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सावरकर।

गाँधी पर ज़हर क्यों उगल रहे मोदी के अफ़सर, सावरकर का इतिहास नहीं जानते?

प्रधानमंत्री के प्रिय और वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार संजीव सन्याल ने फ़रमाया कि "गाँधी ने भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों की जान बचाने के लिए कोई कोशिश नहीं की"। मज़ेदार बात यह है कि देश की अर्थव्यवस्था के इस कर्णधार ने देश की डूबती अर्थव्यवस्था पर कोई सफ़ाई देने के बजाए गाँधीजी की नाकामी को रेखांकित किया।
शमसुल इसलाम

आरएसएस-बीजेपी परिवार गाँधीजी को अपमानित और नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं गँवाती है। इस ख़ौफ़नाक यथार्थ को झुठलाना मुश्किल है कि देश में हिंदुत्व राजनीति के उभार के साथ गाँधीजी की हत्या पर ख़ुशी मनाना और हत्यारों का महिमामंडन और उन्हें भगवान का दर्जा देने का एक संयोजित अभियान चलाया जा रहा है। गाँधीजी के शहादत दिवस (जनवरी 30) पर गोडसे की याद में सभाएँ की जाती हैं, उसके मंदिर, जहाँ उसकी मूर्तियाँ स्थापित हैं, में पूजा की जाती है। गाँधीजी की हत्या को 'वध' (जिसका मतलब राक्षसों की हत्या है) बताया जाता है।

यह सब कुछ हिंदुत्ववादी संगठनों या लोगों द्वारा ही नहीं किया जा रहा है। मोदी के 2014 में प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही महीनों के बाद बीजेपी के एक वरिष्ठ सांसद साक्षी महाराज ने गोडसे को 'देश-भक्त' घोषित कर दिया। आरएसएस की चहेती साध्वी, प्रज्ञा ठाकुर, जो संसद सदस्य भी हैं, ने 2019 में फिर से गोडसे को देशभक्त क़रार दिया। इस तरह का वीभत्स प्रस्ताव हिन्दुत्वादी शासकों की गोडसे के प्रति प्यार को ही दर्शाता है।

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गाँधीजी फिर निशाने पर

गाँधीजी के ख़िलाफ़ इस अभियान में नवीनतम योगदान प्रधानमंत्री के प्रिय, मुख्य आर्थिक सलाहकार, संजीव सन्याल ने किया है। हाल ही में गुजरात विश्वविद्यालय में ‘भारत के इतिहास के क्रांतिकारियों की याद' शीर्षक पर उन्होंने फ़रमाया कि "गाँधी ने भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों की जान बचाने के लिए कोई कोशिश नहीं की"। मज़ेदार बात यह है कि देश की अर्थव्यवस्था के इस कर्णधार ने देश की डूबती अर्थव्यवस्था पर कोई सफ़ाई देने के बजाए गाँधीजी की नाकामी को रेखांकित किया।

अर्थशास्त्री से इतिहासकार बने, मोदी सरकार के उच्चतम अधिकारियों में से एक, इस क़ाबिल महामहिम ने गाँधीजी के ख़िलाफ़ फ़ैसला अपने इन शब्दों के बावजूद सुना दिया कि "यह कहना मुश्किल है कि महात्मा गाँधी भगत सिंह या किसी दूसरे इंक़लाबी को फाँसी के फंदे से बचा सकते थे क्योंकि हमारे सामने तथ्य मौजूद नहीं हैं।"

गाँधीजी ने क्रांतिकारियों को बचाने की कोशिश की या नहीं, यह विवाद गाँधी-इर्विन बातचीत (मार्च 1931) से जुड़ा एक पुराना विवाद है, लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है कि गाँधीजी की इन शहीदों को फाँसी दिलाने में कोई भूमिका थी। इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि गाँधीजी और शहीदों के बीच गहरे मतभेद थे लेकिन यह कहना कि गाँधीजी उनकी फाँसी के लिए ज़िम्मेदार थे, यह बात दो कारणों से सच नहीं है। एक, लार्ड इर्विन उपनिवेशिक हुक्मरान के तौर पर गाँधीजी की किसी भी सलाह को मानने लिए वचनबद्ध नहीं थे; दो, इंकलाबी स्वयं जान देने के लिए तैयार थे और किसी भी तरह की रियायत नहीं चाहते थे।

