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पुण्यतिथि: यदि आज गांधी जी जिंदा होते तो...

वर्ष-2021 की महात्मा गांधी पुण्य तिथि ऐसे मौके पर आई है, जब खुद को लोक प्रतिनिधि सभा कहने वाली संसद में खेती से जुड़े ऐसे तीन प्रस्तावों को बिना बहस के क़ानून बना दिया गया है, जिन्हें खुद खेतिहर अपने खिलाफ बता रहे हैं। वे क़ानूनों को रद्द कराने की जिद्द पर अडे़ हैं। कृषि मंत्री कह रहे हैं कि वह इन्हे डेढ़ वर्ष के लिए टालने से ज्यादा और कुछ नहीं कर सकते; गोया कृषि मंत्री दाता हों और किसान भिक्षुक। 

प्रधानमंत्री जी भी नीरो की तरह क़ानूनों को खेतिहरों का हितैषी बताने की बंसी बजा रहे हैं। टालमटोल भरी कई वार्ताओं में धीरजपूर्वक शामिल किसान आंदोलन के बीच 26 जनवरी को घटी निंदनीय हिंसा ने सरकार को मौका दे दिया है।

आंदोलनकारी किसानों के शिविरों के इर्द-गिर्द अर्धसैनिक बलों की टुकड़ियां बंदूक ताने उनकी बाड़बंदी कर रही हैं। 

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कहना न होगा कि जिस आंदोलन को एक लोकतांत्रिक चेतना मान हमें स्वागत करना चाहिए, सरकार उसे अपनी हार-जीत के आइने में देख रही है। वह आंदोलन को हिंसा की बाजू में लपेटकर समाप्त कराने के रंग में रंगी नज़र आ रही है। ऐसे रंग की न तो आभा अच्छी है और न संदेश। 

आज गांधी जी जिंदा होते, तो सबसे पहले ऐसी सरकारों की शुचिता तथा राष्ट्र में शांति, सद्भाव व समता सुनिश्चित करने में जुट जाते। जानबूझकर भूलों को बताते कि इस जगत के लिए किसान की महत्ता क्या है? उनके प्रति लोकतंत्र में तंत्र और लोक की भूमिका क्या है?

चेतना को न नकारें हम

भारत, आज सचमुच एक परिवर्तनकारी मोड़ पर खड़ा है। जहां एक ओर चुनौतियां हैं, वहीं दूसरी ओर आशायें। वक्त के वैचारिक झोंके प्रमाण हैं कि इस दुर्लभ मोड़ पर खड़े भारतवासी जहां एक ओर करवट लेने का एहसास करा रहे हैं; राष्ट्र बेताब दिख रहा है, बेहतरी और बदलाव के लिए; दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोग इस वक्त को कभी अहिंसक गांधी की हत्या करने वाले हिंसक नाथूराम गोडसे को राष्ट्रवादी बताकर, तो कभी मदर टेरेसा पर आक्षेप लगाकर, कभी शांतिपूर्ण सत्याग्रहों पर हिंसा का ठप्पा लगाकर और कभी गांधी को गाली देने में गंवाने में लगे हैं। 

भारत में गहरे पैठते सांप्रदायिक विभेदों तथा पश्चिम बंगाल के चुनाववीरों पर गौर करें। उकसावे के प्रकरणों को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि भारत, 21 वीं सदी में है।

ये ऐसे कृत्य हैं, जिनसे भारत के सबसे कमजोर इंसान की जिंदगी में सुधार में कोई सहयोग नहीं हो सकता। हम कह सकते हैं कि भारत की सरकार, राजनीति और 26 जनवरी की हिंसा को अंजाम देने वाले...तीनों ने गांधी से कुछ नहीं सीखा। एक ओर संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था गांधी के कहे को हासिल करने के लिए उनकी जन्म तिथि को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में मनाने का निवेदन कर रही है, वहीं गांधी का अपना देश, गांधी की वैचारिक चेतना को गंवाने में लगा है। क्या हम खुश हों? 

mahatma gandhi death anniversary - Satya Hindi

गांधी का सपना

संभवतः भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान हालात का अंदाज़ा लगाकर ही गांधी ने कभी ऐलान किया था कि आज़ादी नीचे से शुरु होनी चाहिए। उन्होंने यंग इंडिया में लिखा था - ''मेरे सपनों का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा।'' चंपारन में जबरन कराई जा रही नील की खेती और खेड़ा में कुनाबी-पाटीदार किसानों पर लादे लगान के विरुद्ध लड़ी लड़ाई इसका प्रमाण है। किसानों के वर्तमान आंदोलन को नकारकर, क्या स्वयं को राष्ट्रवादी कहने वाले दल की अगुवाई में बनी वर्तमान सरकार, किसानों के प्रति उस आस्था को नकार नहीं रही, जो सिर्फ महात्मा गांधी की नहीं, भारतीय संस्कृति की भी मौलिक आस्था है? 

