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विभाजन विभीषिका : जिन्ना को किसने दिया था पाकिस्तान बनाने का विचार?

भारत-पाक बँटवारे के लिए कौन ज़िम्मेदार था? हम स्वतंत्रता के 75वें साल में प्रवेश कर रहे हैं। इस मौके पर सत्य हिन्दी की ख़ास पेशकश।  इस कड़ी में पढ़िए, पहली बार पाकिस्तान की माँग जिन्ना ने नहीं उठाई थी।
नीरेंद्र नागर

भारत के राजकाज में भारतीयों की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए ब्रिटेन ने 1927 में सात ब्रिटिश सांसदों का एक दल बनाया जिसकी अध्यक्षता जॉन साइमन कर रहे थे और जिसकी वजह से इस दल का नाम साइमन कमिशन पड़ा। चूँकि इस कमिशन में कोई भारतीय नहीं था, इसलिए कांग्रेस और मुसलिम लीग के जिन्ना-नीत गुट ने उसका विरोध किया। तब ब्रिटेन के भारत मंत्री ने इन नेताओं को चुनौती दी कि यदि वे सक्षम हैं तो ख़ुद ही ऐसा संविधान तैयार करके पेश करें जिससे भारत के सारे लोग मोटे तौर पर सहमत हों। कांग्रेस ने यह चुनौती स्वीकार की और मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी एक सर्वदलीय समिति ने भारत के भावी संविधान का एक प्रारूप तैयार किया जिसे नेहरू रिपोर्ट कहा जाता है। इस दल में जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस के अलावा लिबरल पार्टी के नेता तेजबहादुर सप्रू भी थे जो आंदोलनों के बजाय ब्रिटिश हुकूमत से बातचीत करके हल निकालने के हामी थे।

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उधर मुसलिम लीग के एक फ़ैक्शन की तरफ़ से जिन्ना ने 14 बिंदुओं की एक सूची बनाई जिसके बारे में हम पिछली कड़ी में विस्तार से बात कर चुके हैं। दोनों प्रस्तावों में ख़ास-ख़ास अंतर क्या थे, इसपर एक बार फिर बात कर लेते हैं।

नेहरू रिपोर्ट में भावी भारतीय स्वरूप में केंद्र को ज़्यादा शक्तिशाली बनाने की बात थी जबकि जिन्ना के प्रस्तावों में प्रांतों को ज़्यादा शक्ति देने पर ज़ोर था। नेहरू रिपोर्ट काफ़ी हद तक एकात्मक (यूनिटरी) शासन की वकालत करती नज़र आती थी जबकि जिन्ना की रिपोर्ट संघीय शासन की तरफ़ झुकी हुई थी।

नेहरू रिपोर्ट में पृथक निर्वाचक मंडलों की बात नहीं थी जबकि जिन्ना न केवल पृथक निर्वाचक मंडलों की माँग कर रहे थे बल्कि मुसलमानों के लिए केंद्र और सभी प्रांतों में (चाहे वहाँ मुसलमानों का अनुपात कितना भी हो), एक-तिहाई प्रतिनिधित्व की माँग कर रहे थे। नेहरू रिपोर्ट उन प्रांतों में अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित सीटें रखने के लिए सहमत थी जहाँ उनकी आबादी 10 प्रतिशत से ज़्यादा हो लेकिन यह आरक्षण आबादी में अनुपात के आधार पर होना था। यानी किसी राज्य में यदि अल्पसंख्यकों की आबादी 10 प्रतिशत हो तो वहाँ 10 प्रतिशत सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित रखी जा सकती थीं।

नेहरू रिपोर्ट में राज्य को धर्मनिरपेक्ष रखने का प्रस्ताव था यानी राज्य किसी ख़ास धर्म को बढ़ावा या समर्थन नहीं देगा। जिन्ना के प्रस्तावों में भी इसका कोई विरोध नहीं था लेकिन विभिन्न धर्मावलंबियों को अपनी आस्था के अनुसार अपने धर्म के पालन-प्रचार-प्रसार की गारंटी की माँग थी।

नेहरू रिपोर्ट में किसी ख़ास भाषा को वरीयता देने की बात नहीं थी लेकिन यह निश्चित किया गया था संघ के कामकाज में किसी भारतीय भाषा का ही इस्तेमाल किया जाएगा। साथ ही अंग्रेज़ी को भी जारी रखने का प्रस्ताव था। जिन्ना के प्रस्तावों में इसपर अलग से कुछ नहीं था सिवाय इसके कि अल्पसंख्यकों की भाषा के विकास और प्रसार के मौक़े हों और उसके लिए उचित अनुदान मिले।

साइमन कमिशन की रिपोर्ट 1930 में इन दोनों के बाद आई। उसमें कुछ बातें ऐसी थीं जो नेहरू रिपोर्ट से मेल खाती थीं और कुछ बातें जिन्ना के प्रस्तावों से मिलती-जुलती थीं और कुछ उसकी अपनी सिफ़ारिशें थीं। साइमन कमिशन की रिपोर्ट में जिन्ना द्वारा प्रस्तावित पृथक निर्वाचक मंडलों को बरक़रार रखा गया था लेकिन उनकी एक-तिहाई वाली शर्त नहीं मानी गई थी।

गोलमेज सम्मेलन

चूँकि भारत के भावी स्वरूप और उसके संविधान तथा जनभागीदारी के तौर-तरीक़ों पर कोई सर्वसम्मति नहीं बन पाई, इसलिए नेहरू और साइमन रिपोर्टों के आने के बाद आगे बात करने के लिए लंदन में तीन गोलमेज सम्मेलन हुए। इन सम्मेलनों में देश के हर वर्ग के प्रतिनिधियों को बुलाया गया। इसमें तमाम राजनीतिक दल थे, राजा और नवाब थे, व्यापारियों और श्रमिकों के प्रतिनिधि थे, धार्मिक और दलित वर्गों के प्रतिनिधि थे, महिलाओं और विद्यार्थियों के प्रतिनिधि थे। उधर ब्रिटेन की तरफ़ से उसके सभी प्रमुख दलों के सांसद थे।

लेकिन एक बड़ा दल नहीं था इसमें। वह थी कांग्रेस। पहले गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस ने भाग नहीं लिया, दूसरे में लिया और तीसरे में फिर नहीं लिया। पहले और दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद और बातों के अलावा यह तय हुआ कि भारत का एक परिसंघ बनाया जाए जिसमें मौजूदा प्रांतों के अलावा वे रियासतें भी शामिल हों जिनके शासक इस परिसंघ में शामिल होना चाहते हैं। यह बात कांग्रेस के अनुकूल थी। लेकिन प्रांतों की विधानसभाएँ और केंद्रीय विधानमंडल चुनने के लिए जो व्यवस्था की जा रही थी, उससे कांग्रेस ख़ुश नहीं थी।

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कम्यूनल अवॉर्ड की घोषणा

दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद और तीसरे सम्मेलन से पहले ही ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने एक कम्यूनल अवॉर्ड की घोषणा कर दी जिसके अनुसार भावी चुनावों में सभी धर्मों और जातीय वर्गों को अलग-अलग आरक्षण मिलना था। ऊँची जातियों, अनुसूचित जातियों, मुसलमानों, बौद्धों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, आँग्ल-भारतीयों, औरतों, व्यापारियों, ज़मींदारों, यहाँ तक कि महाराष्ट्र में मराठों तक के लिए पृथक निर्वाचक मंडलों की व्यवस्था थी।

मुसलिम लीग और जिन्ना इस अवॉर्ड से ख़ुश थे क्योंकि उनकी माँग काफ़ी हद तक मान ली गई थी लेकिन कांग्रेस और ख़ासकर गाँधीजी को लगा कि दलितों और अस्पृश्यों को अल्पसंख्यक घोषित किए जाने से वे हिंदुओं से अलग हो जाएँगे। अवॉर्ड का विरोध करते हुए उन्होंने यरवडा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। कांग्रेस के नेता दौड़े-दौड़े आंबेडकर के पास पहुँचे और इन नेताओं, जिनमें वल्लभभाई पटेल भी शामिल थे, और आंबेडकर के बीच यह सहमति हुई कि दलितों को प्रतिनिधित्व देने के लिए केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं में सीटें आरक्षित होंगी। इस समझौते को पुणे समझौता कहा जाता है।

कम्यूनल अवॉर्ड की घोषणा के बाद नवंबर-दिसंबर 1932 में हुआ तीसरा गोलमेज सम्मेलन बिल्कुल फ़्लॉप रहा। कांग्रेस सहित बड़े दलों ने इसका बहिष्कार किया, लेबर के प्रतिनिधि भी नहीं आए। लेकिन इसके बाद एक ऐसी बात हुई जिसका पाकिस्तान के बनने में, ख़ासकर उसके नामकरण में बड़ा हाथ है।

तीसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद भारतीय संवैधानिक सुधारों के लिए एक संसदीय समिति बनी थी जिसमें ब्रिटेन और भारत दोनों के प्रतिनिधि थे। इन प्रतिनिधियों को 1933 में एक पर्चा मिला जिसका शीर्षक था - अभी नहीं तो कभी नहीं - क्या हम जीवित बचेंगे या हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएँगे? (Now or Never - Are we to live or perish forever?)। यह पर्चा चौधरी रहमत अली ने लिखा था जो उन दिनों लंदन में क़ानून की पढ़ाई कर रहे थे। उन्होंने उसपर तीन अन्य लोगों के भी हस्ताक्षर ले लिए थे ताकि यह न लगे कि ये बातें केवल एक अकेले व्यक्ति की दिमाग़ी उपज है। पाकिस्तान (उस समय पाकस्तान) शब्द का पहली बार इसी पर्चे में इस्तेमाल हुआ था। पर्चे के साथ एक चिट्ठी भी थी जिसमें लिखा था- 

‘भारत के इतिहास की इस पावन घड़ी में, जब ब्रिटेन और भारत के राजनेता इस देश के संघीय संविधान की बुनियाद रखने जा रहे हैं, हम यह अपील कर रहे हैं, हमारी साझा विरासत के नाम पर, हमारे 3 करोड़ मुसलिम भाइयों की तरफ़ से जो पाकस्तान में रहते हैं - (पाकस्तान से) हमारा मतलब है भारत की पाँच उत्तरी इकाइयाँ यानी पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (अफ़ग़ान प्रांत), कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान। (ध्यान दीजिए, पर्चे में जो नाम दिया गया था, वह पाकस्तान था, पाकिस्तान नहीं)।’

स्वतंत्र देश की माँग

पर्चे में माँग की गई थी कि इन पाँच प्रांतों को भारत के प्रस्तावित परिसंघ से अलग एक स्वतंत्र देश बनाया जाए क्योंकि…

‘हमारे धर्म और हमारी संस्कृति, हमारे इतिहास और हमारी परंपरा, हमारी सामाजिक संहिता और आर्थिक व्यवस्था, हमारे विरासत, उत्तराधिकार और विवाह से जुड़े क़ानून शेष भारत में रहने वाले अधिकतर लोगों से बुनियादी तौर पर अलग हैं। जिन आदर्शों के लिए हम अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए प्रेरित होते हैं, वे उन आदर्शों से मूलतः अलग हैं जिनके लिए हिंदू अपना सबकुछ न्यौछावर करने को तत्पर होते हैं। ये अंतर केवल ऊपरी और कुछ आधारभूत सिद्धांतों तक ही सीमित नही हैं। ये अंतर बहुत गहराई तक छाए हुए हैं और हमारी ज़िंदगी के छोटे-से-छोटे बिंदु तक को प्रभावित करते हैं। हम न तो एकसाथ खाते हैं, न आपस में ब्याह-शादी करते हैं। हमारे क़ौमी रिवाज़ और कैलंडर, यहाँ तक कि हमारा खानपान और पहनावा भी अलग है।’

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पाकिस्तान बनवाने का आंदोलन

रहमत अली का मानना था कि पहले और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने अखिल भारतीय परिसंघ बनाने के प्रस्ताव को स्वीकार करके एक अक्षम्य भूल और अविश्वसनीय धोखाधड़ी की है। उन्होंने माँग की कि इन पाँच प्रांतों के 3 करोड़ मुसलमानों के राष्ट्रीय स्वरूप को मान्यता देते हुए उनके लिए एक अलग संघीय संविधान की रचना की जाए।

इस पर्चे के प्रकाशन के बाद हिंदू प्रेस में इसकी और इसमें इस्तेमाल किए गए शब्द - पाकस्तान - की तीखी आलोचना हुई। इस तरह यह शब्द ज़ोरदार बहस का विषय बन गया और लोकप्रिय भी हो गया। बाद में इसका उच्चारण सुधारने के लिए इसमें इ (i) की मात्रा जोड़ी गई और उसके साथ ही पाकिस्तान बनवाने का आंदोलन शुरू हो गया जिसके अगुआ तब जिन्ना नहीं थे। जिन्ना 1930 के बाद से ही लंदन में रह रहे थे और संभवतः वहाँ की संसद से जुड़ने का प्रयास कर रहे थे। अगर जुड़ जाते तो शायद कभी भारत लौटकर नहीं आते।

लेकिन वे आए। कब आए, क्यों आए और किस तरह 1937 के चुनाव परिणामों में मुसलिम लीग की भीषण हार ने उनका रास्ता एकदम से बदल दिया, इसके बारे में हम जानेंगे अगली कड़ी में। 

रहमत अली को सज़ा

मगर जाने से पहले एक बात बताना यहाँ उचित होगा। पाकिस्तान को उसका नाम देने वाले रहमत अली को, जानते हैं, उनके इस योगदान का क्या इनाम मिला? 1948 में उनकी सारी संपत्ति ज़ब्त कर ली गई और उनको पाकिस्तान से निकाल दिया गया। 1951 में लंदन में उनका बहुत ही ग़रीबी की अवस्था में निधन हो गया। उनका गुनाह केवल इतना था कि वे ‘कटा-पिटा’ पाकिस्तान स्वीकार करने वाले जिन्ना से नाराज़ थे।

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नीरेंद्र नागर

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