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वैचारिक मतभेद के बावजूद लोहिया की तारीफ़ क्यों करते थे नेहरू?

भारत की विदेश नीति को मूल रूप से जवाहर लाल नेहरू ने डिजाइन किया था। लेकिन विदेश नीति को लेकर नेहरू की जो सोच थी उसमें डॉ. राम मनोहर लोहिया का भी अहम योगदान था। इन दोनों ही नेताओं की समझदारी का लाभ भारत की विदेश नीति को हुआ। जवाहर लाल नेहरू ने हर मंच पर लोहिया की तारीफ़ की और उनकी राय को महत्व दिया। कांग्रेस के सदस्य के रूप में और गाँधीजी की अगुवाई में आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने वाले डॉ. लोहिया की आज पुण्यतिथि है। 
शेष नारायण सिंह

हर साल 23 मार्च (जयंती) और 12 अक्टूबर (पुण्यतिथि) के दिन डॉ. राम मनोहर लोहिया को याद किया जाता है। लेकिन अब उनकी राजनीति को समझने और उस पर अमल करने वालों की संख्या बहुत ही कम हो गयी है। वह 57 साल से ज़्यादा जीवित रहे लेकिन लेकिन कभी भी सत्ता में नहीं रहे। मूल रूप से कांग्रेस के सदस्य के रूप में उन्होंने गाँधीजी की अगुवाई में आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया लेकिन कांग्रेस को द्विज सुप्रीमेसी का संगठन बनाने की कोशिश के ख़िलाफ़ जो कुछ लोग आवाज़ उठाते थे, उसमें डॉ. लोहिया प्रमुख थे। शायद इसीलिए जब कांग्रेस के अन्दर ही 1936 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी तो वह उसके प्रमुख सदस्य थे। अन्य सदस्यों में ईएमएस नम्बूदरीपाद, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण जैसे चिन्तक शामिल थे। 

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कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी वास्तव में कांग्रेस का ही हिस्सा थी। इस वर्ग को कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में जवाहर लाल नेहरू का ग्रुप माना जाता था। यह अलग बात है कि इसमें शामिल सभी नेता जवाहर लाल नेहरू से किसी मायने में कम नहीं थे। देश में समाजवादी राजनीति को स्थापित करने का श्रेय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं को ही जाता है। 

बाद में तो एक ऐसा समय भी आया जब समाजवादी राजनीति की पहचान ही डॉ. राम मनोहर लोहिया से होने लगी। जातिप्रथा के विनाश के मामले में वह डॉ. भीमराव आंबेडकर की राजनीति से काफ़ी हद तक सहमत थे। दोनों ही नेताओं में 1955-56 में बहुत अच्छे संबंध बन गये थे और डॉ. आंबेडकर के संगठन, बैकवर्ड कास्ट फ़ेडरेशन और सोशलिस्ट पार्टी के बीच किसी समझौते की बातचीत भी चल रही थी। लेकिन उसी दौरान डॉ. आंबेडकर का निधन हो गया और बात वहीं ख़त्म हो गयी। 

कांग्रेस के अन्दर जो लिबरल लोग थे, वे डॉ. लोहिया का बहुत सम्मान करते थे लेकिन जो हिन्दू राज कायम करने की कोशिश करने वाले लोग थे उनको लोहिया की राजनीति से डर लगता था।
यह अजीब लगता है कि जिस कांग्रेस के डॉ. लोहिया कभी सदस्य थे उसी कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के लिए उन्होंने ग़ैर-कांग्रेसवाद का राजनीतिक सिद्धांत दिया और आरएसएस से सम्बद्ध राजनीतिक पार्टी भारतीय जनसंघ तक का साथ लेने में संकोच नहीं किया। इस रणनीति का असर भी हुआ और 1967 के आम चुनाव के बाद उत्तर और पूर्वी भारत के कई राज्यों से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। 1967 की संयुक्त विधायक दल की सरकारें डॉ. लोहिया की राजनीति की सफलता और उनकी राजनीतिक समझ की वैज्ञानिकता का सबूत हैं। 

