70 साल पहले हम भारत के लोगों ने भारत के संविधान को अपना लिया था। इन 70 वर्षों में संविधान की स्थाई भावना को बदलने की कई बार कोशिश की गयी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट चौकन्ना रहा और जब भी कार्यपालिका और विधायिका ने संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ करने की कोशिश की, कोर्ट ने उन्हें सही रास्ता दिखा दिया। गोलकनाथ केस और केशवानंद भारती केस के ऐतिहासिक मुक़दमे इस बात के पक्के सबूत हैं कि संविधान को बदलने की कोशिश सफल नहीं होने दी गयी लेकिन अब स्थिति बदलती नज़र आ रही है।
इस बार कार्यपालिका ने बिना किसी संविधान संशोधन के ही संविधान की भावना को भटकाने की कोशिश करने का मन बना लिया है। अनुच्छेद 370 को हटाने और नागरिकता संशोधन क़ानून में बदलाव के लिए कोई भी संविधान संशोधन नहीं किया गया है। संसद के साधारण बहुमत के जरिये सरकार ने अपनी मंशा को राष्ट्र पर थोप दिया है। अभी यह विषय सुप्रीम कोर्ट में है लेकिन उससे पहले ही देश की जनता मैदान में उतर चुकी है।
संविधान के केंद्रीय तत्व को बदलने की सरकार की कोशिशों का विरोध पूरे देश में हो रहा है। दिल्ली के शाहीन बाग़ में इकट्ठा हुईं औरतों का विरोध अब संविधान संरक्षण का आंदोलन बन चुका है।
यह सच है कि सेक्युलर शब्द को संविधान की मूल प्रति में शामिल नहीं किया गया था। यह शब्द संविधान की प्रस्तावना में 1976 में 42वें संशोधन के जरिये जोड़ा गया। लेकिन इस आधार पर सेक्युलरिज्म पर सवाल करना कुतर्क है क्योंकि महात्मा गाँधी की अगुवाई में लड़ी गयी देश की आज़ादी की लड़ाई का स्थाई भाव ही सेक्युलर था।
चंपारण में पीर मुहम्मद मूनिस, असहयोग आंदोलन में देवबंद की भूमिका, बंटवारे के दौरान कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी साबित करने की जिन्ना की कोशिश का मुंहतोड़ जवाब, ऐसी घटनाएँ हैं जो इस बात को स्थापित कर देती हैं कि आज़ादी की लड़ाई एक सेक्युलर भारत की स्थापना के लिए लड़ी गयी थी। संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द का न होना ऐसा ही है जैसे उसमें यह न लिखा होना कि गंगा भारत की मुख्य नदी है।
संविधान को नहीं मानता आरएसएस!
आज देश भर के लगभग सभी शहरों में जो लोग संविधान हाथ में लेकर निकल पड़े हैं, वे उसी संविधान की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं जिसका आज तक आरएसएस ने कभी सम्मान नहीं किया। आरएसएस के नेता तो संविधान को ही सही नहीं मानते थे और एक समय उसको बदल डालने की कसमें खाया करते थे। आज उनकी सरकार है तो संविधान को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश हो रही है।
संविधान की प्रस्तावना बदलने की बात
अब तक देश संविधान के अनुसार चलता रहा है। इस बात को प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद नरेंद्र मोदी ने भी स्वीकार किया है लेकिन दोबारा चुनकर आयी उनकी सरकार उस रास्ते से भटकती नज़र आ रही है। बीजेपी के नेता और लेखक अब खुले आम लिखने लगे हैं कि संविधान के सेक्युलर रहने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे संविधान की उस प्रस्तावना को बदलने की बात करने लगे हैं जिसमें लिखा है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है।
संविधान की प्रस्तावना में लिखा है, ‘‘हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवम्बर, 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’
कांग्रेस को बनाए रखा धर्मनिरपेक्ष दल
आज बीजेपी देश की सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन आज़ादी के आंदोलन के दौरान कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी। महात्मा गाँधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और मुहम्मद अली जिन्ना ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था कि वह कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी के रूप में स्थापित कर दें लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाए। महात्मा गाँधी और उनके उत्तराधिकारियों ने कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनाए रखा।
आजकल आरएसएस और बीजेपी के बड़े नेता यह बताने की कोशिश करते हैं कि सरदार पटेल महात्मा गाँधी के असली अनुयायी थे और वे हिन्दू राष्ट्रवादी थे लेकिन यह सरासर ग़लत है।
भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 16 दिसंबर, 1948 को घोषित किया कि उनकी सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष देश बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)।
महात्मा गाँधी के साथ के कांग्रेस नेताओं के निधन के बाद कांग्रेस में भी बहुत से नेता ऐसे हुए जो निजी बातचीत में मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की नसीहत देते पाए जाते थे। नेहरू युग में तो कांग्रेस ने कभी भी धर्मनिरपेक्षता से समझौता नहीं किया लेकिन इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गाँधी अपने छोटे बेटे संजय गाँधी की राजनीतिक समझ को महत्व देने लगी थीं। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस भी हिंदूवादी पार्टी के रूप में पहचान बनाने की दिशा में चल पड़ी। बाद में राजीव गाँधी युग में उनके अनुभव की कमी का लाभ उठाकर कांग्रेस में छुपे साम्प्रदायिक तत्वों ने संविधान की मूल भावना का बहुत नुक़सान किया।
हिन्दू वोट बैंक खींचने की कोशिश
राजीव गाँधी के युग में कॉरपोरेट संस्कृति से आये कुछ नेताओं के निर्देशन में सुनियोजित तरीक़े से दिल्ली के कुछ कांग्रेसी नेताओं ने 1984 में सिखों का कत्लेआम किया, यह धर्मनिरपेक्षता पर बहुत ही ज़बरदस्त हमला था। 80 के दशक में कॉरपोरेट कांग्रेसियों ने राजीव गाँधी से अयोध्या की विवादित बाबरी मसजिद का ताला खुलवाया और राम मंदिर का शिलान्यास भी करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।
कांग्रेस में आये इसी भटकाव का नतीजा है कि आज देश में ऐसी ताक़तें सत्ता में हैं जो भारत की एकता के सबसे बड़े सूत्र संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता को ही समाप्त कर देना चाहती हैं लेकिन संतोष यह है कि इन कोशिशों को जनता की चुनौती मिल रही है।
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