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राजनाथ का बयान गांधी के विचारों को ख़त्म करने की साज़िश!

सवाल यह उठता है कि राजनाथ सिंह को अचानक सावरकर के माफ़ीनामे से गांधी जी को जोड़ने की क्यों ज़रूरत पड़ी है। आरएसएस-भाजपा शासक परेशान हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि गांधी का भारत का विचार पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ है और उनके हिंदुत्ववादी राष्ट्र के विचार को मुंहतोड़ जवाब दे रहा है...
शमसुल इसलाम

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सावरकर पर एक पुस्तक के विमोचन के समय, जहाँ आरएसएस के सर्वेसर्वा मोहन भागवत भी मौजूद थे, यह ज्ञान साझा किया कि 'वीर' सावरकर ने जो माफ़ीनामे लिखे वे गांधी जी की सलाह पर लिखे गए थे। मज़े की बात यह है कि सावरकर पर जिस किताब का विमोचन हो रहा था, उसके लेखकों, उदय माहूरकर व चिरायु पंडित, ने इसी आयोजन में बताया कि उनकी किताब में ऐसा कोई ज़िक्र नहीं है!

बेहद चौंकाने वाली यह सूचना आरएसएस या हिंदुत्ववादी ख़ेमे द्वारा देश से पहली बार साझा की जा रही थी। आरएसएस और हिन्दू महासभा से जुड़े लोगों ने सावरकर के जीवन पर लगभग 7 प्राधिकृत जीवनियाँ लिखी हैं। सावरकर जो ख़ुद एक सफल लेखक थे और जिन्होंने अपने जीवन के पल-पल का ब्यौरा अपनी लेखनी में पेश किया है, और उनके सचिव ए एस भिड़े ने उनके हर रोज़ के कार्यकलापों का संग्रह संयोजित किया है, इनमें से किसी में भी सावरकर के माफ़ीनामों में गांधी जी की भूमिका का कहीं भी ज़िक्र नहीं है।

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सफेद झूठ की ग़ैर-ऐतिहासिकता

सावरकर को 50 साल की क़ैद भुगतने के लिये 4 जुलाई 1911 को काला पानी लाया गया। वह केवल 10 साल वहाँ रहे और फिर महाराष्ट्र की जेलों में हस्तांतरित किये गये। कुल मिलाकर 13 साल जेल में रहे अर्थात उन्हें लगभग 37 साल की क़ैद से छूट मिली। चंद महीनों में ही उन्होंने अपना पहला माफ़ीनामा अँग्रेज़ी हकूमत को पेश कर दिया। उनका सब से विस्तृत और शर्मनाक माफ़ीनामा 14 नवंबर 1913 को सीधे उस समय के अँग्रेज़ गृहमंत्री रेजिनाल्ड क्रेडॉक को सौंपा गया।

1914 में वह एक और माफ़ीनामा पेश कर चुके थे। जबकि गांधी जी 1915 में ही भारत आये। गांधी जी किस माध्यम से दक्षिण अफ़्रीका से सावरकर तक पहुँचे इसका कोई सबूत देना राजनाथ सिंह ने ज़रूरी नहीं समझा। गांधी जी ने 1920 में ज़रूर सावरकर और उनके भाई की रिहाई की मांग उठाई लेकिन उन्हें माफ़ी मांगने की सलाह दी, इसका कोई सबूत नहीं है।

सच तो यह है कि गांधी जी ने सावरकर और उनके भाई के बारे में जो लिखा वह सावरकर के राष्ट्र-विरोधी चरित्र को ही रेखांकित करता है। गांधी जी ने लिखा:

"वे स्पष्ट रूप से यह जताते हैं कि अँग्रेज़ों की ग़ुलामी से देश को आज़ाद करने की उनकी कोई ख्वाहिश नहीं है। उसके बरक्स उनका मानना है कि भारत का भविष्य अँग्रेज राज में ही उज्ज्वल हो सकता है।" 

सावरकर के 6 मफ़ीनामों के सन्दर्भ में इस पहलू से अवगत होना ज़रूरी है कि क़ैदियों को यह अधिकार अँग्रेज सरकार ने दिया हुआ था कि वह उनके साथ ख़राब बर्ताव, ज़ुल्म या नाइंसाफ़ी को लेकर सरकार का ध्यान आकर्षित करायें। इसे क़ानूनी भाषा में 'मर्सी पिटीशन' (रहम की गुहार) कहा जाता था। काला पानी जेल में सावरकर के समकालीन 2 क्रांतिकारी क़ैदियों, हृषिकेश कांजी और नन्द गोपाल, ने अँग्रेज शासकों के समक्ष 'मर्सी पिटीशन' पेश की थीं। इनमें उन्होंने राजनैतिक क़ैदियों पर ढाये जा रहे ज़ुल्मों की तरफ़ ध्यान दिलाया था जिसकी वजह से कई इंक़लाबी दिमाग़ी संतुलन खो बैठे थे या आत्म-हत्या करने पर मजबूर हुए थे। अँग्रेज़ शासकों को याद दिलाया गया था कि अगर वे सोचते हैं कि ज़ुल्म ढाकर क़ैदियों में इंक़लाब के विचार नष्ट किये जा सकते हैं तो यह उनकी बड़ी भूल थी।

