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मोदी-जिनपिंग: लुंगी-बिरयानी और 'राष्ट्रवादी'

हक़ीक़त तो यह है कि शी-मोदी मुलाक़ात का ‘ऑप्टिक्स’ सही नहीं था। शुरू से यह ऐसा लग रहा था कि भारत बेताब है चीन के राष्ट्रपति का स्वागत करने के लिए। भारत झुक रहा है। पहली बात हमें समझनी चाहिये कि भारत यात्रा से पहले इमरान ख़ान से मिलना ही भारत के लिए तगड़ा संदेश था।
आशुतोष

मटन बिरयानी का एक बार फिर ज़िक्र हुआ है। इस बार चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को 'आंध्र स्टाइल' में बनी बिरयानी खिलायी गयी है। चेन्नई में मोदी और शी के बीच मुलाक़ात थी। खाने का शानदार मेन्यू बना था। चिकन और लॉब्स्टर के साथ बिरयानी का आनंद शी ने उठाया। प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद शाकाहारी हैं। पर शी के लिए भारतीय अंदाज़ में बने माँसाहारी व्यंजन से मेहमान की सेवा की गयी। इतिहास गवाह है जब-जब बिरयानी खिलायी गयी है तब-तब भारत को लेने के देने पड़े हैं। कंधार विमान अपहरण के बाद जिन तीन आतंकवादियों को छोड़ा गया था, आरोप यह था कि उन्हें कंधार छोड़ने जाते समय बिरयानी ही खिलायी गयी थी। बाद में छोड़े गये आतंकवादी मसूद अज़हर ने जैश-ए-मुहम्मद नाम का आतंकी संगठन खड़ा किया और भारत के लोगों की जान ली और आतंकवादी हमले किए।

‘अतिथि देवो भव’ की भारत की परंपरा है। यानी भारत अपने मेहमानों को देवता का दर्जा देता है और उसी तरह से उसका आदर-सत्कार करने की सीख हमारी परंपरा और संस्कृति देती है। मोदी ने महाबलीपुरम में इस भारतीय परंपरा का निर्वाह बख़ूबी किया। शी को भारत के प्राचीन मंदिरों की सैर करायी गयी और यह बताने का प्रयास किया गया कि भारत और चीन के संबंध सदियों पुराने हैं। भारत और चीन के बीच सांस्कृतिक रिश्ते इसलाम के जन्म से पहले के हैं। तक़रीबन 275 ईस्वी में ही दोनों देशों के राजाओं के बीच राजनयिक आदान-प्रदान के प्रमाण इतिहास में उपलब्ध हैं। फाह्यान और ह्वेन सांग की भारत यात्रा का वर्णन भी मिलता है और भारत के बारे में उनके विचार भी पढ़ने को मिलते हैं।

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1947 में भारत आज़ाद हुआ और 1949 में चीन में माओ त्से तुंग की अगुवाई में कम्युनिस्ट पार्टी ने नेशनलिस्ट पार्टी को हरा कर वामपंथी क्रांति का आग़ाज़ किया और कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही पूरे चीन पर लाद दी। आज भी वहाँ लोकतंत्र नहीं है। पहले प्रधानमंत्री नेहरू वामपंथ से प्रभावित थे और यह कहा जाता है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का वीटो पावर के साथ स्थाई सदस्य बनने में भारत ने मदद की थी। ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा बुलंद होता था पर इसी चीन ने 1962 में भारत की पीठ पर छुरा घोंपा! 1967 में भी भारतीय सेना के जवानों की जान लेने में वह नहीं हिचकिचाया। नाथू ला और चो ला के इलाक़े आज भी चीनी सैनिकों के निर्मम व्यवहार के गवाह हैं। आज वही चीन कश्मीर के मसले पर पूरी ताक़त के साथ भारत के दुश्मन नंबर एक देश पाकिस्तान का सबसे मज़बूत दोस्त बना हुआ है। ऐसे में कहीं एक बार फिर बिरयानी भारत को महँगी न पड़ जाए!

