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डिजिटल मीडिया का गला घोंट देगी यह गाइडलाइन

सरकार की नीयत पर सबसे पहला सवाल इसी तथ्य से उठ खड़ा होता है कि देश की आधी से ज़्यादा आबादी को प्रभावित करने वाले सोशल और डिजिटल मीडिया के नियमन को लाने के पहले इस पर देश भर में व्यापक चर्चा क्यों नहीं हुई? सरकार इसे चुपचाप क्यों ले आई?
क़मर वहीद नक़वी

आख़िर मोदी सरकार ने अपना इरादा साफ़ कर दिया है कि वह सोशल और डिजिटल मीडिया पर नकेल कस कर ही रहेगी। वैसे अगर मान भी लें कि सरकार का कोई इरादा डिजिटल मीडिया पर दबाव डालने और अंकुश लगाने का नहीं है, तब भी अगर डिजिटल मीडिया के लिए लाई गई गाइडलाइन और इसके प्रावधान लागू हो गये तो डिजिटल दुनिया में जो वैकल्पिक और स्वतंत्र मीडिया उभर रहा था, उसकी सारी सम्भावनाएँ धूमिल हो जाएँगी। कारण यह है कि सरकार ने डिजिटल मीडिया पर लगाम लगाने की हड़बड़ी में डिजिटल मीडिया के व्यावहारिक पक्षों, उसके अति सीमित संसाधनों पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। 

सरकार ने दरअसल, टीवी न्यूज़ चैनलों के रेगुलेटरी मैकेनिज़्म को जस का तस कॉपी-पेस्ट करके डिजिटल मीडिया के लिए पेश कर दिया, बिना इस बात का अनुमान किये कि इन गाइडलाइन का पालन कर पाना डिजिटल मीडिया के लिए बिलकुल भी सम्भव नहीं है। क्यों और गाइडलाइन से क्या व्यावहारिक दिक़्क़तें होंगी, हम एक-एक करके इसकी पड़ताल करते हैं।

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सरकार को चुभ रहा है सोशल मीडिया?

आख़िर सरकार को डिजिटल मीडिया से परेशानी क्यों है? क्येंकि पिछले कुछ महीनों से सरकार लगातार संकेत दे रही थी कि उसे डिजिटल मीडिया की स्वतंत्रता बुरी तरह चुभ रही है।

पिछले दिनों जब अदालतों में टीवी न्यूज़ चैनलों की कुछ कवरेज को लेकर सवाल गूँजे, तो हर बार सरकार का कहना था कि टीवी न्यूज़ चैनल तो कमोबेश ठीक ही काम कर रहे हैं, ज़रूरत डिजिटल मीडिया के नियमन की है। सरकार की इस चिन्ता की वजह क्या है?

अख़बार

आज हमारे पास ख़बरों के मुख्यत: तीन स्रोत हैं, अख़बार, न्यूज़ चैनल और डिजिटल वेब पोर्टल। वैसे तो देश भर में एक लाख से ज्यादा अख़बार होंगे, लेकिन अख़बारों से सरकार को कोई परेशानी नहीं है क्योंकि इन एक लाख अख़बारों में से केवल कुछ गिने-चुने अख़बार बड़ी मीडिया कंपनियों के ही हैं, जो बहुत ज़्यादा लोगों तक पहुँचते हैं। इन बड़ी कंपनियों के अपने बड़े-बड़े कारोबारी हित हैं, और इसलिए ज़ाहिर-सी बात है कि उनकी अपनी सीमाएँ है।

Social and Digital Media Guidelines to strangulate Digital Media2 - Satya Hindi

बाक़ी कुछ मँझोले अख़बार हैं, जो बहुत सीमित संसाधनों में काम करते हैं और उनकी पाठक संख्या बहुत सीमित है। सरकार के लिए वे कभी परेशानी नहीं बन सकते।

तीसरी सबसे बड़ी श्रेणी छोटे और बहुत छोटे अख़बारों की है, ऐसे हज़ारों अख़बार निकलते हैं, लेकिन उनकी कितनी प्रतियाँ छपती हैं और कहाँ बँटती हैं, किसी को पता नहीं। इसलिए उनसे भी सरकारों को कोई समस्या नहीं।

फिर अख़बारों के लिए पहले ही प्रेस काउंसिल नाम की वैधानिक संस्था है। उसे छेड़ने के लिए नया क़ानून बनाना पड़ेगा। तो सरकार क्यों बेकार की झंझट में पड़े, जब उसे अख़बारों से कोई दिक़्क़त ही नहीं है!

