loader
फ़ाइल फ़ोटोफ़ोटो साभार: ट्विटर/नरेंद्र मोदी

कोरोना में राष्ट्र के शीर्ष के बौद्धिक और मानवीय स्तर को माँपें

पिछले नवम्बर बुरी तरह कोरोना की चपेट में आ गया। फेफड़ों में भी खासा फाइब्रोसिस फैल गया था। दूर बैठे परिजनों ने दिल्लीवासी भाई के ऊपर यह ज़िम्मेदारी थोप दी कि मुझे कैसे भी धर-पकड़ कर एक मशहूर मॉल के बगल में स्थित उस पांच सितारा अस्पताल में भर्ती करवा दे। मानो उसके नाम से ही कोरोना डरकर भाग जाएगा। घर पर ही अच्छा भला इलाज चल रहा था। जाने माने चिकित्सक डॉ. मोहसिन वली और उनकी सहयोगी डॉ. गायाने मोव्सिस्यान सईद की देखभाल में! खाने वाली दवाइयों के अलावा उनके क्लिनिक से कम्पाउण्डर रोज़ आकर आठ-दस इंजेक्शनों के मिश्रण का ड्रिप चढ़ा जाता। बुखार उतरने लगा था। अलबत्त्ता कमजोरी बहुत थी फिर भी अस्पताल जाने का इरादा नहीं बन पा रहा था, किन्तु परिजनों की अपनी जिद्द होती है।   

लाख तर्कों के बावजूद मुझे लाद-पाद कर अस्पताल के एकल खर्चीले कमरे में पहुँचा दिया गया।

यह नवंबर 2020 की बात थी जब अधिकतम मामले पिच्चानवे-छियानवे हज़ार तक पहुँचकर नीचे लुढ़कने लगे थे। आज मई 2021 में इस माहामारी ने जिस विकराल रूप को धारण कर लिया है वह कल्पना से परे है। प्रतिदिन साढ़े तीन-चार लाख के दायरे में संक्रमित लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। उसी अनुपात में मौतें भी हो रही हैं। बार-बार यह सवाल ज़हन में उठता है कि आख़िर चूक कहाँ हुई। या हमने अपनी पुरानी ग़लतियों से कुछ भी न सीखने की कसम खा रखी है। इन दो लहरों के बीच हमें छह महीनों से भी ज़्यादा का वक़्त मिला था। लेकिन आधारभूत चिकित्सकीय सुविधाओं पर ध्यान देने की बजाय हम चुनावों, धार्मिक अनुष्ठानों और मेलों में लगे रहे। 

ताज़ा ख़बरें

जिस बौद्धिक दिवालियापन का अश्लील उत्सव टॉर्च भुकभुकाने, थाली बजाने से आरम्भ हुआ था वह ‘गो, कोरोना गो’, गोबर, पापड़, आरती, कीचड़, हवन, कोरोनिल, तंत्र-मंत्र सब कुछ आज़माने के बाद लगभग साढ़े तीन-चार लाख नए मामलों और तीन-साढ़े तीन हज़ार मौतें प्रतिदिन के सरकारी आँकड़े पर आ टिका है। चेहरे पर नूर बचाए रखने वाली चालाकियों को नोच फेंकें तो यह संख्या कई गुना बढ़ भी सकती है। अलबत्ता, बड़े लोगों को कोई परेशानी नहीं। सुना है, सबने दुबई जाकर या विशेष विमानों से मंगवाकर अधिक असरदार फ़ाइज़र के टीके लगवा लिए हैं। यह भी सुना है कि अनेक धनपति व राजनेता लम्बे अरसे के लिए विदेशों में जा छिपे हैं- जैसे डूबते जहाज़ को छोड़ चूहे भागते हैं।

आम जन के हमदर्द होने का स्वांग रचते ये लोग बेशक कोवैक्सीन का टीका लगवाते दिख जाएँ- जैसा कि फ़िल्मों में देसी सरसों का तेल रगड़वाती कोई चमकदार हिरोईन- तो रोमांचित हो सहसा विश्वास कर लेने की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी सर्व-साधारण के निगल लेने के लिए आज कोई कुछ भी उगलकर चला जा रहा है। बस, आवरण आस्थाजन्य होना चाहिए –“हे, ऋषि संतानों! वेदों में लौटो और अपने गुप्त पिताओं की तरह बग़ैर ऑक्सीजन के साँस लेना सीख लो।” – (उत्तराखंड से ताज़ा-ताज़ा)  

अब रही बात बेहतर टीके बनाने वालों की तो यहाँ के नखरे देख मोडेर्ना ने टीके सप्लाई करने में अरुचि ज़ाहिर कर दी है। जबकि फ़ाइज़र वाले अनजाने में हुई किसी क्षति के कारण हर्जाने से बचने के करार पर भारत सरकार की हरी झंडी का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन वह तो तब हिलेगी जब यहाँ के दस्तूर पूरे हो जाएँगे। तब तक आप के पास गोमूत्र और गोबर सरीखे देसी उपचार तो हैं ही। और फिर एक दिन तो सबको जाना है.. खैर, अनियंत्रित संक्रमण से घबराकर रूसी स्पुतनिक को मंजूरी अवश्य मिल गई है।