मेरे ख्याल से गांधी के गांव, ग़रीब, मेहनतकश, किसान, सूत और तकली को नकारना, तो अंतिम जन की उस पूरी चेतना को ही नकार देना है, कभी चरखा, जिसके उत्थान का औजार बनकर सबसे आगे दिखा।

स्वदेशी के हिमायती थे गांधी 

गांधी जी शुद्ध स्वदेशी को परमार्थ की पराकाष्ठा मानते हुए एक ऐसी भावना के रूप में व्यक्त करते थे, जो हमें दूर को छोड़कर अपने सीमावर्ती परिवेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। गांधी जी कहते थे कि भारत की जनता की अधिकांश ग़रीबी का कारण यह है कि आर्थिक और औद्योगिक जीवन में हमने स्वदेशी के नियम को भंग किया। 

किसानी से जुड़े तीन नए क़ानूनों को ग्राम-स्वराज के तराजू पर रखकर तोलकर देखें तो जवाब मिल जाएगा कि क्या यह आज फिर एक नीतिगत ग़लती नहीं है?

विकास और विनाश के बीच इस नीतिगत विवाद का, अमीर-ग़रीब तथा सत्ता-प्रजा के रूप में विवाद में तब्दील हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण भी है और चुनौतीपूर्ण भी। रास्ता दिखाता विचार, आज फिर वही गांधी ही है।

अहिंसा, सत्याग्रह और शांति 

हांलाकि पूंजी की गुलामी की ललक में हम सभी बहुत कुछ खो चुके हैं; बावजूद इसके यदि हम गांधी के सूत, तकली से लेकर उनके विचार और उनके तमाम रचनात्मक कार्यक्रमों पर गौर करें, तो पायेंगे कि अपने हाथ के काते को बुनने और पहनने का मूल विचार, कुटीर उद्योग, स्वच्छता, ग्रामोत्थान, बुनियादी शिक्षा, ग्राम स्वराज, स्वदेशी, स्वावलंबी जीवन, हिंद स्वराज की अवधारणा, नमक सत्याग्रह, बापू के रचनात्मक कार्यक्रम, ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम का सद्भाव संदेश, बापू के सपने का भारत, गांधी जी का ताबीज, सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह और शांति के बल पर दुनिया की सुरक्षा तथा अस्पृश्यता के विरुद्ध हरिजन सेवा के गांधी आह्वान से लेकर निर्णय प्रक्रिया के विकेन्द्रीकरण और लोक को सत्ता के केन्द्र में आने के विचार और व्यवहार का गांधी दर्शन, अंतिम जन के हित का ही दर्शन शास्त्र था। 

किसान आंदोलन पर देखिए वीडियो- 

गांधी कहते थे कि जिसके पास धन है, वह धन-जन है। जिसके पर धन नहीं; जो अकिंचन है। उसका ईश्वर है। वह ईश्वर का जन है; हरिजन है। कौन नहीं जानता कि गांधी ने आजादी के लिए संघर्ष करते-करते हरिजनों के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक अधिकार के लिए भी सतत संघर्ष किया। 

शांति और भाई चारे का सपना

अपने सपनों के भारत का सपना संजोते वक्त गांधी लिखते हैं - ''मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करुंगा, जिसमें ग़रीब से ग़रीब आदमी भी यह महसूस कर सके कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसका महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करुंगा, जिसमें ऊंच और नीच का कोई भेद न हो और सब जातियां मिल-जुल कर रहती हों। ऐसे भारत में अस्पृश्यता व शराब तथा नशीली चीजों के अनिष्टों के लिए कोई स्थान नहीं होगा। उसमें स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार होंगे। सारी दुनिया से हमारा सम्बन्ध शांति और भाई चारे का होगा।'' क्या गांधी का यह सपना गुरेज करने लायक है?

