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समान नागरिक संहिता के पहले सरकार को मुसलिमों का भरोसा जीतना होगा!

हमारे देश में धर्म की राजनीति एवं पितृसत्ताक मानसिकता के चलते समान नागरिक संहिता हमेशा से विवादों में लिपटा विषय रहा है। वैसे, कई पारिवारिक तकरार के मामलों में हमारे विविध कोर्ट समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जोर देते आए हैं। हाल में दिल्ली उच्च न्यायालय ने मीणा उपजाति के एक दंपति के तलाक़ मामले की सुनवाई के दरम्यान समान नागरिक संहिता की ज़रूरत पर जोर दिया। पिछले हफ्ते केरल के कोर्ट ने भी पति द्वारा पत्नी पर बलात्कार के मामले की सुनवाई के दौरान इसे दोहराया।

समान नागरिक संहिता का मूल विचार पंडित नेहरू और बाबासाहेब आंबेडकर ने रखा था। उनकी असल फिक्र स्त्री नागरिक को समानता और न्याय दिलवाने की थी। उन्हें डर था कि हमारे समाज में धर्म की आड़ में पुरुष प्रधानता के चलते देश की आधी आबादी को न्याय मिलना मुश्किल होगा। उनका सोचना था कि न्याय और बराबरी के लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित समान नागरिक संहिता द्वारा भारतीय स्त्री को घर-परिवार एवं शादी-ब्याह जैसे मामलों में क़ानूनी संरक्षण मुहैया करवाना लाज़मी होगा।

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7 दशकों के बाद हमारे लोकतान्त्रिक गणतंत्र में स्त्री को किस हद तक न्याय मिल पाया है, ये एक अहम सवाल है! भारत की आज़ादी के 75 वर्ष का पर्व ज़रूर मनाया जाना चाहिए लेकिन क्या आज भारत की बेटियाँ वाक़ई में आज़ाद हैं, इस पर भी ग़ौर करना चाहिए। भारतीय स्त्री नागरिक की गरिमा, समानता और मानव अधिकारों के लिए व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं क़ानूनी सुधार की आज भी सख़्त ज़रूरत है।

किसी भी निष्पक्ष और होशमंद व्यक्ति को शायद कोई शक नहीं होगा कि देश की मौजूदा राजनीति में स्त्री समानता और स्त्री अधिकारों की रत्ती भर परवाह किसी भी राजनीतिक खेमे को नहीं है! हमारे बहुधर्मी देश में समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे पर लोकतान्त्रिक सूझबूझ, गहरे विवेक और व्यापक विचार-विमर्श की ज़रूरत है। इस गंभीरता के बिना समान नागरिक संहिता के नाम पर केवल राजनीति और सामाजिक विभाजन का ख़तरा मंडराता रहेगा।

कांग्रेस के तथाकथित सेकुलरिज़्म से सब परिचित हैं। 1986 में 65 वर्षीय शाहबानू के साथ जो हुआ हमें याद है। उधर राम मंदिर एवं धारा 370 के साथ-साथ समान नागरिक संहिता भी बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में शामिल मुद्दा है। अन्य पार्टियाँ इस मुद्दे पर खामोश हैं। 

दूसरी ओर हिन्दुत्ववादियों के लिए समान नागरिक संहिता सामाजिक ध्रुवीकरण और अल्पसंख्यकों पर हमले का हथियार मात्र है। भला उन्हें स्त्री समानता से क्या सरोकार हो सकता है?

