर कोई इस टिप्पणी को बिना किसी पूर्व परिचय या प्रसंग को जाने बग़ैर पढ़े तो लगेगा जैसे यह आज की भारतीय राजनीतिक-सामाजिक स्थिति के बारे में कहा जा रहा है। लेकिन यह टिप्पणी आज से 73 साल पुरानी है। आज़ादी के बाद अक्टूबर के महीने में 5 तारीख़ को एक प्रार्थना सभा में महात्मा गाँधी ने हिंदू-मुसलमान तनाव के मद्देनज़र यह बात कही थी।
सांप्रदायिक कट्टरता किस तरह व्यक्ति के दिमाग़ में लगातार नफ़रत का ज़हर भरते हुए उसे अनिवार्यत: हिंसा की तरफ़ ले जाती है, इसके दो बहुत दिलचस्प उदाहरण हैं। मुहम्मद अली जिन्ना और नाथूराम गोडसे। पिछले सौ साल की भारतीय राजनीति में ये दोनों सांप्रदायिक राजनीति के प्रमुख खलनायक की तरह देखे जाते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि दोनों एक व्यक्ति को समान रूप से अपना दुश्मन मानते थे। वह व्यक्ति थे महात्मा गाँधी। दोनों गाँधी से बेइंतिहा चिढ़ते थे, नफ़रत करते थे। जिन्ना की नफ़रत ने भारत का बँटवारा करवा कर पाकिस्तान बनवा दिया। गोडसे की नफ़रत ने उसे गाँधी का हत्यारा बना दिया। जिन्ना ने मुसलमानों की रहनुमाई की सियासत करते हुए गाँधी पर हिंदू परस्ती का आरोप लगाया और अंततः बँटवारा करा दिया जबकि गोडसे ने बँटवारे के बाद गाँधी पर मुसलमानों के प्रति पक्षपात का आरोप लगाते हुए क्रोध में उनकी हत्या कर दी।
महात्मा गाँधी ख़ुद को एलानिया सनातनी हिंदू कहते थे, सर्व धर्म समभाव के हिमायती थे। ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ उनका प्रिय भजन था। विडम्बना देखिये कि न वो गोडसे जैसे कट्टरपंथी हिंदुओं के प्यारे रह सके और न ही जिन्ना जैसे मौक़ापरस्त और महत्वाकांक्षी मुसलमानों के जिन्होंने मज़हब को समाज बाँटने की सियासत के लिए इस्तेमाल किया।
गाँधी हिंदू परस्त: जिन्ना
जिन्ना ने 26 दिसम्बर 1938 को अपने एक भाषण में गाँधी पर आरोप लगाया था कि वह भारत में हिंदू राज स्थापित करना चाहते हैं।
जिन्ना ने कहा था- “कांग्रेस के पीछे किसका दिमाग़ काम कर रहा है? मिस्टर गाँधी का। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि यह मिस्टर गाँधी ही हैं जिन्होंने उन आदर्शों को नष्ट कर दिया है जिनके आधार पर कांग्रेस की शुरुआत हुई थी। इसी एक व्यक्ति के ऊपर कांग्रेस को हिंदूवाद के पुनरूत्थान का औज़ार बनाने की ज़िम्मेदारी जाती है। उनका लक्ष्य हिंदू धर्म का पुनरूत्थान करके इस देश में हिंदू राज स्थापित करना है और अपने इसी मक़सद के लिए वह कांग्रेस का इस्तेमाल कर रहे हैं। ...आज हिंदू मानसिकता और हिंदू नज़रिया बड़ी सावधानी से पाला-पोसा जा रहा है। नई शर्तें मानने और कांग्रेस नेताओं के आदर्शों पर चलने के लिए मुसलमान मजबूर किये जा रहे हैं।”
यह देखना बहुत दिलचस्प है कि जिन्ना के 1938 के इस भाषण के कंट्रास्ट में नाथूराम गोडसे ने 1948 में गाँधी की हत्या के बाद अदालत के समक्ष अपनी अपील में उनको 'पाकिस्तान का पिता' बताया था।
गाँधी पाकिस्तान के पिता: गोडसे
गोडसे ने कहा था- “गाँधी को देश का पिता कहा जाता है। यदि ऐसा है तो वह पैतृक कर्तव्य से विमुख रहे क्योंकि उन्होंने विभाजन को स्वीकृति देकर विश्वासघाती तरीक़े से देश के साथ व्यवहार किया। मैं बलपूर्वक कह सकता हूँ कि गाँधी ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया। वह पाकिस्तान के पिता साबित हुए।”
