सर्वोच्च न्यायालय ने देश की महिलाओं के पक्ष में एक ऐतिहासिक फ़ैसला कर दिया है। उसने भारत की फौज में महिलाओं को पक्की नौकरियाँ देने का प्रावधान कर दिया है।
अब तक फौज में महिलाओं को अस्थायी या कच्ची नौकरियाँ ही मिलती थीं। यानी उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा 14 साल तक काम करने की इजाजत ही मिलती थी। लेकिन अब वे बाकायदा अन्य पुरुष फौजियों की तरह सेवा-निवृत्त होंगी और उन्हें पेंशन भी मिला करेगी। इतना ही नहीं, अस्थायी या कच्ची नौकरी में उन्हें वास्तविक फौजी ज़िम्मेदारी नहीं दी जाती थी। वे न तो युद्ध लड़ सकती थीं और न ही फौज के किसी ऊँचे पद पर रह सकती थीं।
उन्हें जो काम दिए जाते थे, वे ग़ैर-फौजी और ग़ैर-लड़ाकू क़िस्म के होते थे। जैसे डॉक्टर, नर्स, क्लर्क, चौकीदार, सिग्नली आदि के काम लेकिन अब अदालत ने उनके लिए फौज के सारे दरवाजे खोल दिए हैं।
कोई आश्चर्य नहीं कि किसी दिन हम सुनेंगे कि भारत की सेनापति कोई महिला है। अभी हमारी फौज की तीनों शाखाओं में कुल मिलाकर 10 हज़ार महिलाएँ भी नहीं हैं यानी उनकी संख्या एक प्रतिशत भी नहीं है, जबकि अमेरिका में उनकी संख्या 20 प्रतिशत और ब्रिटेन में 9 प्रतिशत है।
भारत ही नहीं, दुनिया के लगभग सभी देशों में महिलाओं को फौज में बहुत कम स्थान मिलता रहा है। इसके कई कारण बताए जाते हैं। जैसे उनका गर्भवती होना, बच्चों के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी, शारीरिक कमजोरी, व्यभिचार और बलात्कार की आशंकाएँ आदि! इन कारणों में कुछ दम ज़रूर है लेकिन इनके समाधान भी उपलब्ध हैं।
हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा है कि यह दुनिया पुरुषप्रधान है और पुरुषों के पक्ष में ही सारे फ़ैसले करती है लेकिन इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने जब भी कोई ज़िम्मेदारी संभाली है, उन्होंने कई बार पुरुषों से भी कहीं अधिक चमत्कारी परिणाम लाकर दिखाए हैं।
क्या हम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करिश्मे को भुला सकते हैं? महारानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, अहिल्याबाई, रजिया सुल्तान, गोल्डा मीयर, मार्गेरेट थेचर, थेरेसा मे, बेनजीर भुट्टो, शेख हसीना और एंजला मार्केल जैसी महिलाओं की क्षमता और योग्यता से क्या हम अपरिचित हैं?
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