29 अगस्त, 1947 के दिन बाबासाहेब आंबेडकर की अध्यक्षता में संविधान की संरचना के लिए ड्राफ्टिंग कमिटी बनाई गई थी। उन दिनों संविधान के विविध प्रावधानों के बारे में संविधान सभा में व्यापक विचार विमर्श हुआ करता था। भारतीय गणतंत्र के संविधान में लिंग न्याय, लिंग समानता और स्त्री अधिकार जैसे लोकतांत्रिक सिद्धांतों का शामिल होना लाज़मी था। दिलचस्प बात है कि समान नागरिक संहिता के प्रस्ताव पर संविधान सभा में खूब घमासान मचा। कई सदस्यों ने हिन्दू धर्म की रक्षा का हवाला देते हुए इसका पुरजोर विरोध किया। इसे हिन्दू धर्म और प्राचीन भारतीय संस्कृति पर हमला करार दिया गया। 

modi government on uniform civil code and muslims - Satya Hindi

संसद के बाहर भी कई साधु-संतों और अन्य धार्मिक हस्तियों ने समान नागरिक संहिता के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किए। इस दौरान सभा के मुसलिम सदस्य खामोश रहे। आश्चर्य इस बात का है कि इन्हीं  विरोधियों के वंशज आज डट के समान नागरिक संहिता की मांग कर रहे हैं!  

व्यापक विरोध और आपत्ति के चलते नेहरू को समान नागरिक संहिता लागू करने का विचार स्थगित करना पड़ा। आख़िर में इसे संविधान के निधेशक सिद्धान्त 44 के रूप में स्थान मिला।

संविधान के मुताबिक़ हर भारतीय नागरिक समान है। फिर वो स्त्री हो या पुरुष; हिन्दू हो या मुसलिम; ग्रामीण हो या शहरी। हमारे देश में सभी के लिए समान या एक से क़ानून हैं। लेकिन जब घर एवं परिवार की बात आती है तो स्त्री गौण हो जाती है और धार्मिक रीति-रिवाज़ एवं प्रथा भंग होने का ख़तरा खड़ा हो जाता है। शादी, तलाक़, मिल्कियत, बच्चों की सरपरस्ती जैसे मामलों में हमेशा स्त्री को अन्याय झेलना पड़ता है। इन मामलों में तथाकथित धर्म आधारित रीतियों का चलन चलता है। 

इन रिवाजों-परंपराओं में हमेशा पुरुष को प्राथमिकता, स्त्री को दोयम दर्जे का स्थान दिया जाता है। यह हक़ीक़त कमोबेश सभी मज़हबों के समाजों में देखने को मिलती है।

समान नागरिक संहिता का प्रयास विफल होने के बाद नेहरू और आंबेडकर ने विवेक, सच्ची निष्ठा एवं सूझबूझ दिखाई। 1950 के दशक में संसद में हिन्दू कोड बिल लाया गया जिसके तहत हिन्दू मैरिज ऐक्ट, हिन्दू सक्सेशन ऐक्ट और अन्य 8-10 क़ानून पारित किए गए। अब देश की हिन्दू स्त्री को शादी, तलाक़ और अन्य परिवारिक मामलों में क़ानूनी न्याय मिलना संभव हुआ। आज हिन्दू मैरिज क़ानून के तहत स्त्री भी तलाक़ मांग सकती है। विवाह ‘जनम जनम का पवित्र बंधन’ होने के बावजूद!

हालाँकि शुरू में रूढ़िवादी धर्मगुरु इन क़ानूनों का भी विरोध करते रहे लेकिन देश की संसद के सामने उनकी एक नहीं चली और हिन्दू स्त्रियों को धीरे-धीरे इन पारिवारिक क़ानूनों का संरक्षण हासिल हुआ। साथ ही इन क़ानूनों में लगातार सुधार भी होता आया है जिसके चलते बेटियों को पुश्तैनी मिल्कियत में हिस्सा मिलना शुरू हुआ है। मैं बिल्कुल नहीं कह रही कि हिन्दू स्त्री को आज पूरी आज़ादी हासिल हो चुकी है। लेकिन कम से कम हिन्दू स्त्री को हिन्दू कोड बिल से क़ानूनी संरक्षण प्राप्त ज़रूर हुआ है। और मेरा विश्वास है कि इसमें आगे भी सुधार होता रहेगा। 

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लेकिन मुसलमान स्त्री को क्या मिला। मुसलिम समाज में आज भी 1937 का शरीयत ऐप्लीकैशन ऐक्ट लागू है। हमारे देश में धार्मिक उलेमा और कट्टरवादी नेता हमेशा से शरीयत को बरकरार रखने की पैरवी करते आए हैं। लेकिन सवाल यह है कि कौन सी शरीयत? किसकी शरीयत - पर्सनल लॉ बोर्ड की स्त्रीविरोधी मानसिकता पर आधारित शरीयत या प्रोफेसर अमीना वदूद जैसी प्रगतिशील इस्लामिक आलिम की समझ पर आधारित शरीयत? 