कांग्रेस का विरोध करते रहे डॉ. लोहिया 

डॉ. लोहिया की छवि आमतौर पर कांग्रेस विरोधी राजनेता की है। उन्होंने आज़ादी के बाद कांग्रेस की पूंजीवादी नीतियों का ज़बरदस्त विरोध भी किया और जीवन के अंत तक कांग्रेस विरोध की ही राजनीति की। जाति, भाषा, आर्थिक न्याय जैसे सवालों पर उन्होंने भारत के आम जन के हित की बातें कीं और उसी सोच को आगे बढ़ाया। ज़ाहिर है पूंजी की सत्ता की लपेट में आ चुकी कांग्रेस को ये नीतियाँ ठीक नहीं लगती थीं और वह लोहिया को अपना विरोधी मानती रही।

लेकिन डॉ. लोहिया हमेशा से ही कांग्रेस विरोधी नहीं थे। डॉ. लोहिया कभी महात्मा गाँधी के बाद की पीढ़ी के सबसे बड़े कांग्रेसी नेता जवाहरलाल नेहरू के विश्वासपात्र भी थे। डॉ. लोहिया के सबसे बड़े अनुयायी स्व. मधु लिमये ने अपनी एक किताब में साफ़ लिखा है कि डॉ. राममनोहर लोहिया शुरू से आज़ादी मिलने तक जवाहर लाल नेहरू के बहुत क़रीबी व्यक्ति थे। 

भारत की विदेश नीति को मूल रूप से जवाहर लाल नेहरू ने डिजाइन किया था। विदेश नीति की नेहरू की जो सोच थी उसमें डॉ. राम मनोहर लोहिया का भी योगदान था। जवाहर लाल नेहरू ने हर मंच पर लोहिया की तारीफ़ की और उनकी राय को महत्व दिया।

नेहरू से मिले डॉ. लोहिया

मधु लिमये ने लिखा है कि डॉ. लोहिया को कांग्रेस में शामिल करने का श्रेय सेठ जमनालाल बजाज को जाता है, जो डॉ. लोहिया के पिता जी के परिचित थे। जमनालाल बजाज उन दिनों कांग्रेस के कोषाध्यक्ष भी थे। उन्होंने ही डॉ. लोहिया को महात्मा गाँधी से मिलवाया था और महात्मा गाँधी ने जवाहर लाल नेहरू से राम मनोहर लोहिया को लखनऊ कांग्रेस के अधिवेशन के समय 1936 में मिलवाया। 

डॉ. लोहिया को कहा उभरता सितारा

महात्मा गाँधी के सुझाव पर 1936 में जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया था। वह ताज़ा-ताज़ा जेल से छूट कर आये थे। लोहिया से उनकी मुलाक़ात कांग्रेस अध्यक्ष के टेंट में ही हुई। उन्होंने डॉ. लोहिया को समाजवादी चिंतन धारा का उभरता हुआ सितारा कह कर संबोधित किया। नेहरू ने पूछा कि क्या लोहिया ने उनके अध्यक्षीय भाषण को पढ़ा है। डॉ. लोहिया ने जवाब दिया कि वह एक नोबेल स्पीच है। इस तरह के विशेषण के प्रयोग से नेहरू चौंक गए और बहुत ख़ुश हुए। डॉ. लोहिया ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में आपके सपने बहुत ही अच्छे हैं और लगता है कि आप कांग्रेस आन्दोलन में एक नया जीवन फूंकने के लिए तैयार हैं। उस समय डॉ. लोहिया की उम्र केवल 26 साल की थी। कहते हैं कि इस मुलाक़ात के बाद जवाहर लाल नेहरू ने डॉ. राम मनोहर लोहिया को अपना बहुत ही क़रीबी मानना शुरू कर दिया था। 

लोहिया वास्तव में जवाहर लाल नेहरू के बहुत बड़े प्रशंसक थे और महात्मा गाँधी के बहुत बड़े अनुयायी थे। लेकिन गाँधी के बाद उनके सम्मान के हक़दार जवाहर लाल नेहरू ही थे।

जवाहर लाल नेहरू उन नौजवानों से बहुत प्रभावित रहते थे जो विदेशी विश्वविद्यालयों से शिक्षा ले कर आये थे। शायद इसीलिए उन्होंने डॉ. लोहिया को सम्मान देना शुरू किया था। बाद में वह उनकी कुशाग्र बुद्धि से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने कहा था कि राम मनोहर में वह शक्ति है कि वह किसी भी विषय पर घंटों बात कर सकते हैं और तुर्रा यह कि बातचीत लगातार दिलचस्प बनी रहेगी। 