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टीवी

दूसरी तरफ़, ज़्यादातर टीवी न्यूज़ चैनलों पर तो 'गोदी मीडिया' का ठप्पा पहले ही लग चुका है, वे तो सरकारी ढफली बन ही चुके हैं, इसलिए उनकी तो बात ही बेकार है।

डिजिटल मीडिया

अब बच गया डिजिटल मीडिया, जिसमें देश भर के बड़े-छोटे शहरों से लेकर गाँवों-क़स्बों तक से लाखों न्यूज़ पोर्टल चल रहे हैं। इनमें से ज़्यादातर में कोई बड़ी पूँजी नहीं लगी है। कुछ वेबसाइट और यूट्यूब चैनल तो बहुत-से पत्रकार केवल अकेले अपने दम पर चला रहे हैं। इनमें से बहुत से पोर्टल गूगल और फ़ेसबुक से मिलने वाले विज्ञापन और अपने पाठकों से मिलने वाले आर्थिक सहयोग पर ही ज़िन्दा हैं। इसलिए इन पर न कोई कॉरपोरेट दबाव है और न कोई राजनीतिक दबाव। वे बेबाकी से ख़बरों के उन पक्षों को सामने ला रहे हैं, जो आमतौर पर मुख्यधारा के मीडिया के फ़ोकस से ग़ायब रहते हैं।

ख़ासतौर से डिजिटल मीडिया पर लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों के पलायन की देशव्यापी कवरेज और हाल के किसान आन्दोलन की कवरेज उल्लेखनीय रही है। 

डिजिटल मीडिया एक प्रभावी भूमिका में तेज़ी से उभर रहा है और सरकार के लिए चुनौती पेश कर रहा है। ऐसे में इन न्यूज़ पोर्टलों पर लगाम कैसे लगाई जाए? जवाब है, ताज़ा-ताज़ा आई गाइडलाइन।

क्या कहना है सरकार का?

हालाँकि सरकार ने सोशल और डिजिटल मीडिया के लिए गाइडलाइन जारी करते हुए अपनी कार्रवाई के पक्ष में जो कारण गिनाये हैं, वे सभी बिलकुल जायज़ हैं, इससे इनकार नहीं। सरकार का यह भी कहना है कि उसने सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और यूरोपियन यूनियन के मॉडलों का अध्य्यन करने के बाद ये गाइडलाइन्स बनाई हैं और इसे बहुत ही 'नरम' रखा है क्योंकि सरकार लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आलोचना और असहमति के अधिकार का पूरा सम्मान करती है।

सरकार का यह भी कहना है कि यह गाइडलाइन 'सेल्फ़ रेगुलेशन' यानी स्व-नियमन के ज़रिये लागू होगी। ऊपर से देखने में तो यह सभी बातें बड़ी आदर्शवादी लगती हैं, लेकिन सचमुच में ऐसा है क्या?

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नीयत पर संदेह

सरकार की नीयत पर सबसे पहला सवाल इसी तथ्य से उठ खड़ा होता है कि देश की आधी से ज़्यादा आबादी को प्रभावित करने वाले सोशल और डिजिटल मीडिया के नियमन को लाने के पहले इस पर देश भर में व्यापक चर्चा क्यों नहीं हुई? सरकार इसे चुपचाप क्यों ले आई?

इस गाइडलाइन के लिए जारी सरकारी विज्ञप्ति ही सरकार की पोल खोल देती है। विज्ञप्ति में कहा गया है कि दो साल पहले यानी दिसम्बर 2018 में इस गाइडलाइन का मसौदा तैयार हुआ और लोगों से उनकी राय माँगी गई।

सरकार को इस पर कुल 171 टिप्पणियाँ मिलीं और इन टिप्पणियों पर 80 प्रतिक्रियाएँ मिलीं। यानी दोनों को जोड़ दें तो कुल 251 टिप्पणियाँ हुईं। बताइए भला कि सवा अरब की आबादी वाले देश में केवल 251 टिप्पणियों का क्या मतलब है?

सरकार ख़ुद आँकड़ा पेश कर रही है कि देश में 53 करोड़ लोग व्हाट्सऐप का और 41 करोड़ लोग फ़ेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। तो दो साल में इतने गम्भीर मुद्दे पर केवल इतनी कम टिप्पणियाँ क्यों आई?