इसके विपरीत हिंदुत्ववादी 'वीर' सावरकर ने जो माफ़ीनामे लिखे वे शर्मनाक थे। अपने क्रांतिकारी इतिहास को एक बड़ी ग़लती मानने से लेकर अंग्रेज़ों के सामने घुटने टेकने के साथ-साथ देश को ग़ुलाम बनाये रखने में उनको पूरा सहयोग देने का आश्वासन भी सावरकर ने दिया।

14 नवंबर 1913 के माफ़ीनामे का अंत सावरकर ने इन शब्दों से किया:

“सरकार अगर अपने विविध उपकारों और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादारी का, जो कि उस प्रगति के लिए पहली शर्त है, सबसे प्रबल पैरोकार बनूँगा। जब तक हम जेलों में बंद हैं तब तक महामहिम की वफ़ादार भारतीय प्रजा के हज़ारों घरों में उल्लास नहीं आ सकता क्योंकि ख़ून पानी से गाढ़ा होता है। लेकिन अगर हमें रिहा किया जाता है तो लोग उस सरकार के प्रति सहज ज्ञान से खुशी और उल्लास में चिल्लाने लगेंगे, जो दंड देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है।”

“इसके अलावा, मेरे संवैधानिक रास्ते के पक्ष में मन परिवर्तन से भारत और यूरोप के वो सभी भटके हुए नौजवान जो मुझे अपना पथ प्रदर्शक मानते थे, वापिस आ जाएँगे। सरकार, जिस हैसियत में चाहे मैं उसकी सेवा करने को तैयार हूँ, क्योंकि मेरा मत परिवर्तन अंतःकरण से है और मैं आशा करता हूँ कि आगे भी मेरा आचरण वैसा ही होगा।”

“मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने में उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा। ताक़तवर ही क्षमाशील होने का सामर्थ्य रखते हैं और इसलिये एक बिगड़ा हुआ बेटा सरकार के अभिभावकीय दरवाज़े के सिवा और कहाँ लौट सकता है? आशा करता हूँ कि मान्यवर इन बिन्दुओं पर कृपा करके विचार करेंगे।”

30 मार्च 1920 का माफ़ीनामा

“मुझे विश्वास है कि सरकार ग़ौर करेगी कि मैं तयशुदा उचित प्रतिबंधों को मानने के लिए तैयार हूँ, सरकार द्वारा घोषित वर्तमान और भावी सुधारों से सहमत व प्रतिबद्ध हूँ, उत्तर की ओर से तुर्क-अफ़ग़ान कट्टरपंथियों का ख़तरा दोनों देशों के समक्ष समान रूप से उपस्थित है, इन परिस्थितियों ने मुझे ब्रिटिश सरकार का ईमानदार सहयोगी, वफादार और पक्षधर बना दिया है। इसलिए सरकार मुझे रिहा करती है तो मैं व्यक्तिगत रूप से कृतज्ञ रहूँगा। मेरा प्रारंभिक जीवन शानदार संभावनाओं से परिपूर्ण था, लेकिन मैंने अत्यधिक आवेश में आकर सब बरबाद कर दिया, मेरी ज़िंदगी का यह बेहद खेदजनक और पीड़ादायक दौर रहा है। मेरी रिहाई मेरे लिए नया जन्म होगा। सरकार की यह संवेदनशीलता दयालुता, मेरे दिल और भावनाओं को गहराई तक प्रभावित करेगी, मैं निजी तौर पर सदा के लिए आपका हो जाऊँगा, भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी रहूँगा। अक्सर जहाँ ताक़त नाकामयाब रहती है उदारता कामयाब हो जाती है।”
वीडियो चर्चा में देखिए, क्या सच में गांधी ने सावरकर को माफ़ीनामे के लिए सलाह दी थी?

सावरकर पर गांधी हत्या का आरोप!

एक क्षण के लिए हम मान लेते हैं कि गांधी जी के सुझाव पर सावरकर ने माफ़ीनामे लिखे थे। इसका साफ़ मतलब हुआ कि गांधी जी सावरकर से हमदर्दी रखते थे, उनके प्रति कोई द्वेष नहीं रखते थे और उनकी रिहाई चाहते थे। इसका सिला या इनाम सावरकर और उनके गुर्गों ने गांधी जी को क्या दिया; उनकी निर्मम हत्या कराई गयी। सावरकर सीधे गांधी जी की हत्या की साज़िश में शामिल थे, इस सच्चाई को किसी और ने नहीं बल्कि आरएसएस के प्रिय, देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने उजागर किया था। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को फ़रवरी 27, 1948 के पत्र और हिन्दू महासभा के वरिष्ठ नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जुलाई 18, 1948 के पत्र में साफ़ तौर पर बताया कि आरएसएस और हिन्दू महासभा ने सावरकर के नेतृत्व में गांधी जी की हत्या की साज़िश रची और कार्यान्वित किया।

