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तालिबान को किस नज़रिये से देखे मोदी सरकार?

अनादि काल से ही मानव समाज में तीन प्रवृत्ति के लोग रहते हैं। सभ्य, असभ्य और बर्बर। भारतीय पौराणिक कथाओं में भी देव, मानव और दानवों का अस्तित्व वर्णित है। बर्बर जमात असीम हिंसा पर विश्वास करती है, सभ्य समाज सीमा से अधिक व्यवस्थित होता है तथा बीच में खड़े सज्जन लोग न तो किसी व्यवस्था के अंग ही होते हैं, न ही वे स्वयं हिंसक -अतः वहां अव्यवस्था (असभ्यता) का बोलबाला होता है।

सभ्य समाज में लोगों के अधीन शासन होता है, असभ्य समाज में शासन के अधीन लोग होते हैं, तथा बर्बर समाज में जिसकी लाठी उसी की भैंस होती है।

वर्तमान विश्व में भी यदि देखें तो अधिकांश पश्चिमी देशों में लोगों के अधीन शासन है, अधिकांश विकासशील एवं धर्म प्रधान राष्ट्रों में शासन के अधीन लोग हैं, और उत्तर कोरिया तथा कई अफ्रीकी एवं अविकसित देशों में बर्बरता का बोलबाला है। 

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बर्बर क्रूरता एवं परिष्कृत सभ्यता, दोनों चूँकि दो ध्रुवों पर स्थित हैं, तो इसीलिए संख्या में कम हैं, भले एक के पास हिंसा और दूसरे के पास बुद्धि की भरमार हो। तो इसीलिए दोनों ही ध्रुव बीच में खड़े बहुसंख्य सज्जन को अपने खेमे में लेने का प्रयास करते रहते हैं। बर्बर लोग क्रूरता से सज्जनों को अपने अधीन करने की कोशिश करते हैं तो दूसरी ओर सभ्य लोग बुद्धि से सज्जनों को प्रभावित करने का प्रयास।

अफ़ग़ानिस्तान को समझने के लिए इसलामिक शासन पद्धति को समझने की ज़रूरत है। दुनिया भर में इसलाम को मानने वालों की संख्या क़रीब दो सौ करोड़, या समस्त मानवों की क़रीब एक चौथाई। विश्व भर के 195 में से 45-50 राष्ट्र इसलामिक हैं। एक ओर हैं यूरोपिय इसलामिक देश -जैसे तुर्की, अल्बानिया, अज़रबैज़ान आदि- जहां लोगों के अधीन सरकारें हैं, जहाँ इसलाम का उदार संस्करण प्रचलित है। सउदी अरब, इंडोनेशिया आदि में सरकारों के अधीन लोग हैं, जहाँ इसलाम की कट्टर परिभाषा व्याप्त है। सीरिया के कुछ भाग, अफ़ग़ानिस्तान के कुछ हिस्सों में आइसिस का कब्जा है, जिसने कि इसलाम की अत्यंत बर्बर व्याख्या कर रखी है।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि अलग अलग कालखंडों में अलग अलग राष्ट्र अलग अलग व्यवस्थाओं के अधीन रहे। कमाल अतातुर्क से पूर्व का तुर्की कट्टर था तो तालिबान से पहले का अफ़ग़ानिस्तान उदार। 19वीं सदी का सऊदी अरब क्रूर कबिलाई था तो तेल भंडार के बाद वाला अरब कट्टर है। जिया उल हक़ से पहले वाला पाकिस्तान उदार था तो बाद वाला कट्टर। 

असद के अधीन सीरिया को 9/11 के बाद यदि पश्चिम बर्बर मानने लगा था तो उसी सीरिया में आइसिस के जन्म के बाद उसी सीरिया को पाश्चात्य देश अब कट्टर की श्रेणी में रख रहे हैं। तो समझना यह है कि किसी व्यवस्था को बर्बर, कट्टर या उदार मानने में समकालीन तुलनात्मक तथ्यों का महत्व सर्वाधिक होता है।

2001 में अमेरिका पर आतंकवादी हमले के तुरंत बाद दुनिया ने अल क़ायदा को बर्बर माना और उसके सभी ठिकानों, आकाओं पर हमला किया चाहे वो अफ़ग़ानिस्तान में हों या पाकिस्तान में या जर्मनी में या मिस्र में। आज बीस साल बाद अल क़ायदा अपनी शक्ति खो चुका है और विश्वव्यापी आतंकी कहर बरपाने में अक्षम हो चुका है। तो इसीलिए अमेरिका सहित पश्चिमी देश तथ्यों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भले तालिबान कट्टर हो, पर अब वह बर्बर नहीं रहा। इसीलिए इन देशों ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने आप को हटाते समय तालिबान के सुपुर्द कर दिया। इसके बावजूद अफ़ग़ानिस्तान में ही पल रहे आइसिस को बर्बर मानते हुए आज भी उनके ठिकानों पर ड्रोन हमले जारी रखे। 