नेहरू ने डॉ. लोहिया को ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के विदेश विभाग का इंचार्ज बनाने का प्रस्ताव रखा और लोहिया ने इसे तुरंत स्वीकार कर लिया। उन दिनों कांग्रेस का मुख्यालय इलाहाबाद में होता था। ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के विदेशी मामलों के सेक्रेटरी के रूप में डॉ. लोहिया ने पूरी दुनिया के प्रगतिशील आन्दोलनों से संपर्क कायम किया। उन्होंने एक बुलेटिन भी निकालना शुरू किया और भारत की भावी विदेश नीति के बारे में कई पैंफ़लेट निकाले।

‘नेहरू ने छोड़ी अपनी छाप’ 

डॉ. लोहिया के एक कम्युनिस्ट साथी ने कहा था कि जवाहर लाल के नए संगठन में डॉ. लोहिया का काम शानदार था और डॉ. लोहिया भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के पहले शैडो विदेश मंत्री थे। लोहिया ने जवाहर लाल नेहरू की आत्म कथा का एक रिव्यू लिखा था जिसमें उन्होंने बताया था कि नेहरू ने दो दशकों में भारत की लड़ाई के हर मुकाम पर अपनी छाप छोड़ी है। यह भी लिखा था कि जवाहर लाल ने समय की आत्मा को पहचान लिया और उसको विकसित किया। 

दूसरे विश्व युद्ध के पहले लिखी गयी इस पुस्तक की समीक्षा में समकालीन इतिहास की दो महान विभूतियों की सोच के बारे में हमारी समझ को विकसित करने में सहयोग मिलता है। डॉ. लोहिया ने लिखा था कि उनकी नज़र में जवाहर लाल का जीवन एक आदर्श जीवन था। उन्होंने तय किया कि वह देश के लिए तकलीफ़ उठायेंगे और उसे ख़ुशी-ख़ुशी उठाया। नेहरू ने एक ऐसा जीवन जीने का फ़ैसला किया जिसका प्रगति पर हमेशा विश्वास बना रहा। 

डॉ. लोहिया नेहरू को एक ऐसा आदमी मानते थे जो उनकी गिरफ्तारी के लिए आई हुई पुलिस की गाड़ी देख कर भी मुस्कुरा देते थे और पुलिस लाठीचार्ज के दौरान दोनों तरफ़ की क्रूरता को भी देखने की क्षमता रखते थे। लोहिया के अनुसार जवाहर लाल के जीवन को दो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है प्रयास और सौंदर्य। 

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कांग्रेस मुख्यालय में अपने काम से लोहिया बहुत जल्दी ऊब गए। वह एक सोशलिस्ट और कांग्रेस नेता के रूप में देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर काम करना चाहते थे। उन्होंने कांग्रेस छोड़ने की पेशकश की लेकिन आचार्य जेबी कृपलानी ने कहा कि जब तक नेहरू यूरोप से वापस नहीं आते तब तक पार्टी को छोड़ना ठीक नहीं होगा। नेहरू की निजी जिन्दगी में उन दिनों बहुत परेशानी थी। उनकी पत्नी कमला नेहरू बहुत बीमार थीं और उनका विदेश में इलाज़ चल रहा था और बाद में उनकी मृत्यु भी हो गयी थी। यूरोप से आने के बाद जवाहर लाल ने लोहिया को कांग्रेस मुख्यालय के काम से छुट्टी तो दे दी लेकिन वह हमेशा डॉ. लोहिया को एक महान व्यक्ति और कुशाग्रबुद्धि नौजवान मानते रहे। 

1940 में अमेरिकन इंस्टीटयूट ऑफ़ पैसिफ़िक रिलेशंस ने जवाहर लाल से कहा कि वह कृपया किसी ऐसे भारतीय विद्वान का चुनाव कर दें जिसका स्तर बहुत ऊंचा हो, जो पूर्वी एशिया के आर्थिक और राजनीतिक संबंधों के बारे में बहुत ही भरोसे के साथ लिख सकता हो तो जवाहर लाल नेहरू के दिमाग में केवल एक नाम आया और वह नाम डॉ. लोहिया का था। लेकिन उन्होंने चिट्ठी में लिखा कि अगर राम मनोहर लिखने के लिए तैयार हो जाएँ तो उनसे अच्छा कोई नहीं है।

