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मुरादाबाद जैसा पागलपन क्यों सामने आ रहा है?

वे मुसलमान हैं। इस समय सबसे सॉफ्ट टारगेट। उन्हें पागलों की तरह व्यवहार करने पर मजबूर करना होगा तभी उनके दमन को जायज़ ठहराया जा सकता है। जमात-जमात का शोर मचा कर आख़िरकार मीडिया ने ऐसी स्थिति बना दी कि लॉकडाउन के कठिन समय में भी मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार शुरू हो चुका है। 
इक़बाल रिज़वी

लोग आपको मुसीबत से बचाने आएँ और आप उत्तेजित हो जाएँ, उन पर हमला कर दें, उन पर पथराव कर दें। इसे किस श्रेणी में रखा जाए कि आप बदतमीज़ हैं, जाहिल हैं। नहीं ऐसा नहीं है। ऐसा काम बदतमीज़ और जाहिल नहीं करते हैं, ऐसा काम सिर्फ़ पागल आदमी कर सकता है। मुरादाबाद में यही हुआ। वहाँ के एक मोहल्ले में स्वास्थ्य कर्मियों और पुलिसवालों पर कुछ मुसलमानों ने हमला कर दिया। कुछ ही समय पहले इंदौर में भी ऐसी ही घटना हुई थी। तब भी इसे मुसलमानों को एक जाहिल वर्ग की हरकत मान कर निन्दा की गयी थी।

लेकिन इन घटनाओं को जाहिलों की हरकत कह कर मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल बनाना एक और बड़ी खौफ़नाक स्थिति है। दरअसल, एक दो व्यक्तियों को नहीं बल्कि करोड़ों लोगों के समुदाय को पागल क़रार दे कर उनके मानमर्दन की बड़ी साज़िश है यह। बचपन में हम सब या तो इस स्थिति का शिकार हुए हैं या फिर शिकार किया है। क्लास में किसी एक छात्र को परेशान करना और फिर उसकी ही शिकायत कर टीचर से उसकी डाँट पड़वाने की घटना लगभग सबको याद होनी चाहिए। लगातार इन हरकतों से परेशान हो कर या तो वो छात्र मार पीट पर उतर आता था। या फिर उत्पाती छात्रों का संरक्षण हासिल करने की जुगत करता था। ठीक यही हो रहा है भारतीय मुसलमानों के साथ।

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मुसलिम वर्ग या हिंदुओं के कमज़ोर वर्ग में प्रशासन और सरकार के प्रति जो अविश्वास गहरा रहा है, उस पर गंभीरता से बात करने की ज़रूरत है। इंदौर और मुरादाबाद की घटनाओं के क्रम में मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वाले तत्व इस सच्चाई को योजनाबद्ध तरीक़े से छिपाते रहे हैं कि कोरोना की जाँच या लॉकडाउन के मुद्दे पर कितने स्थानों पर हिंदुओं ने पुलिस वालों पर हमला किया और कुछ स्थानों पर पुलिस कर्मियों को बुरी तरह ज़ख्मी भी किया गया। ऐसी घटनाओं की निन्दा कितने हिंदुओं ने इस आधार पर की कि यह स्थानीय हिंदुओं की जहालत थी। लेकिन सोशल मीडिया की अदालत में सवालों की बौछार मुसलमानों पर है। 

मुसलिम विरोध का तीखा स्वर लगातार सोशल मीडिया के हर मंच पर यह सवाल पूछ रहा है कि मुसलिम समुदाय मुरादाबाद और इंदौर जैसी घटनाओं की खुल कर निन्दा क्यों नहीं करता। हालाँकि अभी यह तय नहीं हुआ कि मुसलमानों की आबादी के अनुपात में उनके मुरादाबाद या इंदौर जैसी घटनाओं के कितने लाख ट्वीट या कितनी हज़ार निन्दा वाली फ़ेसबुक सामने आई हैं जिससे अंदाज़ लग सके कि मुसलमान उतने जाहिल नहीं हैं जितना कि उन्हें समझा जा रहा है।

एक सुनियोजित झूठ को इतनी बार पूछा जा रहा है कि मुसलमान बैकफुट पर आ गए हैं। सच्चाई तो यह है कि यह सब एक रणनीति के तहत हो रहा है या किया जा रहा है।
मुसलमानों की हालत ऐसी बना दी गयी है कि उसे हर चीज के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है, उसका सरेआम जुलूस निकाला जाता है, एक ऐसी तसवीर गढ़ी जाती है जिससे लगता है कि यह ऐसी क़ौम है जो सुधर ही नहीं सकती और हमेशा ग़लत काम ही करती रहती है।

निज़ामुद्दीन में तब्लीग़ी जमात के मुद्दे पर मुसलमानों को सुनियोजित ढंग से बेहद खौफज़दा कर दिया गया है। एक बार बस शिकायत करने की देर है कि अमुक मुसलिम परिवार का संबंध जमात से है बस फिर बाक़ी कार्रवाई प्रशासन अंजाम दे देता है। जमात की आड़ में मुसलमानों का बहुत बुरा हाल किया जा रहा है। और इससे प्रशासन के प्रति जो अविश्वास का भाव मुसलमानों में बढ़ रहा है उसने हालत यह कर दी है कि मुरादाबाद जैसा पागलपन सामने आ रहा है।

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लेकिन वे मुसलमान हैं। इस समय सबसे सॉफ्ट टारगेट। उन्हें पागलों की तरह व्यवहार करने पर मजबूर करना होगा तभी उनके दमन को जायज़ ठहराया जा सकता है। जमात-जमात का शोर मचा कर आख़िरकार मीडिया ने ऐसी स्थिति बना दी कि लॉकडाउन के कठिन समय में भी मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार शुरू हो चुका है। अब तो भारतीय सामाजिक ताने-बाने के भविष्य को लेकर चिंतित रहने वाले हिंदुओं को भी हालात से मुक़ाबला करने में कठिनाई हो रही है।

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इक़बाल रिज़वी

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