जगदीश शेट्टार
कांग्रेस - हुबली-धारवाड़-मध्य
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देश में लॉकडाउन को लगे क़रीब दो महीने हो रहे हैं। इन दो महीनों में क्या कोरोना से लड़ाई में देश जीता या हारा, यह सवाल उठना चाहिये। साथ ही यह भी सवाल पूछा जाना चाहिये कि प्रधानमंत्री ने 21 दिनों में कोरोना को हराने का जो वचन देश को दिया था, उस वचन का क्या हुआ? क्या आज देश 24 मार्च से ज़्यादा सुरक्षित महसूस कर रहा है या फिर संकट बढ़ गया है? और अगर संकट बढ़ा है तो क्यों और कौन इसके लिये ज़िम्मेदार है?
प्रधानमंत्री मोदी ने 25 मार्च को अपने चुनाव क्षेत्र बनारस के लोगों से बातचीत करते हुए कहा था, ‘18 दिनों में महाभारत जीता गया था। कोरोना को जीतने के लिये वो देश से 21 दिन माँग रहे हैं।’ यानी मोदी को यह भरोसा था कि कोरोना का संकट कोई भयानक संकट नहीं है और वह 21 दिन में इस संकट पर क़ाबू पा लेंगे। उनका अंदाज़ सुभाष चंद्र बोस वाला था - ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’। तुम मुझे 21 दिन दो मैं तुम्हे कोरोना मुक्त भारत दूँगा। मोदी की वक्तृत्वकला की मुरीद पूरी दुनिया है। यह वह वक़्त था जब देश उनसे उम्मीद कर रहा था कि वह महामानव की अपनी छवि के अनुरूप देश को कोरोना के संकट से उबार देंगे। उनके भक्त शायद पूरी तरह से आश्वस्त थे कि मोदी के रहते कोरोना देश का बाल भी बाँका नहीं कर सकता। पर दो महीने बाद आज स्थिति वह नहीं है, भक्तों की बॉडी लैंग्वेज ढीली पड़ गयी है, बड़ी-बड़ी डींगें मारने वाले रक्षात्मक मुद्रा में हैं।
हक़ीक़त यह है कि पिछले दो महीनों में हालात बेहतर होने की जगह बदतर हुए हैं। मोदी के बनारस वाले बयान से साफ़ है कि उन्हें कभी भी कोरोना की भयावहता का अंदाज़ा नहीं था। अपने मित्र डोनल्ड ट्रंप की तरह वह भी उतने ही बेपरवाह थे। अन्यथा 30 जनवरी को कोरोना का पहला मरीज़ सामने आने के बाद से ही कोरोना से लड़ने की तैयारी में युद्ध स्तर पर जुट जाना चाहिये था। दक्षिण कोरिया के यहाँ भी जनवरी में भारत से तक़रीबन एक हफ़्ते पहले कोरोना का पहला मरीज़ मिला था और उसके फ़ौरन बाद कोरिया ने तैयारी शुरू कर दी। नतीजा बिना लॉकडाउन किये वो कोरोना से कामयाबी से लड़ पाया। कोरिया ने जनवरी महीने में ही बड़े पैमाने पर टेस्ट किट्स, मास्क, कवर ऑल और वेंटिलेटर जैसी ज़रूरी चीजों का उत्पादन शुरू कर दिया था। भारत शांत बैठा रहा। सिर्फ़ केरल ने तैयारी की और इसकी तारीफ़ पूरी दुनिया में हो रही है।
लोग इस बात के लिये मोदी की तारीफ़ करते हैं कि देखो कितनी मज़बूती से एक साथ पूरे देश में लॉकडाउन लगाने का बड़ा फ़ैसला कर लिया। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि मनमोहन सिंह होते तो क्या वह ऐसा कर पाते। मनमोहन का आज सवाल नहीं है। सवाल उससे है जो आज कुर्सी पर बैठा है और जिसे 2019 में जनता ने 303 सीटें दी हैं। लिहाज़ा वह जवाब दें कि 30 जनवरी से लेकर 24 मार्च तक क्या क़दम उठाये। हक़ीक़त यह है कि इस दौरान उनका ध्यान दिल्ली में विधानसभा चुनाव पर था, ट्रंप के अहमदाबाद में स्वागत पर था और भोपाल में कांग्रेस की सरकार गिरा कर बीजेपी की सरकार बनाने पर था। और वेंटिलेटर्स का निर्यात 24 मार्च तक होता रहा। देश ने डेढ़ महीने गँवा दिये।
सरकार की तैयारी का हाल यह था कि 13 मार्च को स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन कह रहे थे कि किसी मेडिकल आपातकाल की ज़रूरत नहीं है। और पाँच दिन बाद ही प्रधानमंत्री जनता से 22 मार्च को दिन भर के लिये जनता कर्फ़्यू की बात करते हैं।
और 24 मार्च को सिर्फ़ चार घंटे के नोटिस पर 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा कर देते हैं। यह इस अदूरदर्शिता का नतीजा है कि लाखों की संख्या में प्रवासी मज़दूरों को अकल्पनीय तकलीफ़ उठानी पड़ी। आज सरकार के नुमाइंदे कहते हैं कि अगर प्रधानमंत्री ने एक-दो दिन का नोटिस दिया होता तो लोग घरों की तरफ़ भागते, सामानों की होर्डिंग होती और लॉकडाउन लगाने का पूरा मक़सद ही तबाह हो जाता। यह सिर्फ़ बहाना है। सचाई है कि सरकार को जब ख़तरा आँखों के सामने नज़र आया तो आनन-फ़ानन में लॉकडाउन का फ़ैसला कर लिया बिना ये सोचे कि दिहाड़ी मज़दूरों का क्या होगा? शहरों में रहने वाले ग़रीबों का क्या होगा? लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों की अमानवीय तकलीफ़ देखने के बाद भी सरकार कोई नीति नहीं बना पायी।