भारत में ‘राष्ट्रवादी’ ताक़तें, ‘राष्ट्रवादी’ मीडिया और ‘राष्ट्रवादी’ संपादक/एंकर/विशेषज्ञ मोदी की हर अदा पर आह्लादित रहते हैं। चाहे वह ‘हाउडी मोदी’ का कार्यक्रम हो या फिर महाबलीपुरम में तमिल लुंगी में शी से मुलाक़ात, यह तबक़ा सम्मोहित हो विवेचना करने को तैयार नहीं होता। उसकी दिलचस्पी इसमें ज़्यादा रहती है कि ‘गो बैक मोदी’ अगर ट्रेंड कर रहा है तो यह बताये कि इसके पीछे कितने कांग्रेसियों, लेफ्टिस्टों और पाकिस्तान का हाथ है।

ऐसे में यह सवाल ये ‘राष्ट्रवादी’ नहीं पूछेंगे कि शी ने भारत आने से पहले इमरान ख़ान से मुलाक़ात के बाद यह कह कर क्यों भारत को ह्युमिलिएट करने का काम किया कि चीन ‘पाकिस्तान के कोर मुद्दों पर उसके साथ पूरी शिद्दत से खड़ा है’।

क्या लुंगी से इतर इस बात की पड़ताल नहीं होनी चाहिए कि भारत के प्रधानमंत्री से मिलने से दो दिन पहले इस बयान का क्या अर्थ है और क्या यह भारत जैसे गौरवशाली देश का अपमान नहीं है? क्या यह संभव है कि यात्रा के दो दिन पहले तक चीन की सरकार यह कंफर्म नहीं कर रही थी कि शी वाक़ई में भारत आ रहे हैं? क्या यह बर्ताव किसी दोस्त देश का है जिसे हम तमिल अंदाज़ में बने बेहतरीन लाब्स्टर खिला रहे हैं?

क्या ऐसे बनेंगे विश्वगुरु?

दोनों नेताओं के बीच बैठक ख़त्म हो गयी। कहा गया कि पाँच घंटे की वन-टू-वन मीटिंग में मोदी और शी ने अपने हृदय के सारे दरवाज़े खोल दिये। सारे गिले-शिकवे दूर कर लिए गए। देश के विदेश सचिव इस बात पर ख़ुश हो सकते हैं कि इन मुलाक़ातों में कश्मीर का मसला नहीं उठा। और देश के औपनिवेशिक मानसिकता और हीन भावना से ग्रस्त टीवी प्रस्तोता इस बात पर झूम रहे हैं कि देखिए मोदी जी का जादू कि शी ने मीटिंग में नियत समय से ज़्यादा वक़्त मोदी जी के साथ बिताया। जब हम ये बातें कहते हैं तो ये भूल जाते हैं कि इसमें यह भाव अंतर्निहित है कि चीन और हमारे बीच बराबरी का रिश्ता नहीं है। और अगर ‘साहब बहादुर’ शी जिनपिंग ने अतिरिक्त समय मोदी जी को दिया तो एक राष्ट्र के नाते हम उनके शुक्रगुज़ार हैं। विश्व गुरु बनने का सपना देख रहे देश को यह शोभा नहीं देता।

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हक़ीक़त तो यह है कि शी-मोदी मुलाक़ात का ‘ऑप्टिक्स’ सही नहीं था। शुरू से ऐसा लग रहा था कि भारत बेताब है चीन के राष्ट्रपति का स्वागत करने के लिए। भारत झुक रहा है। पहली बात हमें समझनी चाहिये कि भारत यात्रा से पहले इमरान ख़ान से मिलना ही भारत के लिए तगड़ा संदेश था। यह मुलाक़ात शांत भी रह सकती थी पर इसके बाद यह बयान आना कि ‘पाकिस्तान और चीन के रिश्ते चट्टान की तरह अटूट हैं और वह उसके कोर मुद्दों पर उसके साथ है’, क्या कहता है? पाँच अगस्त के बाद से पाकिस्तान का सबसे बड़ा कोर मुद्दा कश्मीर है। यानी चीन कश्मीर पर पाकिस्तान के स्टैंड से पूरी तरह से सहमत है।
‘राष्ट्रवादी’ यह क्यों भूल जाते हैं कि अनुच्छेद 370 में बदलाव के बाद चीन ही कश्मीर के मसले को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की अनौपचारिक बैठक में ले गया था। क़रीब पचास साल बाद कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र में चर्चा हुई। क्या यह भारत के अंदरूनी मामले में चीन की खुली दखल नहीं थी?