2021 की मार्च में बीजेपी ने प्रधान के कुशल, संवेदनशील और दूरदर्शी नेतृत्व में कोविड को गाड़ने-पछाड़ने का लम्बा-चौड़ा दावा कर डाला था। प्रस्ताव पारित किया। गाल और साथ में न जाने क्या क्या बजाया।

इस शोर-शराबे में फ्रांसीसी मीडिया द्वारा उखाड़े जा रहे रफाली सवाल तो दब ही गए। बेआबरू होती अर्थव्यवस्था से लेकर चीनी-चने चबाने तक के तमाम मामले ढक दिए गए।

जापान हो, न्यूज़ीलैंड हो या अमेरिका कोविड के इस महासंकट को देखते हुए सबने अपने नागरिकों को बचाने के लिए खजाने खोल दिए हैं। प्रति व्यक्ति नकद सहायता के अलावा अनेक कल्याणकारी योजनाओं को मूर्त रूप दिया जा रहा है। जबकि हमारे देश में बेरोज़गारी की मार सहते ग़रीबों की मदद के नाम पर बस ठेंगा है। जब अस्पतालों में शय्याएँ बढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं, नए अस्पताल बनाने के लिए पैसे नहीं हैं, दवाइयों और ऑक्सीजन की व्यवस्था के लिए पैसे नहीं हैं, स्वच्छता की आधारभूत सुविधाओं को मज़बूत बनाने के पैसे नहीं हैं, ऐसे में बीस हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च कर निहायत भद्दे से नए पार्लियामेंट हाउस को बनवाने की ज़िद्द कंगाल होती और मरती जनता के पैसे पर अमरत्व प्राप्त करने की साज़िश नहीं तो और क्या है? 

modi govt tackling coronavirus crisis in india - Satya Hindi
फ़ोटो साभार: ट्विटर/आशीष

जब कोरोना को पछाड़ने के ऊँचे-ऊँचे दावे किए जा रहे थे तब सवाल क्यों नहीं उठे कि आख़िर हमने ऐसा कौन सा तीर चलाया था जिससे डरकर कोरोना भाग गया? यह क्यों नहीं समझ में आया कि दरअसल यह महाविनाश के पहले की छलती हुई शांति है? कोई हिसाब लगाए कि कुम्भ के मेले और चुनावी रैलियों का कोरोना की इस नई लहर में कितना योगदान रहा है तो दिमाग़ चकरा जाएगा। 

खैर, फ़ाइज़र, मोडेर्ना या स्पुतनिक वी जैसे बेहतर टीकों को रोके रखने में कालाबाज़ारी और घूसखोरी की जबरदस्त संभावनाएँ भी अहम् भूमिका निभा रही हैं। वाक़ई, आपदा को अवसर में बदल देने में इस सरकार का कोई सानी नहीं। रंगे हाथों पकड़े जाने पर बना-बनाया जवाब है कि यह माल तो हम सरकार के हवाले करने ही जा रहे थे! दरअसल, कोरोना का पायदान वह पैमाना है जिससे किसी भी राष्ट्र के शीर्ष का बौद्धिक और मानवीय स्तर नापा जा सकता है। चाहे वह ट्रम्प का अमेरिका हो या फ़क़ीर का भारत।    

विचार से ख़ास

यह अकारण नहीं है कि सेवानिवृत्त आई.ए.एस अधिकारी अमिताभ पांडे जिन्होंने अनेक प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया है, उनके अनुसार इतना नाकारा, संवेदनहीन, क्रूर और द्वेषी, बौद्धिक रिक्तता और सांस्कृतिक अभद्रता से भरा, संवैधानिक नैतिकता को धता बतानेवला नेतृत्व कभी नहीं देखा।

बहरहाल, यह लम्बे समय तक याद रहेगा कि एक तरफ़ जब ऑक्सीजन की किल्लत से लोग दम तोड़ रहे थे तब हिंदुस्तान के ‘सम्राट’ चुनावों में पानी की तरह पैसे बहा रहे थे। तमाम संसाधनों को झोंक देने और निम्नतम स्तर तक उतर जाने के बावजूद हवाई चप्पल और सूती साड़ी वाली जीत गई। किसी लकड़सुंघवे से दिखते प्रधान का धमकी भरा ‘दीदी ओ दीदी’ का जुमला भी काम न आया, भले ही उन्होंने इसके लिए गले से तरह-तरह की भयावह आवाज़ें निकालीं। ख़ुद को चाणक्य घोषित करते महान नेता पिटे हुए प्यादे साबित हुए। संभवतः गुरुदेव के हुलिए की नकल उतारना और ममता पर किए जा रहे अभद्र हमले बांग्ला सम्मान को गहराई तक आहत कर गए। नतीजा सामने है।

(हंस के संपादकीय का संक्षिप्त हिस्सा, साभार) 

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
संजय सहाय

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें