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किसानों के आंदोलन से ऐसे निपटना चाहती है मोदी सरकार?

सरकार की रणनीति ये दिख रही है कि एक तो किसान आंदोलन को बदनाम करने का अभियान चलाकर उसे कमज़ोर किया जाए। वह उसे खालिस्तान प्रायोजित या राजनीति प्रेरित घोषित करके उसकी लोकप्रियता और प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रही है ताकि आगे चलकर ताक़त का इस्तेमाल करके उससे निपट सके। इसी रणनीति के तहत वह इसे पंजाब के किसानों का आंदोलन बता रही है। 
मुकेश कुमार

दिल्ली की सीमा पर इकट्ठे हो रहे आंदोलनरत किसानों ने केंद्र सरकार की ओर से मिले बातचीत के न्यौते को ठुकरा दिया है। गृह मंत्री अमित शाह की ओर से भेजे गए प्रस्ताव में किसानों को बुराड़ी में तय किए स्थान पर प्रदर्शन करने की शर्त नत्थी थी, जो किसानों को स्वीकार नहीं थी। किसानों का कहना है कि बातचीत बिना शर्त होनी चाहिए और जो तीन क़ानून सरकार ने बनाए हैं, उनको ख़त्म करना भी वार्ता के एजेंडे में होना चाहिए।

केंद्र सरकार के रवैये से नहीं लगता कि वह खुले मन से बातचीत करना चाहती है। वह अभी भी किसानों पर तीनों क़ानून थोपने पर अड़ी हुई है। अगर ऐसा न होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ कार्यक्रम में इन क़ानूनों की तारीफ़ करने में वक़्त ज़ाया न करते। उन्होंने इस कार्यक्रम के ज़रिए संदेश दे दिया है कि वे पीछे नहीं हटेंगे। 

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सरकार का सख़्त रूख़

दूसरे केंद्रीय मंत्रियों ने भी कहीं से ये संकेत नहीं दिया है कि सरकार इन क़ानूनों को वापस लेने या अपेक्षित बदलाव करने के मामले में लचीला रुख़ अपनाने के लिए तैयार है। ऐसा लगता है कि सरकार अभी भी आंदोलन की ताक़त का अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रही है और उसे उम्मीद है कि किसानों को वापस जाने के लिए विवश किया जा सकता है। 

Modi government and kisan andolan in delhi - Satya Hindi

खालिस्तानी बताने में जुटी 

सरकार की रणनीति ये दिख रही है कि एक तो किसान आंदोलन को बदनाम करने का अभियान चलाकर उसे कमज़ोर किया जाए। वह उसे खालिस्तान प्रायोजित या राजनीति प्रेरित घोषित करके उसकी लोकप्रियता और प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रही है ताकि आगे चलकर ताक़त का इस्तेमाल करके उससे निपट सके। इसी रणनीति के तहत वह इसे पंजाब के किसानों का आंदोलन बता रही है। 

बीजेपी के नेताओं के बयानों और मीडिया पर चल रहे अभियानों से ये बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है। कई न्यूज़ चैनलों ने इसे अपना एजेंडा बना लिया है और वे मनगढ़ंत और भ्रामक ख़बरों के ज़रिए आंदोलन को देश विरोधी साबित करने पर आमादा हैं। 

किसानों के ख़िलाफ़ उगल रहे ज़हर

सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी यूजर इसे और भी तीखे अंदाज़ में चला रहे हैं। ट्विटर और फेसबुक पर आ रही पोस्टों में तो एक तरह से किसानों के आंदोलन के ख़िलाफ़ ज़हर उगला जा रहा है। 

मोदी सरकार के विरोध में चलने वाले किसी भी अभियान को इसी रूप में पेश करने का अब एक नियम सा बन गया है। 

सीएए के ख़िलाफ़ आंदोलन हो या लॉकडाउन के बाद मज़दूरों का विस्थापन, हर मौक़े पर जब भी अवाम में गुस्सा भड़का, गोदी मीडिया और संघ परिवार की प्रोपेगेंडा मशीनरी ने यही किया है।

किसानों के साथ हमदर्दी

लेकिन किसानों के मामले में ये रणनीति उल्टी भी पड़ सकती है। किसानों की परेशानियों को लेकर आम अवाम में भी गहरी हमदर्दी है और वह उन्हें देशद्रोही मानने के लिए कतई तैयार नहीं होगी। हो सकता है कि मध्यम वर्ग का एक हिस्सा जो हिंदुत्व की चपेट में है, इस दुष्प्रचार में आ जाए मगर ग्रामीण भारत इसे स्वीकार नहीं करेगा। 