लखनऊ कांग्रेस के अधिवेशन के बाद डॉ. लोहिया और जवाहर लाल नेहरू में सम्बन्ध बहुत अच्छे हो गए थे। तब कांग्रेस में पुरातनपंथी सोच वालों से नेहरू का भारी विवाद हुआ। नेहरू विरोधी कांग्रेस के हर मंच पर बहुमत में थे। अति वामपंथी रुझान के कांग्रेस सदस्य नेहरू की ख़ूब आलोचना करते थे। इनमें कुछ लोग महात्मा गाँधी की आलोचना भी करते रहते थे। 

सुभाष चन्द्र बोस, एमएन रॉय और अन्य कम्युनिस्टों के अनुयायियों की नज़र में महात्मा गाँधी की सोच बिलकुल बेकार थी। उस दौर में जब महात्मा गाँधी का विरोध करना वामपंथियों के लिए फ़ैशन था, डॉ. लोहिया ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व के बारे में जवाहरलाल नेहरू के मूल्यांकन को सही माना।

1939 में जब कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के वक़्त कांग्रेस की टूट का ख़तरा पैदा हो गया तो डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कई लेख लिखे और आग्रह किया कि कांग्रेस को टूट से बचाना राष्ट्रहित में था। उन्होंने कहा कि आज़ादी की लड़ाई की सफलता के लिए महात्मा गाँधी का नेतृत्व एक ज़रूरी शर्त है। उन दिनों गाँधी के विरोधी वैकल्पिक नेतृत्व की बात करते थे। नेहरू और लोहिया ने इस सोच को ग़लत बताया और इसे नाकाम करने के लिए काम किया। 

नेहरू-लोहिया में उभरे मतभेद  

नेहरू और लोहिया में मतभेद के लक्षण पहली बार दूसरे विश्वयुद्ध के समय नज़र आने शुरू हुए। लोहिया की अगुवाई में कांग्रेस के विदेश विभाग ने एक पर्चा तैयार किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि दुनिया को चार वर्गों में बांटा जा सकता है। पहले में पूंजीपति, फ़ासिस्ट और साम्राज्यवादी ताक़तें। दूसरे में वे देश जो साम्राज्यवादियों के प्रजा देश हैं और उनसे छुटकारा चाहते हैं, तीसरा वर्ग रूस के साथियों का है जो आम तौर पर समाजवादी हैं और चौथा वर्ग वह है जो साम्राज्यवादियों, पूंजीवादियों और फ़ासिस्टों के शोषण का शिकार होने के लिए अभिशप्त है। बस इसी सोच में नेहरू और लोहिया के विवाद की बुनियाद है। 

यूरोप के पूंजीवादी देशों के वामपंथी अरब देशों और पूर्वी एशिया के संघर्षों को भी फ़ासिस्टों का समर्थक मानते थे। जवाहर लाल नेहरू का रुझान इन यूरोपियन वामपंथियों के साथ था। बहरहाल, यहाँ से विवाद शुरू हुआ तो वह आख़िर तक गया और दुनिया जानती है कि बाद के वर्षों में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने नेहरू की आर्थिक नीतियों की धज्जियां कई बार उड़ाईं और आख़िर में उनकी पार्टी के ख़िलाफ़ जो आन्दोलन सफल हुए, उन सब की बुनियाद में डॉ. लोहिया की राजनीतिक, आर्थिक सोच वाला दर्शनशास्त्र ही स्थायी भाव के रूप में मौजूद रहा। 

लेकिन इसके बाद भी मधु लिमये की उस बात में बहुत दम है कि डॉ. राम मनोहर लोहिया और जवाहर लाल नेहरू ने इस देश में ग़रीब आदमी की पक्षधरता की राजनीति की बुनियाद डाली थी। हालांकि यह भी सच है कि आज़ादी मिल जाने के बाद लोहिया को भरोसा हो गया कि नेहरू भी उसी पूंजीवादी सोच के मालिकों की गिरफ्त में हैं और उनका वहां से बाहर निकलना संभव नहीं है लेकिन आज़ादी की लड़ाई के पन्द्रह साल इन दोनों ही नेताओं में बेहतरीन किस्म की समझदारी थी और उसका लाभ भारत की विदेश नीति को हुआ। आज़ादी के बाद अमेरिकी और रूसी खेमे से दूर रहने की जो नीति भारत ने अपनाई उसकी बुनियाद में आज़ादी के पहले की कांग्रेस कमेटी के विदेश विभाग का ख़ासा इनपुट था। 

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