आज सुबह-सुबह दो ऐसे बुजुर्ग साथियों के फोन आ गए, जिनकी आयु 80 और 90 के बीच है। उन्होंने कहा कि आप दुनिया के हर मसले पर लिख रहे हैं लेकिन हम बूढ़ों की दुर्दशा पर किसी का ध्यान ही नहीं है। मैं उनके बारे में सोचने लगा, इतने में ही अख़बारों का बंडल आ गया। उनमें कई मार्मिक ख़बरों पर नज़र गई लेकिन मुंबई की एक ख़बर ने मेरे मित्रों की बात पर मुहर लगा दी।
वह ख़बर यह है कि मुंबई के प्रसिद्ध मजदूर नेता दत्ता सामंत के बड़े भाई पुरुषोत्तम सामंत ने आत्महत्या कर ली। उनकी उम्र 92 वर्ष थी। वे भी मजदूर-नेता थे। उन्होंने ख़ुद ही बनाए फंदे पर लटकने से पहले अपना जो मृत्युनामा छोड़ा, उसमें साफ-साफ लिखा कि वे कोरोना-संकट से इतने त्रस्त हो गए हैं कि अपने जीवन का अंत कर रहे हैं।
केंद्र और राज्य सरकारें पीड़ितों की मदद कर रही हैं लेकिन वे वयोवृद्ध लोगों पर विशेष ध्यान दें, यह ज़रूरी है। कोरोना के सबसे ज्यादा शिकार इसी आयु वर्ग के लोग हो रहे हैं।
बुजुर्गों के इलाज की विशेष व्यवस्था होनी चाहिए। प्रचार-माध्यमों के द्वारा बताया जाना चाहिए कि अमुक मोहल्ले के बुजुर्ग को अमुक अस्पताल में ले जाया जाना चाहिए। अनेक शारीरिक क्षीणताओं के साथ-साथ उनका अकेलापन भी उन्हें खाए जा रहा है। क्या ही अच्छा हो कि वे भजन-संगीत सुनें, महापुरुषों की रोचक जीवनियां पढ़ें, घर में बच्चे हों तो उनके साथ घरेलू खेल खेलें।
बुजुर्गों को सुबह-सुबह बगीचों में सैर करने, हल्के व्यायाम और आसन करने, शारीरिक दूरी का ध्यान रखते हुए लोगों से मिलने-जुलने और बातों से दिल हल्का करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। सरकारें इसका उलटा कर रही हैं। सरकारें उन्हें कुछ गुजारा-भत्ता भी दें तो अच्छा रहे।
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