गौर करें कि यह सपना, एक ऐसे गांधी का है, जो अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान ही यह बात एक सिद्धांत की तरह स्थापित कर चुका था कि शांतिपूर्ण तरीके से सत्य का आग्रह कर भी न्याय हासिल किया जा सकता है। उस गांधी ने अहिंसा को सबसे भरोसेमंद सुरक्षा के व्यावहारिक और अचूक अस्त्र के रूप में पा लिया था। 

वह एक ऐसा गांधी भी था, जो निजी स्तर पर हुए अन्याय का इस्तेमाल, सर्वजन को न्याय दिलाने में करना जानता था; जिसने भारत आने पर सबसे पहले उस हिंदुस्तान को जानने की कोशिश की, जिसे जानना तो दूर, आज के अधिकांश राजनेता पहचााने से भी इनकार कर देते हैं।

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सत्ता नहीं, चरित्र साधें

''मेरी समझ में राजनीतिक सत्ता अपने आप में साध्य नहीं है। वह जीवन के प्रत्येक विभाग में लोगों के लिए अपनी हालत सुधारने का साधन है।...राष्ट्रीय प्रतिनिधि यदि आत्मनियमन कर लें, तो फिर किसी प्रतिनिधित्व की आवश्यकता नहीं रह जाती।''

 

जब गांधी यह कहते हैं या थोरो के उस कथन का उल्लेख करते हैं, जिसमें कहा गया कि जो सबसे कम शासन करे, वही सबसे उत्तम सरकार है, तो क्या आपको जातिवादी राजनीति, बढ़ती मसल पावर.. मनी पावर जैसी सबसे चिंतित करने वाली चुनौतियों को उत्तर देने की ताकत स्पष्ट दिखाई नहीं देती? 

mahatma gandhi death anniversary - Satya Hindi

यहां सबसे कम का तात्पर्य सबसे कम समय न होकर, सरकार में जनता को शासित करने की मंशा का सबसे न्यून होना है। उत्तम सरकार के इस मापदण्ड के सामने होने के बावजूद यदि राजनैतिक दल सिर्फ सत्ता साधने में लगे हैं। हम मतदाता भी तो सत्ता में दलों के उलट-पलट के आगे नहीं बढ़ रहे। मौलिक अधिकारों को हासिल करने की भूख हम सभी को है। मौलिक कर्तव्यों के निर्वाह की गारंटी देने को हम सब कब तैयार होंगे? भारत के संविधान को अभी भी इंतज़ार है। 

हमें समस्या का समाधान व्यवस्था या राजनीति में नहीं, पंचायतों तथा मोहल्ला समितियों के रूप में गठित बुनियादी लोक इकाई से लेकर हमारे निजी चरित्र में आई गिरावट में खोजने की जरूरत है। चरित्र निर्माण... गांधी मार्ग का भी मूलाधार है और विवेकानंद द्वारा युवाशक्ति के आहृान का भी। 

गांधी दर्शन 

लोकतंत्र से बेहतर कोई तंत्र नहीं होता। सदाचारी होने पर यही नेता, अफसर और जनता... यही व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ में तब्दील हो जायेंगे। माता-पिता और शिक्षक.. मूलतः इन तीन पर चरित्र निर्माण का दायित्व है। हे राम !! बापू ने मृत्यु पूर्व यही कहा था। बेहतर हो कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और उनकी कृपा को मूर्ति में ढूंढने वाले, उन्हें चरित्र निर्माण की दायित्व पूर्ति में ढूंढें। यह गांधी दर्शन भी है और भारत का सदियों के अनुभवों पर जांचा-परखा राष्ट्र दर्शन भी। 

पुण्य तिथि एक अवसर है कि हम भूलें नहीं कि इस दुनिया में महान विचारक और भी बहुत हुए, किंतु महात्मा गांधी भिन्न इसीलिए थे कि उन्होंने दूसरे से जो कुछ भी अपेक्षा की, उसे पहले अपने जीवन में लागू किया। ऐसा हम भी करें।

हम चिंतन करें कि क्या गांधी के बुनियादी चिंतन को व्यवहार में उतारने मात्र से हिंसा, बलात्कार, बेरोज़गारी, विभेद व राजनैतिक गिरावट से लेकर नव-साम्राज्यवाद के पुराने चक्रव्यूह में फंस चुके भारत की आर्थिक आजादी तक स्वयंमेव सुरक्षित और सुनिश्चित हो नहीं जायेगी।

काश! इस मौके पर हम समझ पाएं कि राष्ट्रपिता का दर्जा हासिल गांधी ने किसानों को जगतपिता क्यों कहा ?...रे खेङूत तू खरे जगतनो तात गणायो। केन्द्र की संसद न सुने तो गांवों की संसदें सुनें। भारत की साढे़ 25 लाख ग्रामसभाओं में हो विवादित कृषि क़ानूनों पर फैसला। यह गांधी मार्ग भी है और लोकराग भी। क्या हम करेंगे?

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अरुण तिवारी

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