शहीदों और आज़ाद हिंद फ़ौज से लगाव का ढकोसला

संजीव सन्याल ने गाँधीजी को क्रांतिकारियों की फाँसी के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए शहीदों की दास्तानों और उनके विमर्श को शिक्षा संस्थानों के पाठ्यकर्म में शामिल करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। उन्होंने यह भी माँग की कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके नेतृत्व में बनी 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' के बारे में भी देश को अवगत कराया जाना चाहिए। सन्याल ने प्रधानमंत्री मोदी को इस बात का श्रेय दिया कि "आज़ादी के 71 साल बाद पहली बार इनको याद किया गया।"

संजीव सन्याल ने गाँधीजी को कठघरे में खड़ा करते समय यह ज़िक्र करना भूल गये कि हिंदुत्व टोली ने किस तरह बेशर्मी से स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शहीदों और नेताजी के साथ ग़द्दारी की थी।

आरएसएस की शहीदी परम्परा से नफ़रत

कोई भी हिंदुस्तानी जो स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को सम्मान देता है उसके लिए यह कितने दुःख और कष्ट की बात हो सकती है कि आरएसएस अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को अच्छी निगाह से नहीं देखता था। आरएसएस के प्रमुख विचारक एम एस गोलवलकर ने शहीदी परम्परा पर अपने मौलिक विचारों को इस तरह रखा:

"निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊँचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे, नहीं माना है। क्योंकि, अंततः वे अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।"

यक़ीनन यही कारण है कि आरएसएस का एक भी स्वयंसेवक अंग्रेज़ शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद होना तो दूर की बात रही; जेल भी नहीं गया।

गोलवलकर भारत माँ पर अपना सब कुछ क़ुर्बान करने वालों को कितनी हीन दृष्टि से देखते थे इसका अंदाज़ा निम्नलिखित शब्दों से भी अच्छी तरह लगाया जा सकता है। श्री गुरुजी वतन पर प्राण न्यौछावर करने वाले महान शहीदों से जो प्रश्न पूछ रहे हैं ऐसा लगता है मानो यह सवाल अंग्रेज़ शासकों की ओर से पूछा जा रहा होः

"अंग्रेजों के प्रति क्रोध के कारण अनेकों ने अद्भुत कारनामे किये। हमारे मन में भी एकाध बार विचार आ सकता है कि हम भी वैसा ही करें। वैसा अद्भुत कार्य करने वाले निःसंदेह आदरणीय हैं। उसमें व्यक्ति की तेजस्विता प्रकट होती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए शहीद होने की सिद्धता झलकती है। परन्तु सोचना चाहिए कि उससे (अर्थात बलिदान से) संपूर्ण राष्ट्रहित साध्य होता है क्या? बलिदान के कारण पूरे समाज में राष्ट्र-हितार्थ सर्वसमर्पण की तेजस्वी वृद्धिगत नहीं होती है।"

1 जून, 1947 को हिन्दू साम्राज्य दिवस के अवसर पर गोलवलकर, ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ भारतीय जनता की लड़ाई के प्रतीक बहादुर शाह ज़फ़र का जिस तरह मज़ाक उड़ाते हैं वह जानने लायक़ हैः

"1857 में हिन्दुस्तान के तथाकथित अंतिम बादशाह बहादुरशाह ने भी निम्न गर्जना की थी...