गांधी जी के प्रति नफ़रत हिंदुत्ववादी गिरोह की रगों में दौड़ती है।

विचार से ख़ास

बहुत समय नहीं बीता है जब गांधी जी की जयंती के अवसर पर बीजेपी आईटी-प्रकोष्ठ इंदौर के प्रभारी विक्की मित्तल (जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी फ़ेसबुक पर 'फ़ॉलो' करते हैं) ने मांग की थी कि अगर यह जानना हो कि गांधी और गोड्से में से कौन अधिक लोकप्रिय है “गोड्से की पिस्तौल की नीलामी की जाए”, पता चल जाएगा कि गोड्से आतंकवादी था या देशभक्त? यह लफ़ंगा मुतमइन था कि गांधी का हत्यारा ही जीतेगा।

आप यदि समझते हैं कि यह सब आरएसएस और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की जानकारी के बिना हो रहा है, तो भारी भूल में हैं।

एक प्रमुख हिंदुत्ववादी संगठन 'हिंदू जनजागृति समिति' है। भारत में 'हिंदू राष्ट्र की स्थापना' के लिए यह नियमित रूप से अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करती है। इससे सम्बंधित 'सनातन संस्था' के सदस्यों पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप हैं। मुसलमान बहुल क्षेत्रों और उनके धार्मिक स्थलों पर हमलों के अलावा गोविंद पानसरे, नारायण दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे प्रसिद्ध बुद्धिजीवियों की हत्या के आरोपों में भी यह जांच के दायरे में है। 'हिंदू जनजागृति मंच' का गोवा सम्मेलन (जून 6-10, 2013) गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्रभाई मोदी के शुभकामना संदेश के साथ शुरू हुआ था। इसमें भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने की अपनी परियोजना की सफलता की कामना की गई थी।

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इंसानियत की तमाम हदें पर करते हुए, इसी मंच से जून 10 को हिंदुत्ववादी संगठनों, आरएसएस के क़रीबी लेखक केवी सीतारमैया का भाषण हुआ। उन्होंने आरम्भ में ही घोषणा की कि, "गांधी भयानक दुष्कर्मी और सर्वाधिक पापी था"। उन्होंने अपने भाषण का अंत, गांधीजी के क़ातिल गोडसे का महामण्डन करते हुए, इन शर्मनाक शब्दों से किया: "जैसा कि भगवान श्री कृष्ण ने कहा है- 'दुष्टों के विनाश के लिए, अच्छों की रक्षा के लिए और धर्म की स्थापना के लिए, मैं हर युग में पैदा होता हूँ' 30 जनवरी की शाम, श्री राम, नाथूराम गोडसे के रूप में आए और गांधी का जीवन समाप्त कर दिया।"

दिमाग़ी तौर पर बीमार इस व्यक्ति ने गांधी जी की हत्या को 'वध' बताते हुए अंग्रेज़ी में एक किताब भी लिखी है जिसका शीर्षक 'गांधी मर्डरर ऑफ़ गांधी' (गांधी का हत्यारा गांधी) है।

सवाल यह उठता है कि राजनाथ सिंह को अचानक सावरकर के माफ़ीनामे से गांधी जी को जोड़ने की क्यों ज़रूरत पड़ी है। उनका बयान किसी बेवक़ूफ़ी या जल्दबाज़ी का नतीजा नहीं है।

हिंदुत्ववादी शासक टोली को गांधी जी से डर लग रहा है। भारतीय लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र और समावेशी भारतीय समाज पर तबाड़तोड़ हमलों के बीच लोग हिंदुत्ववादी शासकों की कॉर्पोरेट-परस्त, हिन्दू धर्म की ब्राह्मणवादी व्याख्या को देश पर थोपने और खुल्लमखुल्ला जनविरोधी नीतियों के प्रतिरोध में एकजुट हो रहे हैं। गांधी जी, जिनकी विरासत को भुला दिया गया था, लोगों ने उसे पुनर्जीवित किया है। गांधीजी इन संघर्षों के प्रेरणा स्रोत बन रहे हैं।

आरएसएस-भाजपा शासक परेशान हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि गांधी, जिनकी हत्या हिंदुत्ववादी शासक टोली ने बहुत पहले कर दी थी, का भारत का विचार (Idea of India) पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ है और उनके हिंदुत्ववादी राष्ट्र के विचार को मुंहतोड़ जवाब दे रहा है। अब एक ही रास्ता बचा है कि गांधी को सावरकर और गोडसे के बराबर ला खड़ा किया जाये। गांधी को उतना ही छोटा बना दिया जाये जितना सावरकर और गोडसे थे। ये दरअसल गांधी जी की असली पहचान को मलियामेट करना चाहते हैं। फ़िलहाल वे सब यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जब गांधी की हत्या करके उनके विचारों को नहीं मारा जा सका तो उनके विचार कैसे मर सकते हैं!

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