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किसान आंदोलन: सोशलिज़्म का भूत उतारिए

हम हिंदुस्तानी इमोशनल होते हैं और इसलिए अतीत से ज़रा ज़्यादा ही जुड़े होते हैं। पिछले 30 वर्षों में भारत कितना बदल गया, यह बताने की ज़रूरत भी नहीं है लेकिन हम मानसिक रूप से अभी भी उसी युग में जी रहे हैं। हम इस बदलती दुनिया के मजे तो लेते रहते हैं लेकिन बातें करते हैं उसी सोशलिज़्म की जिसने एक सुनहरे भविष्य का सपना दिखाया था। हर चर्चा में हम सोशलिज़्म की, अति ग़रीबी की, गाँवों की दुर्दशा की बातें करते हैं और यह भूल जाते हैं कि भारत में ग़रीबी रेखा से नीचे लोगों की तादाद तेज़ी से घटी है।

आज किसानों के आंदोलन के समय भी एक तबक़ा तीन कृषि क़ानूनों का विरोध महज़ इस आधार पर कर रहा है कि इससे कॉर्पोरेट घरानों की ज़ेबें भरेंगी और किसान कंगाल हो जायेगा। कृषि क़ानून में कई ख़ामियाँ हैं, उसे ठीक करने की ज़रूरत है पर समाजवादी सोच के आधार पर इसका विरोध जायज़ नहीं है।

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आज से तीस साल पहले गाँवों में चिथड़े पहने बच्चों को आसानी से देखा जा सकता था लेकिन आज उसमें बहुत बदलाव आया है। ऐसा नहीं है कि ग़रीबी नहीं है और दरिद्रनारायण ग़ायब हो गए हैं लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हीं गाँवों में अब गाड़ियाँ भी दौड़ती हैं और मोटरसाइकिलों पर सवार लोग इतराते भी हैं।

छिद्रान्वेषी इन बातों को महज हवा-हवाई कहकर खारिज कर देंगे। लेकिन आँकड़े जो कहते हैं उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता है। 

देश के साढ़े छह लाख गाँवों में से छह लाख गाँव ऐसे हैं जहाँ बिजली पहुँच गई है, हालाँकि सरकार का दावा है कि देश के हर गाँव में बिजली आ गई है। देश के सात राज्य तो ऐसे हैं जहाँ घर-घर बिजली है। बिजली एक आर्थिक संकेतक है जो बताती है कि वहाँ दरिद्रता नहीं के बराबर है, ग़रीबी हो सकती है।

ठीक इसी तरह अगर हम गाँवों पर ख़र्च की जाने वाली रक़म की बातें करेंगे तो इसमें लगातार बढ़ोतरी हो रही है। पिछले बजट में केन्द्र सरकार ने गाँवों के लिए ढाई लाख करोड़ रुपए आवंटित किए थे। इसके अलावा क़रीब-क़रीब हर राज्य अपने गाँवों के लिए कुछ बड़ी-छोटी योजनाएँ बनाता ही है। पिछले कुछ वर्षों से ग्रामीण बजट में लगातार बढ़ोतरी होती रही है। भारत में 86 प्रतिशत किसान सीमांत यानी इतने छोटे किसान हैं कि अपनी उपज बहुत कम ही बेच पाते हैं और स्वयं खपत करते हैं।

जिन किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का फ़ायदा मिल रहा है उनके लिए कृषि भले ही फ़ायदे का सौदा न हो, घाटे का भी नहीं है। यही कारण है कि भारत 30 अरब डॉलर के मूल्य के कृषि उत्पादों का निर्यात करता है।

यह भी उतना ही सच है कि इससे होने वाली आय का बड़ा हिस्सा बिचौलिये ही हड़प लेते हैं।

अगर हम यह जानने की कोशिश करें कि भारत के गाँवों में कितनी समृद्धि है तो इसका पैमाना खरीदारी या खपत हो सकता है। हमारे देश के गाँवों में जो सामान समृद्धि का प्रतीक है वह है मोटर साइकिल। जी हाँ आज भी गाँवों में इसका अपना महत्व है और यह उनकी अमीरी जताता है। पिछले दस वर्षों में देश में मोटर साइकिल की बिक्री हर साल बढ़ती रही है और अब यह दुगनी हो गई है। 2019 में भारत में 21 लाख मोटर साइकिलें बिकीं और इनका बड़ा हिस्सा ग्रामीण भारत में गया। इसे ही देखते हुए मोटर साइकिल बनाने वाली कंपनियों ने बड़ी तादाद में ग्रामीण एग्जीक्युटिव बहाल किए हैं और उनका नारा है- हर गाँव और हर आँगन।

socialists against new farm laws as farmers protest intensify - Satya Hindi
सिंघु बॉर्डर पर किसान। फ़ोटो साभार: फ़ेसबुक/पुष्कर राजन व्यास

2007 के बाद से गाँवों में बाइक क्रांति देखी जा रही है। इसका एक कारण यह भी रहा है कि गाँवों में सड़कें भी लगातार बनती जा रही हैं जिसने इनकी बिक्री को सहारा दिया है। 

ट्रैक्टर समृद्धि का पैमाना! 