गोडसे ने गाँधी की हत्या को सही ठहराते हुए कहा था- “मैं कहना चाहता हूँ कि मेरी गोलियाँ ऐसे पुरुष पर चलीं जिसकी नीति और गतिविधियों के कारण करोड़ों हिंदुओं की हानि व सर्वनाश हुआ। ऐसे क्रोध दिलानेवाले व्यक्ति को सज़ा दिलाने के लिए कोई क़ानूनी ढाँचा नहीं था, इसलिये मुझको उन घातक गोलियों को चलाना पड़ा।”
गोडसे ने कहा था-
“मेरे अंदर व्यक्तिगत रूप से किसी के विरुद्ध कोई दुर्भावना नहीं है लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि मेरे अंदर इस सरकार के प्रति कोई सम्मान नहीं था जो मुसलमानों के प्रति पक्षपात करने की नीति अपना रही है। साथ ही मैं स्पष्ट देख रहा था कि ऐसा पूरी तरह से गाँधी की उपस्थिति के कारण था। मुझको बहुत दुख के साथ कहना पड़ता है कि प्रधानमंत्री नेहरू भूल जाते हैं कि उनके उपदेश व काम एक-दूसरे के विरुद्ध हैं, जब वह यदा-कदा कहते रहते हैं कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, क्योंकि यह ध्यान देने की बात है कि उन्होंने पाकिस्तान जैसे धर्म आधारित राज्य को बनवाने में बहुत अहम भूमिका निभाई। उनका यह काम गाँधी की लगातार मुसलमानों के तुष्टीकरण की नीति से आसान हो गया था।”
यह जानना रोचक होगा कि महात्मा गाँधी के बेटे रामदास गाँधी नाथूराम गोडसे को फाँसी दिये जाने के पक्ष में नहीं थे। रामदास गाँधी और गोडसे के बीच चिट्ठियों का आदान-प्रदान भी हुआ था।
महात्मा गाँधी के बेटे रामदास गाँधी ने सी राजगोपालाचारी को चिट्ठी लिखकर कहा था कि अगर गोडसे को फाँसी दे दी जाती है तो महात्मा गाँधी जहाँ भी होंगे, उन्हें दुख पहुँचेगा।
1 मई, 1949 को राजगोपालाचारी को एक पत्र में रामदास गाँधी ने लिखा- “मुझे नहीं मालूम कि पंडितजी, वल्लभभाई और आपने गोडसे के बारे में क्या निश्चय किया है। मुझे विश्वास और आशा है कि आप उन लोगों में नहीं हैं जो उसको फाँसी पर लटका देना चाहते हैं। मैं उसको एक शहीद बना देने में कोई तर्क नहीं देखता। आप मुझसे बेहतर जानते हैं कि कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश हिंदू, चाहे वे भारत में हों या बाहर, भारत/पाकिस्तान के मुसलमानों के प्रति आरएसएस की मानसिकता के ही हैं। इसलिए यह प्रश्न केवल एक गोडसे, जिसने बापू की हत्या की, से निबटने का नहीं है, किंतु लाखों गोडसों का है।”
‘गोडसे को वनवास भेजो’
उन्होंने लिखा, “इसलिए मैं चाहूँगा कि गोडसे और यदि आवश्यक हो तो उसके साथियों को, एक ऐसे वनवास में भेज दिया जाए जहाँ वे स्वयं मंथन करें व पता लगायें कि क्या उन्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो सकी? वे यह भी सुनिश्चित कर सकें कि अंततोगत्वा कभी भी, हिंदुत्व अथवा भारत, आरएसएस के तरीक़े से सुरक्षित नहीं रह सकेगा। यदि ऐसा कोई वनवास भारत के बाहर नहीं है तो उसको भारत के अंदर ही, अधिकतम योग्य पुरुष के संरक्षण में बना दिया जाए और गोडसे व उसके साथियों को वहाँ रख दिया जाए। इसके विपरीत यदि गोडसे को फाँसी दे दी जाती है तो बापू, जैसा कि आप उन्हें जानते हैं, वे जहाँ भी हैं, अत्यंत दुखी होंगे। यही दशा बापू के जाने व अनजाने सहयोगियों की भी होगी जिन्होंने लगातार अपने विनम्र प्रयासों द्वारा वैसा ही जीवन व्यतीत किया जैसा कि बापू की भावना और इच्छा थी, चाहे उस प्रयास में प्राण भी दे देना आवश्यक था।”
रामदास आगे लिखते हैं, “निस्संदेह आप इस बात को पंडितजी तथा वल्लभभाई के सम्मुख रखेंगे ताकि वे उस पर विचार कर सकें। कृपया आप मुझे उनके तथा अपने विचारों से अवगत करायें और यह भी बताएँ कि आप तीनों ने क्या निर्णय लिया है?”