1 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में सरकार के वकील कहते हैं, ‘गृह सचिव ने उन्हें बताया है कि 11 बजे दोपहर तक एक भी आदमी सड़क पर नहीं है, जो थे उन्हें पास के कैंपों में ले जाया गया है और उन्हें खाने के पैकेट दिये जा रहे हैं।’ पूरी दुनिया ने देखा कि पूरे अप्रैल महीने मज़दूर सैकड़ों किमी पैदल या साइकिल पर अपना सामान लादे परिवार समेत सड़कों पर चलता रहा। अगर मोदी महामानव थे तो फ़ौरन इस समस्या का समाधान करते। यह लिखने के समय तक सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि मज़दूर क्यों पैदल चल रहे हैं और प्रबंध के तमाम दावे क्यों खोखले साबित हो रहे हैं।
मनमोहन सरकार पर यह आरोप लगता है कि आख़िरी सालों में उनकी सरकार को लकवा मार गया था, फ़ैसले नहीं हो रहे थे, आज यही बात क्यों नहीं मोदी सरकार के बारे में कही जाए।
अगर सरकार को लकवा नहीं मारा था तो 28 अप्रैल को फिर सरकार की तरफ़ से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने मुख्य न्यायाधीश बोबडे के पूछने पर कि पैदल चल रहे प्रवासियों पर सरकार की क्या नीति है, यह नहीं कहते कि राज्य सरकारों से सलाह-मशविरा कर अदालत को बताया जायेगा। यानी 28 अप्रैल तक मोदी सरकार के पास प्रवासी मज़दूरों का क्या करना है, कोई योजना नहीं थी। तब तक लॉकडाउन को लगे एक महीने से ज़्यादा हो चुका था। इसके बाद फिर आनन-फ़ानन में फ़ैसला हुआ सीमित दायरे में बस और ट्रेन चलाने का। इसमें राज्य सरकारों को भरोसे में नहीं लिया गया। बेचारे ग़रीब मज़दूरों से किराये के पैसे वसूले गये। हंगामा होने के बाद ऐसा तर्क दिया गया जो किसी के गले नहीं उतरा। मज़दूरों के मसले पर यह साफ़ हो गया कि सरकार न सिर्फ़ योजना विहीन है बल्कि वह असंवेदनशील भी है। ग़रीब मज़दूरों की जिस तकलीफ़ को देखकर लोग रो पड़े वह तकलीफ़ मोदी सरकार और बीजेपी का दिल नहीं पसीजा पायी।
मोदी सरकार की ‘आपराधिक न-तैयारी’ का एक और उदाहरण है। कोरोना से निपटने के लिये बनी टास्क फ़ोर्स के अध्यक्ष विनोद पाल ने 25 अप्रैल को एक प्रेस वार्ता में दावा किया कि 16 मई से भारत में कोरोना का एक भी नया मरीज़ नहीं आएगा। और आज 21 मई को सरकार के हवाले से बताया गया है कि पिछले 24 घंटे में 5609 नये मरीज़ आये हैं और कुल संक्रमितों का आँकड़ा 1 लाख 12 हज़ार 359 पहुँच गया है। और यह आँकड़ा तेज़ी से बढ़ता ही जा रहा है।
इसका साफ़ मतलब है कि सरकार को जो सलाह दे रहे थे वे निहायत निकम्मे लोग हैं या फिर वो वही सलाह दे रहे थे जैसा प्रधानमंत्री चाहते थे। अन्यथा कोई भी व्यक्ति इतनी बेहूदी और बेबुनियाद बात कैसे कह सकता है और अभी तक वो अपने पद पर कैसे बना रह सकता है?
इस दौरान दुनिया के तमाम बड़े विशेषज्ञ कह रहे थे कि भारत में कोरोना का ‘पीक’ जून के अंत या जुलाई में आयेगा और उसके बाद ही कोरोना के संक्रमण की संख्या में कमी आनी शुरू होगी। ख़ुद AIIMS के निदेशक रंदीप गुलेरिया ने भी कहा कि कोरोना का पीक जून-जुलाई में देखने को मिलेगा। कोरोना टास्क फ़ोर्स के दो सदस्यों ने अपना नाम सार्वजनिक न करने की शर्त पर कारवाँ पत्रिका को बताया कि लॉकडाउन का फ़ैसला वैज्ञानिक आधार पर नहीं किया जा रहा है। एक सदस्य ने पत्रिका को बताया, ‘ये फ़ैसले कैसे किये जा रहे हैं, ये मेरी समझ से परे हैं। इसके पीछे कोई विज्ञान नहीं है। ...ये पैरालाइज हो गये हैं। पहली बार महामारी को विशेषज्ञों के नाते वो देख रहे हैं कि सरकार कितनी अदूरदर्शी है, वह केवल यह सोच रही है कि अगले दो हफ़्ते क्या होगा?’
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