भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और चीन के रक्षा मंत्री वेई फेंघी की मॉस्को में दो घंटे तक बात हुई लेकिन उसका नतीजा क्या निकला? दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े रहे। फेंघी कहते रहे कि वे चीन की एक इंच ज़मीन नहीं छोड़ेंगे और यही बात भारत की ज़मीन के बारे में राजनाथ भी कहते रहे। दोनों एक-दूसरे पर उत्तेजना फैलाने का आरोप लगाते रहे, फिर भी दोनों सारे मामले को बातचीत से हल करने की इच्छा दोहराते रहे।
क्या आपने कभी सोचा कि दोनों देशों के नेता इस मुद्दे पर खोए-खोए से क्यों लगते हैं ? जहां तक भारत का सवाल है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में चीन का नाम एक बार भी नहीं लिया। उन्होंने गलवान घाटी में शहीद हुए सैनिकों को भावभीनी श्रद्धांजलि दी, उन पर हुए हमले की भर्त्सना की लेकिन साथ में यह भी कह दिया कि चीन ने हमारी सीमा में कोई घुसपैठ नहीं की और हमारी किसी चौकी पर कब्जा भी नहीं किया। तो उनसे अब संसद में पूछा जाएगा कि फिर आखिर झगड़ा किस बात का है?
मोदी से प्रश्न होगा कि क्या उन्होंने अपने सैनिकों को चीन की सीमा में घुसने का आदेश दिया था? उन्हें जो मारा गया वह तो चीनी तंबुओं में घुसने पर मारा गया था। संसद में सरकार को स्पष्ट बताना होगा कि गलवान में हुई मुठभेड़ का सच क्या है?
जाहिर है कि चीन ने अप्रैल माह तक ऐसी कई जगहों को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। संसद में विरोधी पूछेंगे कि चीनी जब ऐसी हरकतें कर रहे थे, तब क्या हमारी सरकार सो रही थी? उसने तत्काल जवाबी कार्रवाई क्यों नहीं की? हो सकता है कि कब्जे की ये कार्रवाइयां वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथवाले उन इलाकों में हुई हों, जिन्हें दोनों तरफ से खाली रखा जाता है।
सुलझ सकता है विवाद
दूसरे शब्दों में दोनों देशों के बीच जो झंझट चल रहा है, वह नकली है, तात्कालिक है, आकस्मिक है और स्थानीय है। उसे अब दोनों देश बैठकर सुलझा सकते हैं। जब बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के साथ सीमा-विवादों को कुछ ले-देकर सुलझाया जा सकता है तो चीन के साथ क्यों नहीं सुलझाया जा सकता?
यदि चीनी रक्षा मंत्री हमारे रक्षामंत्री से बार-बार मिलने का अनुरोध कर सकते हैं और उनसे मिलने के लिए उनके होटल में आ सकते हैं तो सारे विवाद को आसानी से हल भी किया जा सकता है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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