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आज यह स्पष्ट है कि पश्चिमी देश बर्बर इसलाम के ख़िलाफ़ दुनिया भर में कहीं भी बल प्रयोग से पीछे नहीं हटते, चाहे वो 2001 का अल क़ायदा हो या 2021 का आइसिस। उदार इसलाम को सहयोगी मानते हैं, जैसे तुर्की को अमेरिका ने नेटो का अंग बनाया हुआ है। कट्टर इसलाम से अमेरिका व्यावहारिक संबंध रखता है, जैसे अरब देशों से, पाकिस्तान से उसके हितसाधन के संबंध हैं -और अब आगे तालिबान के साथ भी यही होगा। 

भारत को भी यह कूटनीति जल्द ही समझ लेनी होगी कि इसलाम की अलग अलग पद्धतियों में किसे तथ्यात्मक तौर पर ख़तरनाक माने, किसे निरुपद्रवी माने, और किसे मित्रवत माने, भले वो अपने आंतरिक मामलों में जैसा भी शासन चलाते हों। भारत के लिए सबसे लाभ की स्थिति यह होगी कि वह व्यावहारिक कूटनीति के तहत उदार इसलामिक देश, जैसे बांग्लादेश, तुर्की आदि को मित्र मानना शुरू करे। वहीं आइसिस ब्रांड का बर्बर इसलाम भारतीय कश्मीर के पड़ोसी अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते भारत के लिए ख़तरा न बने इसीलिए उसे एक तरफ़ तो तालिबान-पाकिस्तान के कट्टर इसलामिक जोड़ी से व्यावहारिक संबंध बनाने पड़ेंगे वहीं अपना रक्षा बजट इस कदर बढ़ाना होगा कि यदि आवश्यकता पड़े तो भौतिक तकनीक के बल पर आइसिस के बढ़ते क्रूर क़दमों को अपनी सीमा की चौखट पर पहुँचते ही बल प्रयोग से पराजित भी कर दे।

काबुली चने की ताजा फ़सल ने भारत पर एक अत्यंत नाजुक संतुलन साधने की मजबूरी ला खड़ी की है, जिस संतुलन को पाश्चात्य देश पिछले दो तीन दशकों से साधते आ रहे हैं।

इस नाजुक संतुलन को प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा वर्तमान भारत सरकार में शामिल सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। भाजपा की, उसमें भी खासकर सावरकरवादियों की संपूर्ण राजनीति सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर निर्भर है। इस ध्रुवीकरण को साधने हेतु उनके कथानक में बाबर से लेकर बगलवाले मुसलमान मित्र तक को एकरंगा आततायी रंग देने की मजबूरी है, जिससे कि ग़ैर मुसलमान सावरकरवादी पाले में आ बैठे। इस नैरेटिव में उन हुड़दंगियों का बड़ा पात्र रहता है जो सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक इसलाम के बारे में एकीकृत आम धारणा के निर्माण में लगे हैं।

दूसरी तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान के ताज़ा घटनाक्रम यह दिखाते हैं कि वर्तमान विश्व इसलाम के केवल बर्बर संस्करण को काबू में रखने की कवायद कर रहा है, उसे कट्टर इसलाम से कोई आपत्ति नहीं है, तथा उदार इसलाम के साथ उसकी रचनात्मक सहभागिता भी है। 

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भारत को वर्तमान में शासन करने वाली भाजपा के सामने अब यह मजबूरी आएगी कि वोट बढ़ाने के लिए समूचे इसलाम को शत्रुवत साबित करना है या सीमापार अफ़ग़ानिस्तान में शक्तिशाली हो चुके बर्बर इसलामी आइसिस को पछाड़ने के लिए कट्टर एवं उदार इसलाम को मान्यता देना है?

संपूर्ण इसलाम आततायी वाला सावरकरवादी भ्रामक नारा एक तरफ़ बर्बर इसलाम के कोप को तो आमंत्रित करेगा ही, इसके अलावा कट्टर तथा उदार इसलाम को भी भारत के समर्थन से दूर कर देगा। वहीं बर्बर इसलाम से सामना करने के लिए शस्त्र तकनीक में व्यापक शीघ्र निवेश के साथ कट्टर और उदार इसलाम के साथ यथायोग्य सामंजस्य भारत की भौतिक तथा सांस्कृतिक अस्मिता को बर्बर आइसिस ब्रांड इसलाम के आसन्न संकट से बचा भी सकता है। भारत का भविष्य भारत की वर्तमान शासन व्यवस्था के कूटनीतिज्ञों के हाथ में है।

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सिद्धार्थ शर्मा

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