मोदी सरकार के पहले सौ दिन सिर्फ़ सरकार के कार्यों और नीतियों का वर्णन नहीं है। मौजूदा सरकार का स्वरूप क्या है? जब हम सौ दिनों का आकलन करते हैं तो दो राजनीतिक प्रवृत्तियाँ साफ़ तौर पर परिलक्षित होती हैं। एक, बुरी आर्थिक स्थिति के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी बेहद लोकप्रिय हैं। उनके कट्टर समर्थक भी इस बात से इत्तिफ़ाक़ रखते हैं कि वह एक ऐसे शख़्स के तौर पर उभरे हैं जिनको नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है। एक, ऐसी शख़्सियत जिन्होंने हमारे मानस को इस हद तक वशीभूत कर रखा है कि आलोचना भी उनके महत्व और उनकी कारगर पकड़ को ही रेखांकित करती है। उनकी विजय इसमें नहीं है कि वह क्या करते हैं बल्कि हम जो कुछ भी करते हैं वह उसके केंद्र में रहते हैं।
दो, लोकतंत्र पर सत्ता की अधिनायकवादी पकड़ अबाधित रूप से गतिमान है। लगभग सारे स्वतंत्र संस्थानों को कमज़ोर कर दिया गया है। अधिनायकवादी वर्चस्व के तमाम लक्षण और मज़बूत हुये हैं। सत्ता एक राष्ट्रीय कार्य को परिभाषित करती है और सभी को उसकी धुन पर मार्च करना होता है, आबादी को सभी सामाजिक और आर्थिक अंतरद्वंद्वों को दरकिनार कर राष्ट्रीय चेतना के स्थाई भाव में रहना होता है, विचार प्रवाह पर नियंत्रण को इस ध्येय की तरफ़ बढ़ाया जाता है जिसको लासेक कोलाकोवस्की ने एक दूसरे संदर्भ में समाज की मानसिक और नैतिक निर्वीर्यता यानी कमज़ोरी की संज्ञा दी है।
यहाँ तक कि बहुसंख्यकवाद को भी खुलेआम सही ठहराया जाता है। अगर आप यह सोचते हैं कि बहुसंख्यवाद का ख़ौफ़ महज़ एक कल्पना है तो आप स्वप्न दासगुप्ता को सुनें जो बीजेपी के आलोचक नहीं माने जाते हैं। उन्होंने ‘द टेलीग्राफ़’ में लिखा, ‘मुसलिम समाज में ख़ौफ़ की बात निःसंदेह अतिश्योक्ति से भरपूर है और जो पहले से कही गयी बात कि मोदी सरकार अपने स्वभाव में फ़ासीवादी है, को और पुष्ट करने का प्रयास है। फिर भी दो तथ्य उभर कर सामने आते हैं। एक, यह ख़ौफ़ भले ही कितना ही सही न हो पर इसको नकारा नहीं जा सकता है। दो, सत्ता संस्थान में मुसलिमों की उपस्थिति पहले से कमज़ोर हुई है। यह जो दूसरा मुद्दा है उसको समझने की ज़रूरत है।’
स्वप्न यह बताने के बाद कि मुसलिम तबक़ा मोदी की बातों को समझने की कोशिश नहीं कर रहा और बीजेपी भी उन तक पहुँचने की पूरी कोशिश नहीं कर रही है, इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। ‘हिंदू-मुसलिम भले ही सड़कों पर एक दूसरे से नहीं भिड़ रहे हैं पर वे एक-दूसरे से बात भी नहीं कर रहे हैं। यह स्वस्थ स्थिति नहीं है। यह एक ‘वृहत्तर घेटोआइज़ेशन’ की दिशा में बढ़ सकता है।’ जब स्वप्न दासगुप्ता इस बात से चिंतित हो रहे हैं कि सत्ता घेटोआइज़ेशन की ओर ले जा रही है तब हम सब को भविष्य के बारे में चिंतित होना चाहिए।
ये सौ दिन कुछ प्रमुख घटनाओं, जिसमें कुछ अच्छे या बुरे हैं, का संकलन मात्र नहीं हैं। ये सौ दिन इस बात का द्योतक हैं कि मोदी जी अपनी ऊर्जा, इच्छाशक्ति, अक्खड़ता से पूरे राजनीतिक विमर्श को डॉमिनेट करते हैं। यह सत्ता के और घनीभूत होने को दर्शाता है। जब सत्ता का मक़सद ताक़त, राष्ट्रीय तेवर और सामाजिक नियंत्रण का प्रदर्शन हो तब ‘दुस्साहसिक’ क़दम उठाये जायेंगे। इस संदर्भ में कश्मीर में अभूतपूर्व पहल सत्ता के इन तीनों लक्षणों की नुमाइश है; ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि यह क़दम अभीष्ट समस्या का समाधान है। इस संदर्भ में ऐसी सत्ता पूरे राज्य को बंद करने, संवैधानिक संघवाद को ख़त्म करने, नागरिक अधिकारों को निरस्त करने, कश्मीर से ख़बर देने के बारे में लोगों के मन में भय का वातावरण पैदा करने, और युद्ध और संघर्ष के बढ़ते ख़तरे को एक विजय की तरह पेश किया जाता है।
कश्मीर मुद्दा