‘गाज़ियो में बू रहेगी जबतलक ईमान की।

तख़्ते लंदन तक चलेगी तेग़ हिंदोस्तान की।।’

परंतु आख़िर हुआ क्या? सभी जानते हैं वह।" 

यहाँ पर यह बात भी क़ाबिले ज़िक्र है कि आरएसएस जो अपने आप को भारत का धरोहर कहता है उसके 1925 से लेकर 1947 तक के पूरे साहित्य में एक वाक्य भी ऐसा नहीं है जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को गोरे शासकों द्वारा फाँसी दिये जाने के ख़िलाफ़ किसी भी तरह के विरोध का रिकॉर्ड हो।

आरएसएस के 'वीर' सावरकर ने किस तरह नेताजी की पीठ में छुरा घोंपा

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब नेताजी देश की आज़ादी के लिए विदेशी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे और अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज को पूर्वोत्तर भारत में सैनिक अभियान के लिए लामबंद कर रहे थे, तभी सावरकर अंग्रेजों को पूर्ण सैनिक सहयोग की पेशकश कर रहे थे। 1941 में भागलपुर में हिंदू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने अंग्रेज़ शासकों के साथ सहयोग करने की अपनी नीति का इन शब्दों में ख़ुलासा किया- 

"देश भर के हिंदू संगठनवादियों (अर्थात हिंदू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिंदुओं को हथियार बंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौक़ा भी।"

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अंग्रेज़ों की मदद का आह्वान

सावरकर ने आगे कहा, "इन दोनों का तकाजा है कि सैन्यीकरण आंदोलन को तेज़ किया जाए और हर गाँव-शहर में हिंदू महासभा की शाखाएँ हिंदुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़ें।"

सावरकर ने अपने इस भाषण में किस शर्मनाक हद तक सुभाष चंद्र बोस के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की मदद करने का आह्वान किया वह इन शब्दों से बखू़बी स्पष्ट हो जाएगा। सावरकर ने कहा, 

"जहाँ तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूति पूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फ़ायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वग़ैरह में प्रवेश करना चाहिए।"

सावरकर ने हिंदुओं का आह्वान किया कि हिंदू सैनिक हिंदू संगठनवाद की भावना से लाखों की संख्या में ब्रिटिश थल सेना, नौ सेना और हवाई सेना में भर जाएँ। 

जब सुभाष चंद्र बोस सैन्य संघर्ष के ज़रिए अंग्रेज़ी राज को उखाड़ फेंकने की रणनीति बना रहे थे तब ब्रिटिश युद्ध प्रयासों को सावरकर का पूर्ण समर्थन एक अच्छी तरह सोची-समझी हिंदुत्ववादी रणनीति का परिणाम था।

सावरकर का पुख़्ता विश्वास था कि ब्रिटिश साम्राज्य कभी नहीं हारेगा और सत्ता एवं शक्ति के पुजारी के रूप में सावरकर का साफ़ मत था कि अंग्रेज़ शासकों के साथ दोस्ती करने में ही उनकी हिंदुत्ववादी राजनीति का भविष्य निहित है।

मदुरा में उनका अध्यक्षीय भाषण ब्रिटिश साम्राज्यवादी चालों के प्रति पूर्ण समर्थन का ही जीवंत प्रमाण था। उन्होंने भारत को आज़ाद कराने के नेताजी के प्रयासों को पूरी तरह खारिज कर दिया। उन्होंने घोषणा की-

"व्यावहारिक राजनीति के आधार पर हम हिंदू महासभा संगठन की ओर से मजबूर हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में किसी सशस्त्र प्रतिरोध में ख़ुद को शरीक न करें।"

युद्ध प्रयासों में अंग्रेज़ों को सहयोग देने के हिंदू महासभा के फ़ैसले की आलोचनाओं को उन्होंने यह कहकर खारिज कर दिया कि इस मामले में अंग्रेज़ों का विरोध करना एक ऐसी राजनैतिक ग़लती है जो भारतीय लोग अक्सर करते हैं।

संजीव सन्याल जैसे हिन्दुत्वादी प्यादे चाहे जितनी भी लफ़्फ़ाज़ी या लीपापोती कर लें लेकिन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के महान स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस-बीजेपी और इनके सावरकरवादी पूर्वजों की दस्तानों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। आज़ादी के लिए जिन हज़ारों-हज़ार लोगों ने अपनी जानों की आहूति दी उनके ख़ून के छींटे किनकी आस्तीनों पर पड़े थे उनको कोई भी धुलाई मिटा नहीं पाएगी।

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