क्या चीन ने भारत के दुश्मन नंबर एक देश पाकिस्तान की मदद नहीं की थी? ज़्यादा दूर नहीं, इसी हफ़्ते क्या चीन ने यह नहीं कहा था- ‘कश्मीर मसले का हल दोनों देशों को आपस में मिलकर निकालना चाहिये और यह बातचीत संयुक्त राष्ट्र के चार्टर और सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों की पृष्ठभूमि में होनी चाहिए।’ इस बयान का मतलब क्या हम समझते हैं? क्या चीन इतना नादान है कि वह यह नहीं जानता कि संयुक्त राष्ट्र की पृष्ठभूमि में हल निकालने का भाव क्या है?

अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते हैं। अगस्त की ही बात है। चीन ने भारत को धमकी दी थी कि अगर अमेरिका के दबाव में आकर भारत में 5जी लॉन्च करने के लिए उसने चीन की व्हाबे कंपनी का बहिष्कार किया तो चीन ‘रिवर्स सैंक्शन’ यानी उलटा आर्थिक प्रतिबंध भारत पर लगाएगा। ख़बर सूत्रों के हवाले से अगस्त महीने में न्यूज़ एजेंसी रायटर ने दी थी। अगस्त के महीने में ही चीन ने दुनिया में अपनी शांतिप्रियता के लिए जाने जाने वाले भारत देश पर तोहमत लगाई थी - ‘भारत एकतरफ़ा घरेलू क़ानून में बदलाव कर चीन की भौगोलिक संप्रभुता को कमज़ोर कर रहा है।’ चीन का यह बयान जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बाँटने के संदर्भ में था। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और उस पर टिप्पणी का अधिकार चीन को नहीं है। यह वही चीन है जिसने भारत के 35000 वर्ग किमी पर अवैध क़ब्ज़ा कर रखा है।

विचार से ख़ास

चीन किसके साथ?

हमारे देश के ‘राष्ट्रवादियों’ को शायद यह याद दिलाना पड़ेगा कि वह कौन-सा देश था जो आतंकवादी संगठन जैश-ए-मुहम्मद के मुखिया मसूद अज़हर को संयुक्त राष्ट्र में आतंकवादी घोषित करने पर लंबे समय तक अड़ंगा लगाता रहा? आख़िर चीन को मसूद अज़हर से इतनी मुहब्बत क्यों थी? जबकि वह ख़ुद अपने यहाँ जेहादी आतंकवाद झेलने का रोना रोता रहता है। यह मुहब्बत मसूद के साथ नहीं थी। यह मुहब्बत पाकिस्तान के साथ थी। वही पाकिस्तान जो भारत के टुकड़े-टुकड़े करने की साज़िश रचता रहता है। हमारी संसद पर हमला करवाता है, 26/11 जैसा ख़ौफ़नाक आतंकी हमले को अंजाम देता है, कश्मीर को आग में झोंकता रहता है। 

चीन एक अत्यंत शक्तिशाली मुल्क है। उसकी अर्थव्यवस्था भारत का लगभग पाँच गुना है। पाकिस्तान दिवालिया होने के कगार पर है। आतंकवाद उसकी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा है।

चीन अगर भारत का दोस्त होता तो एक पल में पाकिस्तान की बाँहें मरोड़ कर संदेश दे देता कि भारत की तरफ़ आँख उठाकर मत देखना। पर वह न केवल पाकिस्तान को शह देता है बल्कि ख़ुद हमें आँखें दिखाता है।

डोकलाम की घटना को बीते अभी दो साल ही हुए हैं। राष्ट्रवादी क्यों भूलते हैं कि यह तब हुआ था जब मोदी जी शी जिनपिंग को सबारमती के तट पर झूला झुला रहे थे। अरुणाचल प्रदेश को आज भी वह भारत का हिस्सा नहीं मानता। लिहाज़ा उसे बिरयानी खिलाकर ‘अतिथि देवो भव’ का धर्म पूरा ज़रूर कर लें, लेकिन अगर ‘राष्ट्रवादी’ शी जिनपिंग और मोदी की मीटिंग पर इतरायेंगे तो मैं तो यही कहूँगा कि ‘हे ईश्वर इन्हें माफ़ करना, ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं।’ या तो ये नासमझ हैं या फिर ये असली ‘राष्ट्रवादी’ नहीं हैं।

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