1937 के शरीयत क़ानून में यह स्पष्टता नहीं है। यहाँ लिखित में स्त्री संरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। यह सिर्फ नाम का क़ानून है। यही वजह है कि जुबानी तीन तलाक़ की इजाज़त पवित्र कुरान में नहीं होने के बावजूद ज़्यादातर औरतें इसका शिकार होती रही हैं! पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे रूढ़िवादी संगठन ने औरतों के हकों को कभी उजागर होने नहीं दिया।

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जुबानी तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ व्यापक मुहिम छेड़ कर मुसलिम औरतों ने धर्म की आड़ में पितृसत्ता के चलन को ऐतिहासिक चुनौती दी। औरतों ने धर्म में दिए गए निकाहनामा, महर, मिल्कियत में हिस्सा जैसे अन्य स्त्री अधिकारों को भी उजागर किया और मुसलिम पारिवारिक क़ानून में व्यापक सुधार की भी मांग की। दूसरी ओर पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो से लेकर तीन तलाक़ नाबूदी तक लगातार मुसलिम क़ानून में सुधार का विरोध किया है। इस सुरते-हाल में हिंदुत्ववादियों के समान नागरिक संहिता के नारों को और भी हवा मिलती है।

हमारे देश में मुसलिम पारिवारिक क़ानून में व्यापक सुधार की ज़रूरत है। आज भी हलाला, बहुपत्नीत्व, शादी की उम्र, संतान की सरपरस्ती, तलाक़ का सही तरीक़ा जैसे मसले मौजूद हैं।

मौजूदा शरीयत क़ानून में स्त्री को इन कुप्रथाओं के ख़िलाफ़ संरक्षण नहीं है। संसद को राजनीति से हटकर इस पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। हिन्दू कोड बिल की तर्ज पर मुसलिम पारिवारिक क़ानून भी होना चाहिए। संविधान धर्म स्वातंत्र्य का अधिकार देता है लेकिन इसकी आड़ में स्त्री अधिकार हनन की इजाज़त नहीं देता! लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बीजेपी के राज में इसकी उम्मीद की जा सकती है?

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2014 में प्रधानमंत्री ने सबका साथ, सबका विकास का नारा दिया था। उन्होंने 2019 में सबका विश्वास जीतने की बात कही थी। लेकिन आज देश का मुसलमान नागरिक बड़े संकट में है। ग़रीबी, शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ापन और रोज़गार के अभाव के अलावा आज धार्मिक ध्रुवीकरण चरम पर है। गौरक्षा के नाम पर हिंसा, तथाकथित लव-जिहाद के नाम पर हिंसा और सांप्रदायिक जहर का माहौल है। दूसरी ओर CAA जैसे क़ानून के चलते NRC-NPR की तलवार मुसलमान नागरिक के सर पर लटक रही है। केन्द्र और मुसलिम समाज के बीच विश्वसनीयता का अभाव ही नहीं बल्कि गहरी खाई है। समान नागरिक संहिता के प्रस्ताव से पहले सरकार को मुसलमान नागरिक के प्रति कई ठोस क़दम उठाने पड़ेंगे। उन्हें आश्वासन देना होगा कि वे भी भारत के समान नागरिक हैं और उनके जान-माल की सुरक्षा के लिए सरकार प्रतिबद्ध है। सांप्रदायिक जहर फैलाने वालों पर क़ानूनी कारवाई का इंतज़ार पूरे देश को है।
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ज़किया सोमन

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