संकट में नेहरू कैसे फँसे?
रामदास गाँधी की चिट्ठी के जवाब में नेहरू, पटेल और राजगोपालाचारी तीनों ने उन्हें गोडसे से मिलने के लिए मना किया। राजगोपालाचारी और पटेल ने साफ़ कहा कि रामदास गाँधी इस मामले में किसी तरह का दख़ल देने के बजाय इसे सरकार पर छोड़ दें। अलबत्ता, नेहरू ने रामदास गाँधी को लिखी जवाबी चिट्ठी में यह ज़रूर स्वीकार किया कि उन्होंने (रामदास गाँधी ने) उन्हें (नेहरू को) संकट में डाल दिया है।
महात्मा गाँधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे 1930 में आरएसएस का सदस्य बना। संघ के विस्तार के लिए हेडगेवार के साथ दौरे भी किये लेकिन जब हेडगेवार ने संघ की राजनीतिक गतिविधियों से इनकार किया तो 1934 में आरएसएस को छोड़कर हिंदू महासभा से जुड़ गया। हिंदू महासभा ने 1944 में गाँधी और जिन्ना की मुलाक़ात का विरोध किया और गाँधी को जिन्ना से मिलने जाने से रोकने के लिए उनकी कुटिया के बाहर धरना दिया, गोडसे उसमें शामिल था। महात्मा गाँधी के सचिव प्यारेलाल ने तेज़ बहादुर सप्रू को लिखी एक चिट्ठी में इस घटना का ब्योरा देते हुए गोडसे को उस टोली का सदस्य बताया था।
गोडसे क्यों चुना गया?
प्यारेलाल ने पत्र में लिखा- “बापू के रवाना होने से ठीक पहले ज़िला पुलिस-सुपरिंटेंडेंट आए और बोले कि धरना देने वालों को हर तरह से समझाने-बुझाने का जब कोई फल न निकला तो पूरी चेतावनी देने के बाद मैंने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया है। ...धरना देने वालों का नेता बहुत ही उत्तेजित स्वभाव वाला, अविवेकी और अस्थिर मन का आदमी मालूम होता था, इससे कुछ चिंता होती थी। गिरफ़्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक छुरा निकला। जब उसे गिरफ़्तार करने वाले पुलिस अफ़सर ने मज़ाक़ में उससे यह कहा, ‘कम से कम तुम्हें शहीद बनने का संतोष तो मिल ही गया’, तो तुरंत उत्तर मिला, ‘नहीं, वह तो तब मिलेगा जब कोई गाँधी की हत्या करेगा।’ पुलिस अफ़सर ने फिर मज़ाक़ में कहा: ‘नेताओं को क्यों नहीं आपस में निपट लेने देते? उदाहरण के लिए, सावरकर (हिंदू महासभा के नेता) आकर यह काम कर लें।’ इसका जवाब यह था: ' गाँधीजी के लिए यह आवश्यकता से अधिक सम्मान की बात होगी। इस काम के लिए तो जमादार ही काफ़ी है।’ जिस व्यक्ति का जमादार के रूप में उल्लेख किया गया था, वह उसका साथी पिकेटर नाथूराम विनायक गोडसे था। साढ़े तीन वर्ष बाद यह करुण भविष्यवाणी चरितार्थ हुई…”
रिचर्ड एटेनबरो की फ़िल्म 'गाँधी' के एक दृश्य में यह घटना दिखाई गयी है। यह प्रसंग गाँधी जी की हत्या के पीछे की कहानी और हत्यारों की सोच की तह तक जाने के लिहाज से काफ़ी महत्वपूर्ण है। साफ़ है कि महात्मा गाँधी की हत्या किसी क्षणिक आवेश, उत्तेजना या उन्माद में नहीं की गयी थी, न ही वह कुछ दिनों और महीनों की तैयारी का नतीजा थी। यह कई सालों से चल रहा था।
प्रार्थना के लिए जा रहे 79 साल के एक कृशकाय बूढ़े को अपनी नफ़रत का निशाना बनाने वाली सोच किस तरह के धर्म या राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है या कर सकती है, आज हिंदुस्तान के लोगों को यह गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है।
अपनी राय बतायें