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बढ़ेगा किसान आंदोलन

फिर जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ेगा, संभावना ये है कि ये पूरे देश में फैल जाए। आख़िरकार देश की साठ फ़ीसदी आबादी तो खेती पर ही निर्भर है और वह खेती की दुर्दशा से त्रस्त है। वैसे, पहले ही ये आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में असर डालने लगा है और अगले कुछ दिनों में ये बढ़ता नज़र आएगा। आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली लाने के बजाय सीएए विरोधी प्रदर्शन की तर्ज़ पर ज़िला मुख्यालयों में प्रदर्शन आयोजित करने की रणनीति पर काम किया जा रहा है।  

आंदोलन को बढ़ने से रोकने की रणनीति के तहत केंद्र और बीजेपी शासित राज्य सरकारें दमन चक्र चला रही हैं। हरियाणा ने पहले ही इसकी शुरुआत कर दी है।

दिल्ली आ रहे किसानों पर गंभीर धाराओं के तहत केस दर्ज़ कर लिए गए हैं। ये काम अब उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड आदि की सरकारें भी करेंगी। यानी लोगों को डरा-धमकाकर आंदोलन से दूर रखने की कोशिश की जाएगी। सीएए विरोधी आंदोलन से निपटने के लिए भी यही रणनीति अख़्तियार की गई थी।  

झुकना नहीं जानती मोदी सरकार

रही बात समझौता वार्ताओं की तो सरकार ये खेल भी जारी रखेगी। हो सकता है कि वह बिना शर्त बातचीत के लिए भी तैयार हो जाए, मगर ज़ाहिर है कि वह किसानों की मूल माँग को मानने के लिए तैयार नहीं होगी। वार्ताओं का इस्तेमाल किसानों को तीन क़ानून स्वीकार करवाने के लिए किया जाएगा। ये समझने की ज़रूरत है कि मोदी सरकार बेहद हठी और अहंकारी है। लचीलापन दिखाना उसके स्वभाव में नहीं है। 

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कांट्रेक्ट खेती का क़ानून

फिर सरकार ये भी जता चुकी है कि कॉरपोरेट जगत को खुश करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है। कृषि को बदलने का उसका एजेंडा भी इसी भावना से प्रेरित है। कांट्रेक्ट खेती शुरू करने के लिए क़ानून इसीलिए बनाया गया है। हाँ, कुछ छोटी-मोटी रियायतें देने पर सहमति हो सकती है। इनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य के लागू रहने का पक्का भरोसा शामिल है। किसानों की सबसे बड़ी चिंता यही है। 

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केंद्रीय मंत्री इस बारे में बयान भी देते रहे हैं कि एमएसपी आज की तरह चलता रहेगा और किसानों को भ्रमित किया जा रहा है। ऐसे में इसे क़ानूनों में शामिल करने के लिए तैयार होने में उसे बहुत समस्या नहीं होगी। हो सकता है कि मंडियों को भी कुछ समय तक चलने देने पर वह सहमत हो जाए। लेकिन खेती को कॉरपोरेट और कारोबारियों के हाथों में देने का जो मुख्य उद्देश्य इन क़ानूनों में निहित है, उन्हें बदलने के लिए सरकार तैयार नहीं होगी। 

लेकिन अगर किसानों का आंदोलन मज़बूत होता रहा, जो कि होता दिख रहा है तो सरकार की ये रणनीति काम नहीं करेगी। 

जैसे-जैसे आंदोलन फैलेगा, सरकार पर दबाव भी बढ़ता जाएगा। अगले कुछ महीनों में कई राज्यों में चुनाव हैं इसलिए सरकार नहीं चाहेगी कि इस आंदोलन की वज़ह से उसे राजनीतिक नुक़सान हो।
यही नहीं, आंदोलन के बढ़ने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर भी प्रश्न खड़े होंगे और बीजेपी की छवि किसान विरोधी बनेगी। इससे उन्हें दीर्घकालिक नुकसान होगा और विपक्ष को खड़े होने का मौक़ा मिल जाएगा। इसलिए मुमकिन है कि तब सरकार अपना रुख़ बदलने को मजबूर हो जाए। लेकिन सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि किसानों का आंदोलन कैसे आगे बढ़ता है और विपक्षी दल उसे बढ़ाने में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से क्या भूमिका निभाते हैं। 
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