लेकिन कश्मीर और गिरती अर्थव्यवस्था को संभालने में असफलता, दोनों एक ही धागे से जुड़ते हैं। जो एक ख़ास तरह की सत्ता की विशेषता की ओर इशारा करते हैं। यह एक धागा है। अर्थव्यवस्था के संदर्भ में तीन चीज़ें अहम हैं। सारी सरकारों को एक सपाट चेहरा सामने रखना होता है। आज की तारीख़ में यह याद करना मुश्किल है कि पहले कब सरकार ने अर्थव्यवस्था की बुरी हालत की सचाई को मानने से इंकार किया था; या फिर सार्वजनिक और प्रोफ़ेशनल विमर्श में सरकार की तरफ़दारी इतनी ज़्यादा हुई हो। ऐसे में कश्मीर पर सच जीत के धुँध में छिपा हुआ है। इसी तरह से अर्थव्यवस्था से निपटने की कोशिशों में भी यही लक्षण दिखायी देते हैं: ताक़त, नैतिकतावाद और नियंत्रण। नोटबंदी जिसने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी वह भी विशुद्ध और सामान्य तौर इस बात का मुज़ाहिरा था जिसका कोई भी आर्थिक लक्ष्य नहीं था।
सरकार ने इस धारणा के आधार पर काम किया कि भारत का असली रोग भ्रष्टाचार है, नैतिकता की घुट्टी और सरकार का एकतरफ़ा दमन ही इसका एकमात्र इलाज है।
ग़लत जगहों पर काला धन खोजने का नाटक सरकार की हर समस्या का हल खोजने के तौर तरीक़े की बानगी है, फिर यह समस्या चाहे टैक्स से जुड़ी हो या फिर रेगुलेशन से। इस रवैये की वजह से ही कमज़ोर सिस्टम की ऐसी-तैसी हो रही है।
यह रवैया सरकार को वह एक चीज़ देने में पूरी तरह से कारगर है जो वह हर चीज़ से ज़्यादा चाहती है, वह है : नियंत्रण। लिहाज़ा भारतीय पूँजी पूरी तरह से नतमस्तक हो गयी है। हालाँकि सरकार के कुछ क़दमों की तारीफ़ होनी चाहिए। लेकिन सचाई यह है कि अर्थव्यवस्था के रोग का पता लगाने का सरकार के पास कोई कारगर तरीक़ा नहीं है, और इस बात का कोई अंदाज़ा भी नहीं है कि आख़िर में हासिल क्या करना है। और जब ताक़त के इस्तेमाल को नैतिक जामा पहना दिया जाता है तो फिर सब कुछ माफ़ है।
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मुश्किलें
अर्थव्यवस्था के मसले पर सरकार को आख़िर में सचाई का सामना करना पड़ रहा है। वह इसका हल खोजेगी लेकिन अभी तक ऐसा कोई फ़ॉर्मूला सरकार नहीं बता पायी है। विजवभाव का यह विमर्श इस मसले पर फ़िलहाल अभी सुस्त पड़ा है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि सत्ता आने वाले दिनों में लगातार संस्थाओं और सांस्कृतिक मोर्चों पर अपने को प्रतिस्थापित करती रहेगी। पूरे देश में एनआरसी, अयोध्या में मंदिर निर्माण, राष्ट्रव्यापी धर्म परिवर्तन विरोधी क़ानून ताक़त, राष्ट्रवाद और नियंत्रण के नये सबूत होंगे। तीन तलाक़ जैसे मामलों को उदारवाद का जामा पहनाया जाएगा लेकिन अधिनायकवादी स्वरूप उसका अंतिम लक्ष्य होगा। पहले सौ दिन का सबसे बड़ा लक्षण है सत्ता का घनीभूत होना जिसका एकमात्र लक्ष्य है पूर्ण नियंत्रण। अपनी तमाम राजनैतिक प्रतिभाओं के बावजूद अमित शाह और योगी आदित्यनाथ बीजेपी के भविष्य के नैतिक मूल्य हैं।
भ्रम की राजनीति
यह सत्ता जो सवाल खड़ा करती है वह यह है। कुप्रचार और ग़लत सूचना की वजह से भारत के सामने एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है जो उसे संभावित महानता से दूर करेगा? ऐसे में हम कब तक भ्रम की राजनीति में फँसे रहेंगे? या फिर ये सौ दिन हमारे अपने बारे में एक काले सच की ओर इशारा करता है? क्या यह ताक़त का महिमामंडन, नियंत्रण और राष्ट्रवाद हमारी अपनी आंतरिक इच्छा का परिपूर्ण होना है? हम किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं। दरअसल हम ऐसा ही होना चाहते हैं। इस तर्क से मोदी की लोकप्रियता इसलिये नहीं है कि वह हमसे भ्रम का सौदा करते हैं; ऐसा इसलिये है कि वह हमारे बारे में सच का सौदा करते हैं। इन सौ दिनों से आप कितने चिंतित हैं वह इस बात से तय होगा कि आप इस विमर्श के किस तरफ़ हैं।
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