ज़ाहिर है कि सरकार यह सब गुपचुप करना चाहती थी। अगर सरकार की मंशा सही होती तो उसे इस मुद्दे पर देश भर में पत्रकारों, फ़िल्मकारों, वकीलों, क़ानूनविदों, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और तमाम राजनीतिक दलों से व्यापक चर्चा और सलाह-मशविरा कर एक सहमति बनानी चाहिए थी।

गाइडलाइन लागू कैसे होगी?

अब ज़रा इस बारीकी को समझिए कि यह गाइडलाइन लागू कैसे होगी? सारा खेल समझ में आ जाएगा।

कहा गया है कि न्यूज़ पोर्टल 'स्व-नियमन' करेंगे। हर न्यूज़ पोर्टल अपना एक 'शिकायत अधिकारी' नियुक्त करेगा। हालाँकि सरकार ने 'स्व-नियमन' के पूरे मैकेनिज़्म की विस्तार से जानकारी नहीं दी है, लेकिन यह स्वाभाविक लगता है कि पोर्टल का संपादक ख़ुद 'शिकायत अधिकारी' हो नहीं सकता, आख़िर आप अपने ही ख़िलाफ़ मिली शिकायत का निपटारा कैसे करेंगे? और संपादक के नीचे काम करने वाला कोई सहयोगी भी 'शिकायत अधिकारी' नहीं बन सकता। ज़ाहिर-सी बात है कि शिकायत अधिकारी वही बन सकता है, जो संपादक की हैसियत से 'अप्रभावित' हो।

तमाम छोटे न्यूज़ पोर्टल कहाँ से 'शिकायत अधिकारी' ढूँढ कर लाएँगे और कैसे उसका ख़र्च उठाएँगे?

शिकायतों से कैसे निबटेंगे?

 अब आगे देखिए। गाइडलाइन कहती है कि न्यूज़ पोर्टल को उनके कंटेंट को लेकर जो शिकायतें मिलेंगी, उन्हें 24 घंटे के भीतर उसकी प्राप्ति की सूचना शिकायतकर्ता को भेजनी होगी और पन्द्रह दिनों में 'शिकायत अधिकारी' को उसकी जाँच कर फ़ैसला करना होगा। ख़बर में अगर कोई गड़बड़ी मिली तो अपनी वेबसाइट पर एक निश्चित स्थान पर खेद सहित संशोधन छापना होगा। और हर महीने सूचना प्रसारण मंत्रालय को रिपोर्ट देनी होगी कि कुल कितनी शिकायतें मिलीं और उनका क्या निपटारा किया गया। 

किसी छोटे न्यूज़ पोर्टल के लिए यह काम कितना कठिन है, यह आसानी से समझा जा सकता है।

अब ज़रा इस स्थिति की कल्पना कीजिए कि अगर एक कुख्यात आइटी सेल की लाखों की 'ट्रोल सेना' रोज़ आपके मेल बॉक्स को हज़ारों फ़र्ज़ी शिकायतों से भर दे, तो आप क्या करेंगे? कैसे उनसे निबटेंगे? ज़ाहिर है कि शिकायतों की ऐसी बमबारी का सामना न्यूज़ पोर्टल नहीं कर पाएँगे और घुटने टेकने को मजबूर हो जाएँगे।

स्व-नियमन का पेंच!

अब 'स्व-नियमन' के अगले यानी दूसरे चरण पर आइए। न्यूज़ पोर्टल अपनी एसोसिएशनें बनाएँगे और उनकी एसोसिएशन के तहत एक 'सेल्फ़ रेगुलेटरी अथॉरिटी' बनेगी, जिसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट का रिटायर्ड जज करेगा और कुछ गणमान्य लोग इसके सदस्य होंगे। कंटेंट को लेकर इस अथॉरिटी में भी शिकायत की जा सकती है, जो मामले की परख कर फ़ैसला देगी। इस अथॉरिटी के फ़ैसले उन्हीं पोर्टलों पर लागू होंगे, जो उसकी एसोसिएशन के सदस्य होंगे। अब इसमें बड़ा पेंच है। कैसे? देखते हैं।

