loader

लाल क़िले पर रुदन? निजी कंपनी को इसे सौंपने पर क्यों नहीं!

केंद्र सरकार के बनाए तीन नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ जारी किसान आंदोलन में दिल्ली का ऐतिहासिक लाल क़िला भी चर्चा में आ गया है। कृषि सुधार के नाम पर बनाए गए तीनों क़ानूनों को अपने लिए 'डेथ वारंट’ मान रहे किसानों की ट्रैक्टर रैली में 26 जनवरी को कुछ जगह उपद्रव होने की ख़बरों के बीच सबसे ज़्यादा फोकस इस बात पर रहा कि कुछ लोगों ने लाल क़िले पर तिरंगे के बजाय दूसरा झंडा फहरा दिया

इस घटना से मीडिया के उस बड़े हिस्से की बाँछें खिल गईं जो इस किसान आंदोलन को शुरू दिन से ही सरकार के सुर में सुर मिलाकर बदनाम करने में जुटा हुआ है। जो लोग मुग़ल शासकों के बनाए लाल क़िले के प्रति हिकारत का भाव रखते आए हैं, उनके लिए भी इस घटना से यह ऐतिहासिक धरोहर अचानक राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बन गई।

हालाँकि यह सही है कि लाल क़िले पर जो कुछ हुआ, वह नहीं होना चाहिए था। 

ताज़ा ख़बरें

यह ज़ाहिर होने में भी ज़्यादा समय नहीं लगा कि यह झंडे फहराने वाले कोई और नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी से जुड़ा पंजाबी फ़िल्म अभिनेता दीप सिद्धू और गैंगस्टर से नेता बना लक्खा सिदाना है। इसलिये इस पूरे घटनाक्रम को सरकार की साज़िश भी माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि किसान आंदोलन को पटरी से उतारने तथा उसे बदनाम करने के लिए सरकार की शह पर ही इन लोगों ने लाल क़िले पर यह नाटक रचा था।

हो सकता है कि ऐसा नहीं भी हुआ हो, तो भी सवाल है कि जिस लाल क़िले को सरकार तीन साल पहले ही एक औद्योगिक घराने को लीज पर दे चुकी है तो उसको लेकर 'राष्ट्रीय गौरव’ जैसी बातों का राग अलापने का क्या मतलब है?

यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि 'देश नहीं बिकने दूँगा, देश नहीं झुकने दूँगा’ का राग आलापते हुए सत्ता में आए नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपनी 'एडॉप्ट ए हैरिटेज’ योजना के तहत 17वीं सदी में पाँचवें मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के बनाए लाल क़िले को तीन साल पहले यानी जनवरी 2018 में रख-रखाव के नाम पर 'डालमिया भारत समूह’ नामक उद्योग घराने को 25 करोड़ रुपए में सौंप दिया है। 

'डालमिया भारत समूह’ ने लाल क़िले के साथ ही आंध्र प्रदेश के कडप्पा ज़िले में स्थित गांदीकोटा क़िले को भी पाँच साल के लिए सरकार से लीज पर लिया है।

ज़ाहिर है कि देश के बेशक़ीमती संसाधनों- जल, जंगल, ज़मीन के साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, सेना, रेलवे, एयरलाइंस, संचार आदि सेवाएँ तथा अन्य बड़े-बड़े सार्वजनिक उपक्रमों को मुनाफाखोर उद्योग घरानों के हवाले करने के साथ ही सरकार देश के लिए ऐतिहासिक महत्व की विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को उनके रख-रखाव के नाम पर कारपोरेट घरानों के हवाले कर रही है, वह भी उनसे औपचारिक तौर पर कुछ पैसा लिए बगैर ही। सवाल है कि जो ऐतिहासिक धरोहरें सरकार के लिए सफेद हाथी न होकर दुधारू गाय की तरह आमदनी का ज़रिया बनी हुई हैं, उन्हें सरकार निजी हाथों में सौंप कर अपने नाकारा होने का इकबालिया बयान क्यों पेश कर रही है?

सवाल यह भी है कि आख़िर सरकार ऐसा क्यों कर रही है और किसे फायदा पहुँचाने के लिए कर रही है? सरकार वित्तीय रूप से क्या इतनी कमज़ोर हो गई है कि वह देश की ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजने-सँवारने की स्थिति में नहीं है?

हक़ीक़त तो यह है कि सरकार ने जिन ऐतिहासिक धरोहरों को निजी हाथों में सौंपने की योजना बनाई है, वे लगभग सभी धरोहरें इतनी कमाऊ है कि उनकी आमदनी से न सिर्फ़ उनके रख-रखाव का ख़र्च निकल जाता है बल्कि सरकार के खजाने में भी ख़ासी आवक होती है। मिसाल के तौर पर लाल क़िले से होने वाली आमदनी को ही लें। दो साल पहले तक लाल क़िले से सरकार को 6.15 करोड़ रुपए की आमदनी हो रही है। इस हिसाब से इसे गोद लेने वाला डालमिया समूह बगैर शुल्क बढ़ाए ही इससे पाँच साल में क़रीब 30.75 करोड़ रुपए अर्जित करेगा और सरकार के साथ हुए क़रार के मुताबिक़ उसे पाँच साल में इसे ख़र्च करना है महज 25 करोड़ रुपए।

nishan sahib flag at red fort during farmers protest controversy - Satya Hindi
स्वतंत्रता दिवस पर लाल क़िले की तसवीर। फ़ाइल फ़ोटो

सरकार रख-रखाव भी नहीं कर सकती?

