दिसंबर, 2012 में हुए सनसनीखेज निर्भया कांड के बाद देश में जनता के आक्रोष को देखते हुए सरकार ने बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के अपराध के लिए कठोर सज़ा का प्रावधान करने के साथ ही इस अपराध के मुक़दमों के लिए विशेष अदालतें गठित करने का निर्णय लिया था। लेकिन इसे मूर्तरूप लेने में वक़्त लग रहा है। क़ानून में यह व्यवस्था की गयी कि इन त्वरित विशेष अदालतों की अध्यक्षता यथासंभव महिला न्यायाधीश करेंगी।
हालाँकि, दिल्ली की अदालत में स्थानांतरित किए गए उन्नाव के सामूहिक बलात्कार कांड की शिकार युवती के मुक़दमे की सुनवाई कर रही विशेष अदालत की अध्यक्षता महिला न्यायाधीश नहीं कर रही हैं, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि बीजेपी नेता स्वामी चिन्मयानंद के मुक़दमे की सुनवाई करने वाली विशेष अदालत की अध्यक्षता की ज़िम्मेदारी महिला न्यायाधीश को सौंपी जाएगी।
महिलाओं के सम्मान और गरिमा की रक्षा करने के प्रति सरकार की गंभीरता का अंदाज़ा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि छह साल पहले 2013 में क़ानून में कठोर प्रावधान के बाद अब इस साल दो अक्टूबर से 1023 विशेष त्वरित अदालतें स्थापित करने का काम शुरू होगा।
संशोधित क़ानून के अनुसार भारतीय दंड संहिता की धारा 376 या धारा 376ए से 376ई के दायरे में आने वाले अपराधों के मुक़दमों की सुनवाई यथासंभव महिला न्यायाधीश ही करेंगी। इस संशोधन के दायरे में उच्च न्यायालय, सत्र अदालत या अन्य अदालत को शामिल किया गया है।
इसके अलावा, क़ानून में यह भी प्रावधान किया गया है कि इस तरह के कथित अपराध की शिकार पीड़िता का बयान महिला पुलिस अधिकारी या अन्य महिला अधिकारी ही दर्ज करेंगी।
निर्भया कांड के बाद पहले 2013 में भारतीय दंड संहिता में अनेक संशोधन करके बलात्कार और यौन हिंसा तथा बच्चों के साथ यौन अपराध के लिए अधिक कठोर सज़ा का प्रावधान किया गया था। इसके बाद, 2018 में इसमें और संशोधन करके ऐसे अपराधों की जाँच तथा मुक़दमे की सुनवाई पूरी करने की अवधि में कटौती की गयी।
यही नहीं, इन संशोधनों के बाद बलात्कार जैसे अपराध के मामले में आरोप पत्र दाखिल होने की तारीख़ से सुनवाई दो महीने के भीतर पूरी करने का प्रावधान किया गया है। यह सुनवाई विशेष अदालत के बंद कक्ष में की जाएगी और इसमें किसी भी बाहरी व्यक्ति को उपस्थित रहने की अनुमति नहीं होगी।
तय समय में सज़ा क्यों नहीं?
इसी तरह, निचली अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील दायर होने की तारीख़ से छह महीने के भीतर उस पर फ़ैसला करने का प्रावधान किया गया है।
चूँकि हमारे देश की न्याय देने वाली प्रणाली कई चरणों वाली है कि अगर निचली अदालत क़ानून में प्रदत्त अवधि के भीतर फ़ैसला सुना दे तो भी दोषियों के पास उच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय में जाने के विकल्प उपलब्ध रहते हैं और इस तरह कई साल तक क़ानूनी दाँव पेचों का सहारा लेकर फाँसी के फंदे से वे बचते रहते हैं। निर्भया के दोषियों का मामला हमारे सामने ही है। उच्चतम न्यायालय से फ़ैसला होने के बाद अब उनकी पुनर्विचार याचिकाएँ लंबित हैं।
इसलिए आवश्यकता है कि क़ानून में ही इन सारे विकल्पों का इस्तेमाल करने और अंतिम निर्णय तक पहुँचने के लिए अधिकतम समय सीमा निर्धारित करने पर विचार किया जाए। अन्यथा कठोर सज़ा के प्रावधान बेमानी ही हैं।
बच्चों के लिए भी अलग कोर्ट
इन त्वरित विशेष अदालतों में से 389 अदालतें उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार सिर्फ़ बच्चों के यौन शोषण अपराध से संबंधित मुक़दमों की सुनवाई करेंगी। इसका मतलब यह हुआ कि महिलाओं के प्रति यौन हिंसा और सामूहिक बलात्कार जैसे अपराधों के मुक़दमों की सुनवाई के लिए फ़िलहाल 634 त्वरित विशेष अदालतें होंगी।