समृद्धि का दूसरा बड़ा पैमाना है ट्रैक्टर। मोटर साइकिलों की तरह ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा ट्रैक्टर निर्माता देश है। इस साल ट्रैक्टरों की रिकॉर्ड बिक्री हुई है। 2020 के पहले नौ महीनों में ट्रैक्टरों की बिक्री 5 लाख को पार कर गई थी। यानी हर महीने 65,262 ट्रैक्टर। अकेले सितंबर महीने में ट्रैक्टरों की बिक्री एक लाख को पार कर गई है। बढ़िया मानसून, बढ़िया फ़सल, सरकार की ग्रामीण विकास स्कीमों तथा गेहूँ-चावल की सरकारी एजेंसियों द्वारा बड़े पैमाने पर खरीदारी ने ट्रैक्टर बाज़ार में ज़बर्दस्त तेज़ी ला दी। इस साल धान की रिकॉर्ड बुवाई ने ट्रैक्टर बाज़ार को गर्म कर दिया है।

कंज्यूमर गुड्स एक बड़ा पैमाना हो सकता है, देश के गाँवों की आर्थिक स्थिति बताने के लिए। आँकड़े बताते हैं कि देश के गाँवों में ऐसे सामानों जैसे साबुन, चाय, तेल, टूथपेस्ट, डेरी उत्पादों वगैरह की बिक्री उनका कुल बिक्री का 36 प्रतिशत होता है। देश की तमाम बड़ी कंपनियाँ इस समय गाँवों को फोकस कर रही हैं और उसके लिए मार्केटिंग टीमें बना चुकी हैं। 2008 के बाद से गाँवों में इनकी बिक्री लगातार बढ़ रही है। हिन्दुस्तान यूनिलीवर जैसी बड़ी कंपनियों की बिक्री का बड़ा हिस्सा अब गाँवों से ही आता है। आने वाले समय में जैसे-जैसे सरकार की ओर से धन का आवंटन बढ़ेगा, गाँवों की खरीदने की क्षमता भी बढ़ेगी।

मनरेगा की भले ही कुछ आलोचना होती रहती है लेकिन सच्चाई है कि इसने छोटे किसानों, खेतिहर मज़दूरों को बड़ा सहारा दिया है। मनमोहन सिंह सरकार की यह एक बहुत बड़ी देन रही है।

जिन ज़िलों में प्रशासन ने सख़्ती से काम करवाया वहाँ उन्हें तीन महीनों से भी ज़्यादा समय के लिए धन की व्यवस्था हो रही है। इसके अलावा इसने एक तरह से न्यूनतम मज़दूरी भी तय करने में बड़ी भूमिका निभाई है। इसके कारण ही गाँवों में दैनिक पारिश्रमिक की दरों में बढ़ोतरी हुई है। यह ग़रीबी से लड़ने का बड़ा हथियार बना है।

यह भी सही है कि आज भी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों गाँवों में रह रहे महादलितों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है और वे कठिन ज़िंदगी जी रहे हैं। उनके पास आजीविका के साधन नहीं के बराबर हैं। वे दरिद्रता की ज़िंदगी से बाहर निकल नहीं पा रहे हैं। सरकारों को वाक़ई उनके लिए कई तरह की योजनाएँ बनानी होंगी और उनके आवंटन के लिए प्रयास करना होगा।

फिर भी यह सच है कि पिछले तीस वर्षों में गाँवों की हालत में काफ़ी सुधार हुआ है और जिन राज्यों में प्रशासन चुस्त-दुरस्त है वहाँ हालात बहुत सुधरे हैं। आज गाँवों में मोटर साइकिलें ही नहीं गाड़ियाँ भी बहुत बड़ी तादाद में दिख रही हैं। वे लोग जो सोशलिज़्म की बातें करते हैं या इस मुद्दे पर सिर्फ़ आलोचना करते हैं उन्हें अपना यह चश्मा उतारकर देखना चाहिए। हालात बदले हैं, बेशक पूरी तरह नहीं।

वीडियो चर्चा देखिए, सरकार के जाल में फँस गए किसान?
इस बदलाव के लिये किसे क्रेडिट दिया जाये? कौन है इसके लिये ज़िम्मेदार? किसी एक सरकार को ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं है। 1991 में जब देश को सोना गिरवी रखना पड़ा था तो देश आर्थिक सुधार करने के लिये मजबूर हुआ। उस वक़्त यह तर्क दिया गया कि देश एक बार फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का ग़ुलाम हो जायेगा। बाज़ार सब कुछ निगल लेगा। पर हुआ उलटा। सिर्फ़ 2007 से 2017 के बीच 27 करोड़ ग़रीबी की रेखा से ऊपर आये। हालाँकि कोरोना की वजह से इस तबक़े के एक बड़े हिस्से के फिर से ग़रीबी रेखा के नीचे जाने की ख़बर है पर देश में जो आर्थिक बदलाव देखने में मिला है, आनुपातिक समृद्धि दिखाई पड़ रही है उसके लिये वही बाज़ार की ताक़तें ज़िम्मेदार हैं जिनसे डराने की कोशिशें अब भी होती रही है। बाज़ारवाद और समाजवाद में झगड़ा चलता रहेगा लेकिन यह याद रखना होगा कि चीनी आर्थिक क्रांति के जनक तंग शियाओ फंग कहते थे कि बिल्ली काली हो या सफ़ेद क्या फ़र्क़ पड़ता है जब तक वो चूहे मारती है।
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मधुरेंद्र सिन्हा

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