मिसाल के तौर पर देश में अभी राष्ट्रीय स्तर पर टीवी न्यूज़ चैनलों की दो बड़ी एसोसिएशनें हैं। न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन यानी एनबीए, जिसकी स्थापना 2007 में हुई। 26 मीडिया कंपनियों के कुल 77 चैनल इसके तहत आते हैं। अर्णब गोस्वामी के नेतृत्व में बने न्यूज़ ब्रॉडकॉस्टर्स फ़ेडरेशन यानी एनबीएफ़ का दावा है कि 78 राष्ट्रीय और क्षेत्रीय चैनल उसके सदस्य हैं। 

दरअसल, एनबीएफ़ का जन्म ही इसलिए हुआ कि एक मामले में एनबीए की 'न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी' यानी एनबीएसए ने अर्णब के ख़िलाफ़ मिली एक शिकायत को सही मान कर उन्हें 'बिना शर्त माफ़ी माँगने' का निर्देश दिया। एनबीएसए के निर्देश को मुँह चिढ़ाते हुए अर्णब ने अपना अलग एनबीएफ़ बना लिया। और क्या आपने कभी सुना कि एनबीएफ़ ने किसी मामले में अर्णब के चैनल की किसी कवरेज को ग़लत पाया हो? और फिर ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि एनबीएसए के फ़ैसले को न मान कर लोग एनबीए से अलग हुए हों। पहले भी कुछ मौक़ों पर कुछ लोग अलग हो गये, कुछ अलग हो कर वापस लौट आए। 

ज़ाहिर-सी बात है कि 'स्व-नियमन' का यह पूरा तंत्र एक ढकोसले से ज़्यादा कुछ नहीं है।

खर्च कैसे उठाएंगे?

देश भर में क़रीब चार सौ न्यूज़ चैनल हैं। एनबीए और एनबीएफ़ के दावों को सही मानें तो इनमें से कुल 155 न्यूज़ चैनल इन दो एसोसिएशनों के तहत आते हैं। बाक़ी के क़रीब ढाई सौ न्यूज़ चैनल किस 'स्व-नियमन' के तहत आते हैं, मुझे नहीं पता। अब यही मॉडल डिजिटल मीडिया के लिए भला कैसे लागू हो पाएगा?

क्योंकि देश में आज लाखों न्यूज़ पोर्टल होंगे, ऐसे में शायद उनकी सैकड़ों एसोसिएशनें बनेंगी, उनका ख़र्च वे न्यूज़ पोर्टल कैसे उठा पाएँगे, जो बहुत सीमित संसाधनों में काम करते हैं? इनमें किस एसोसिएशन के राजनीतिक तार कहाँ जुड़ेंगे और वे 'स्व-नियमन' की क्या चटनी बनाएँगी, कौन कह सकता है।

मुझे लगता है कि इससे डिजिटल मीडिया की स्थिति सुधरने के बजाय कहीं ज़्यादा बिगड़ जाएगी।

फिर देश में हज़ारों यूट्यूबर हैं, ब्लॉगर हैं, जो डिजिटल मीडिया में न्यूज़ रिपोर्टिंग, समाचार विश्लेषण करते हैं, वे किस एसोसिएशन से जुड़ेंगे?

कैसे उनका नियमन होगा, यह स्थिति स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि सरकार उन्हें भी नियमन के दायरे में लाएगी। 

बहरहाल, तथाकथित 'स्व-नियमन' के इस दूसरे स्तर के बाद तीसरा स्तर आता है, सरकार की अन्तर-मंत्रालयी समिति द्वारा किये जाने वाले नियमन का। यानी अगर शिकायतकर्ता 'स्व-नियमन अथॉरिटी' के फ़ैसले से सन्तुष्ट न हो तो वह सूचना प्रसारण मंत्रालय को शिकायत कर सकता है या सरकार की अन्तर-मंत्रालयी समिति ख़ुद ही मामले की जाँच सीधे अपने हाथ में ले सकती है। यानी अन्तिम लगाम तो सरकार के हाथ में ही है कि वह किस कंटेंट को आपत्तिजनक मान ले और किसे नहीं। 

सरकारी हस्तक्षेप

यह बात मैं केवल कल्पना के आधार पर नहीं कह रहा हूँ। ऐसी अन्तर-मंत्रालयी समिति अभी भी न्यूज़ चैनलों के मामले में अस्तित्व में है। पिछले दस-बारह वर्षों में ऐसे कई छोटे-बड़े मामले आये जहाँ केंद्र सरकार की अंतर-मंत्रालयी समिति ने एनबीएसए की पूरी तरह अनदेखी करते हुए हस्तक्षेप और कार्रवाई की। और ऐसा भी हुआ है, जब किसी एक चैनल को चुन कर निशाना बनाया गया।