हालाँकि सरकार का दावा है कि लाल क़िला लीज पर नहीं दिया गया है, बल्कि डालमिया समूह ने कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के तहत इसे रख-रखाव के लिए गोद लिया है। लेकिन फिर भी सवाल उठता है कि जिस इमारत को आप देश की सबसे बड़ी ऐतिहासिक धरोहर, आज़ादी के संघर्ष का स्मारक, राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक आदि बता रहे हैं, उसका रख-रखाव ख़ुद नहीं कर सकते हैं तो फिर उसके सम्मान की इतनी चिंता करने का क्या मतलब है? 

देश के संविधान ने अपने अनुच्छेद 49 में देश के ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों के रख-रखाव का ज़िम्मा सरकार को सौंपा है। संविधान के इस नीति-निर्देशक सिद्धांत का पालन पहले की सभी सरकारें करती आ रही थीं लेकिन मौजूदा सरकार ने इस संवैधानिक निर्देश को नज़रअंदाज़ करते हुए ऐतिहासिक महत्व की लगभग 100 विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को निजी हाथों में यानी कारोबारी समूहों को सौंपने का फ़ैसला किया है। इस सिलसिले में देश के स्वाधीनता संग्राम के दौरान कई ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा दिल्ली का लाल क़िला और दुनियाभर के आकर्षण का केंद्र ताजमहल, विश्व प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर, हिमाचल प्रदेश का कांगड़ा फोर्ट, मुंबई की बौद्ध कान्हेरी गुफाएँ आदि ऐतिहासिक धरोहरों को अलग-अलग उद्योग समूहों के हवाले कर दिया गया है।

जब सरकार कहती है कि उसने इन सभी धरोहरों को कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत निजी हाथों में सौंपा है तो पूछा जा सकता है कि कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी सिर्फ़ इन धरोहरों को लेकर ही क्यों?

सरकार देश के कॉरपोरेट घरानों में सामाजिक उत्तरदायित्व का बोध देश के उन असंख्य सरकारी अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों के प्रति क्यों नहीं पैदा करती जिनकी बदहाली किसी से छिपी नहीं है? क्यों नहीं देश के तमाम बड़े उद्योग समूह इन अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों के प्रति अपना सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने के लिए आगे आते?

बहरहाल, लाल क़िले के संदर्भ में सवाल यह भी है कि क्या लाल क़िले पर तिरंगे के अलावा कोई अन्य झंडा फहराने को किसी क़ानून के तहत निषेध किया गया है? ग़ौरतलब है कि लाल क़िला न तो कोई सरकारी और न ही संवैधानिक इमारत है। यह एक ऐतिहासिक धरोहर है, जहाँ स्वाधीनता दिवस पर तिरंगा फहराया जाता है और प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करते हैं।

विचार से ख़ास

मीडिया के भी जो लोग वहाँ 26 जनवरी को हुई घटना को देशद्रोह जैसा महान अपराध बता रहे हैं, उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि लाल क़िला अब एक निजी कंपनी के हवाले है, जो पैसा कमाने के लिए वहाँ तमाम तरह की व्यावसायिक गतिविधियाँ चला रही है। उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि 1980 में इसी लाल क़िले के प्रांगण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक विशाल कार्यक्रम हो चुका है। बीजेपी ने भी 1988 में एक प्रदर्शन लाल क़िले के मैदान में उसी जगह पर किया था, जहाँ 26 जनवरी को किसान प्रदर्शनकारियों का एक समूह पहुँचा था। मदनलाल खुराना की अगुवाई में हुए उस प्रदर्शन में शामिल लोगों पर उस समय की डीसीपी किरण बेदी ने जम कर लाठियाँ चलवाई थीं। उस समय भी वैसे ही हालात बन गए थे, जैसे इस बार 26 जनवरी को बने।

वीडियो चर्चा में देखिए, लाल क़िले में किसानों के घुसने से क्या होगा असर?

इसी लाल क़िले को लेकर बीजेपी एक बार नहीं, कई बार चुनावों के दौरान देश भर में नारा लगा चुकी है, 'लाल क़िले पर कमल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान।’ 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान इसी लाल क़िले की प्रतिकृति वाले मंचों से नरेंद्र मोदी ने कई चुनावी रैलियों को संबोधित किया था।

यही नहीं, नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने के लिए 2018 में इसी लाल क़िले के प्रांगण में 'राष्ट्र रक्षा यज्ञ’ का आयोजन किया था। उसी लाल क़िले में हर साल रामलीला का आयोजन होता है। फिर अगर वहाँ निशान साहिब और किसान यूनियन का झंडा किसी ने लहरा दिया तो उस पर इतनी हायतौबा मचाने का क्या मतलब है?

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अनिल जैन

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें