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योगी-शाह से उम्मीद थी कि वे पुलिस का बेजा इस्तेमाल रोकेंगे लेकिन...

भारत के प्रधान न्यायाधीश ने हाल ही में कहा है कि पुलिस थाने मानव अधिकारों और गरिमा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं। एक अदालती सुनवाई में उन्होंने दुबारा कहा कि पुलिस और सीबीआई न्यायाधीशों की शिकायतों का जवाब नहीं देते हैं। यदि भारतीय न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के ऐसे अनुभव हैं तो आम नागरिकों के बारे में क्या कहा जा सकता है?

भारत के संविधान ने अपने नागरिकों से न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का वादा किया। इसने उन्हें व्यक्ति की गरिमा का भी आश्वासन दिया। संविधान की मूल आत्मा है नागरिकों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना ताकि वे भारत को उसकी वांछित ऊंचाइयों तक ले जाने के लिए सभी क्षेत्रों में कामयाबी हासिल कर सकें। 

लेकिन हक़ीक़त में स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जा रहा है और नागरिकों पर पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई किए जाने का खतरा लगातार बना रहता है।

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पुलिसिया जुल्म

पुलिस अत्याचारों का संकट देश के लिए कोई नई बात नहीं है। संविधान बनने के समय से ही नागरिकों को इससे बचाने के लिए बहस चल रही है। 15 सितंबर 1949 को, जब संविधान सभा ‘नागरिकों को पुलिस से कैसे बचाएं?’ पर चर्चा कर रही थी, एच.वी. कामथ ने अपना अनुभव निम्नलिखित शब्दों में साझा किया -

‘‘यह एक सर्वविदित तथ्य है कि पुलिस या अन्य अधिकारियों द्वारा लोगों को गिरफ्तार करते या हिरासत में लेते समय हमेशा उचित और निष्पक्ष उद्देश्य ही नहीं होते हैं। एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने प्रशासनिक क्षेत्र में एक जिले के प्रशासन में कुछ साल बिताए हैं, मैं खुद अच्छी तरह जानता हूं कि पुलिस कैसे लोगों को सुरक्षा या व्यवस्था से पूरी तरह से असंबद्ध कारणों से गिरफ्तार करती है और कभी-कभी सिर्फ पुराना हिसाब चुकाने या निजी प्रतिशोध के लिए।’’ 

डॉ. पी.एस. देशमुख ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मेरे मित्र पंडित ठाकुर दास भार्गव ने स्वीकार किया कि यह निरंकुशता हमारे खून में है और इसके संकेत हर जगह मिल रहे हैं। गोलीबारी के मामले हुए हैं, लाठीचार्ज हुए हैं और लोगों की शिकायतों को देखने, उनके कारणों की जांच करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है।” 

देशमुख ने आगे कहा, “अराजकता, कानून के शासन की कमी पूरे भारत में इस कदर व्याप्त है कि इन दिनों हर कोई भयभीत है। जनता थक रही है, और अगर आपको लगता है कि यह सरकार लोकप्रिय नहीं है, तो इसके बहुत सारे कारण हैं, लेकिन दुर्भाग्य से कोई इस पर ध्यान नहीं दे रहा है।’’

मौलिक अधिकारों का हनन 

हालांकि अदालतें नागरिकों की रक्षा के लिए बहुत प्रयास कर रही हैं लेकिन विधायिका व कार्यपालिका इसमें सहयोग नहीं कर रही हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करते हुए पुलिस को बेलगाम अधिकार देने वाले कानून बनाए जा रहे हैं। इन शक्तियों का उपयोग राजनीतिक विरोधियों, असहमति रखने वालों और   अल्पसंख्यकों को दबाने के लिए किया जाता है। 

अब हम सीबीआई, ईडी, कर विभाग और पुलिस के उपयोग (दुरुपयोग) के बारे में खबरों के आदी होते जा रहे हैं।

ताक़त का बेजा इस्तेमाल 

विभिन्न सरकारों, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश ने, शक्ति के दुरुपयोग के बावजूद, पूर्वमंजूरी की शर्त पेश करके गिरफ्तार करने, हिरासत में लेने, पुलिस द्वारा दर्ज बयानों को न्यायालय में स्वीकार्य बनाने के लिए अनुच्छेद 20 के विपरीत, कानूनी कार्रवाई से पुलिस को मुक्त कर दिया है। अनुभव से पता चलता है कि इन कठोर कानूनों के शिकार समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्ग के नागरिक या अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्य हैं।

police atrocities in india  - Satya Hindi
हैरानी की बात है कि जहां इस तरह के अन्यायपूर्ण कानून बनाए जा रहे हैं और पुलिस असंवैधानिक तरीके से काम करती दिखाई दे रही है, वहीं देश के माननीय गृह मंत्री वह व्यक्ति हैं जिन पर खुद पुलिस ने आरोप लगाया और आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें रिहा कर दिया। 
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संसद में रोये थे योगी 

यूपी के वर्तमान मुख्यमंत्री को आंखों में आंसू लिए संसद में पुलिस के अत्याचारों की शिकायत करते देखा गया। यह उम्मीद की गई थी कि जिन लोगों ने पुलिस की बर्बरता का अनुभव किया है, वे नागरिकों की अधिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कार्य करेंगे, लेकिन देश के सामने बिल्कुल विपरीत स्थिति है।

अब समय आ गया है कि जांच एजेंसियों को उनकी गतिविधियों के लिए जवाबदेह बनाया जाए। शक्ति के दुरुपयोग के लिए मुआवजे और दंड के लिए कानून बनाने की जरूरत है। नियमित पुलिस बल का विशेषज्ञ जांच एजेंसी और कानून व्यवस्था संभालने वालों में विभाजन तत्काल आवश्यक है।

इस सुनहरे नियम का कि ‘जमानत नियम है और जेल अपवाद है’ छोटे अपराधों या पहली बार अपराध करने वालों के मामले में अवश्य ही पालन किया जाना चाहिए। देशद्रोह कानून को खत्म करना चाहिए और यूएपीए जैसे कानूनों में स्पष्टता लानी चाहिए।

स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत को ‘कल्याणकारी राज्य’ बनाने के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। लेकिन जब तक आम आदमी पुलिस की मौजूदगी में खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करेगा, तब तक राष्ट्र को कल्याणकारी राज्य नहीं कहा जा सकता। यदि सुधार नहीं किए जाते हैं और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा नहीं की जाती है, तो हमें ‘पुलिस राज्य के उदय’ का सामना करना पड़ेगा।

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फिरदौस मिर्जा

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