देश में महिलाओं के प्रति यौन हिंसा, बलात्कार और सामूहिक बलात्कार तथा हत्या जैसे जघन्य अपराधों के मुक़दमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही हैं। ऐसी स्थिति में इन त्वरित विशेष अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि हर साल कम से कम 165 ऐसे मुक़दमों का निबटारा करेंगी।
क़ानून मंत्रालय ने इन त्वरित विशेष अदालतों की स्थापना के लिये 767.25 करोड़ रुपए का बजट बनाया है। निर्भया कोष के अंतर्गत केन्द्र सरकार इसके लिए एक साल तक 474 करोड़ रुपए का सहयोग देगी।
केंद्र सरकार ने 2013 में आम बजट पेश करते हुए दिसंबर, 2012 में हुए निर्भया कांड के बाद राज्य सरकारों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए काम कर रहे ग़ैर-सरकारी संगठनों की पहल को वित्तीय सहयोग देने के लिए एक हज़ार करोड़ रुपए का कोष बनाने की घोषणा की थी।
क़ानून बनने के बाद भी अपराध कम नहीं
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2016 में बलात्कार और महिलाओं के प्रति यौन हिंसा के क़रीब एक लाख 33 हज़ार मुक़दमे दर्ज किए गए थे। गृह मंत्रालय की 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2014 में 36,735, वर्ष 2015 में 34,651 और 2016 में 38,947 बलात्कार की घटनाएँ दर्ज की गयीं जबकि बलात्कार के प्रयास की 2014 में 4,234, वर्ष 2015 में 4,437 और 2016 में 5,729 घटनाएँ दर्ज की गयी थीं।
यौन हिंसा पीड़ितों को मुआवजा देने के प्रति राज्य सरकारों के उदासीन रवैये को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप किया। इसका नतीजा यह हुआ कि अब समूचे देश में बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, यौन हिंसा और तेज़ाब हमले की पीड़ितों को एक समान मुआवजा राशि मिलना संभव हो सका है।
न्यायालय ने 2018 में इस तरह के बर्बरतापूर्ण और पाशविक अपराध की पीड़ित महिलाओं और किशोरियों के लिए मुआवजे की राशि निर्धारित करने संबंधी राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण की मुआवजा योजना पर अपनी मुहर लगा दी थी।
इस मामले में न्यायालय के हस्तक्षेप की मुख्य वजह राज्यों में ऐसी घटनाओं की पीड़ितों को देय मुआवजे की राशि का एक समान नहीं होना और कई मामलों में राज्यों की संवेदनहीनता रही है। मसलन बीजेपी के शासनकाल के दौरान मध्य प्रदेश में बलात्कार की पीड़िता को औसतन 6,500 रुपए और ओडिशा में पीड़िता के लिए मुआवजे की न्यूनतम राशि दस हजार रुपए रखी गयी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था?
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंज़ूर ‘यौन हिंसा और दूसरे अपराधों की महिला पीड़ितों के लिये मुआवजा योजना-2018’ के तहत देश के किसी भी हिस्से में सामूहिक बलात्कार की पीड़िता को कम से कम पाँच लाख और अधिकतम दस लाख रुपए बतौर मुआवजा राशि निर्धारित की गयी है। यह योजना देश के सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में लागू की गयी है। इस योजना के दायरे में तेज़ाब हमले की पीड़िता भी आएँगी जिन्हें आठ लाख रुपए तक मुआवजा दिया जाएगा।
हाँ, अगर कोई राज्य सरकार इससे भी अधिक मुआवजा देना चाहें तो वह ऐसा कर सकती हैं। यह योजना उन्हें ऐसा करने से रोकती नहीं है।
राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार 2018-19 के दौरान पीड़ित मुआवजा योजना के तहत पीड़ितों को कुल 1,68,43,92,746 रुपए का मुआवजा दिया गया। विधिक सेवा प्राधिकरण ने 10,753 आवेदनों पर फ़ैसला किया और इस दौरान उसके पास 9,589 आवेदन अभी भी लंबित हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि देर से ही सही लेकिन अगर अभी भी एक निश्चित अवधि के भीतर इन त्वरित विशेष अदालतों का गठन हो जाता है और इनकी अध्यक्षता के लिए यथासंभव महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है तो बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के अपराधियों को समय रहते कठोर सज़ा दिलाना संभव होगा।
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