पठानकोट आतंकी हमले की कवरेज कमोबेश सभी चैनलों ने लगभग एक ही तरीक़े से की थी, लेकिन सरकार ने एनबीएसए की बिलकुल उपेक्षा कर इस मामले को सीधे अपने हाथ में ले लिया और एनडीटीवी को 'ऑफ़ एअर' कर दिया, जबकि उसी तरह के दूसरे मामलों में कुछ चैनलों को नोटिस आदि देकर मामला ख़त्म कर दिया।

यहाँ यह बात याद रखनी चाहिए कि सरकार चाहे किसी भी दल की हो, उसका अपना एक राजनीतिक एजेंडा होता ही है और होगा ही। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं।

चूँकि सरकार का अपना एक अलग पक्ष होता है, इसलिए वह एक ही साथ पक्षकार और जज दोनों नहीं हो सकती।

मीडिया पर बढ़ेगा दबाव

राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त समेत कई पत्रकारों पर अलग-अलग मामलों में सरकारों ने गम्भीर धाराओं में कई मामले दर्ज कराए, जबकि दूसरे बहुत-से मामलों में सरकारें मुँह फेर कर बैठी रहीं। यही नहीं, हाल के दिनों में तो कुछ राज्यों में सरकारों ने बहुत छोटे-छोटे मामलों में पत्रकारों के ख़िलाफ़ मुक़दमे दर्ज किए। उत्तर प्रदेश में उस पत्रकार की क्या ग़लती थी, जो सरकार की नज़रों के सामने यह सच्चाई लाना चाहता था कि मिड डे मील में कैसी गड़बड़ी की जा रही है! 

तो अगर स्थानीय स्तर पर चल रहे मिड डे मील के घोटाले का भंडाफोड़ किसी सरकार को नागवार गुज़रे, तो बड़े मामलों के भंडाफोड़ पर सरकारों का रुख़ क्या हो सकता है, यह आसानी से समझा जा सकता है। 

मीडिया के कंटेंट नियमन की लगाम जब तक किसी भी रूप में सरकार के हाथ में रहेगी, तब तक मीडिया स्वतंत्र और दबावमुक्त रूप से अपना काम कभी नहीं कर सकता, सरकार चाहे कैसी भी हो और किसी भी दल की हो।

आज विभिन्न रूपों और माध्यमों के ज़रिये मीडिया का जैसा विस्तार हो रहा है, उसे देखते हुए मीडिया के कंटेंट नियमन का कोई ठोस उपकरण ज़रूर होना चाहिए, लेकिन इसे पूरी तरह स्वायत्त, स्वतंत्र, सरकारी दबाव से मुक्त और सांविधानिक संस्था के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए।

दूसरी बात यह कि आज 'कन्वर्जेन्स' का दौर है, अख़बार और टीवी चैनलों का कंटेंट भी उनके पोर्टलों और ऐप पर जाता है। इसलिए एक व्यापक मीडिया कंटेंट काउंसिल होनी चाहिए, जिसकी राज्य इकाइयाँ हों जो राज्यों में काम करें। ठीक वैसे ही जैसे सुप्रीम कोर्ट और राज्यों का मौजूदा ढाँचा, वैसा ही ढाँचा मीडिया काउंसिल का बनाया जा सकता है, नियुक्तियों के लिए कॉलेजियम जैसी ही व्यवस्था की जा सकती है।

जितने भी न्यूज़ आउटलेट हों, वे इस काउंसिल को सदस्यता शुल्क चुकाएँ और केंद्र व राज्य सरकारों का एक मिला-जुला वित्तीय पूल हो, जिससे काउंसिल के ख़र्चों के लिए कोष मिलता रहे, तब जा कर हम एक ऐसी नियमन व्यवस्था की बात सोच सकते हैं, जिसके फ़ैसलों में मनमर्ज़ी की गुंजाइश नहीं होगी या कम से कम होगी।

लेकिन यह तभी होगा जब हम, हमारे राजनीतिक दल और हमारी सरकारें ईमानदारी से मीडिया की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के हितों की बात सोचें।

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