loader

हम सभी हैं ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के सदस्य

तीन साल पहले एक फ़ेक वीडियो को लेकर इतना ज़्यादा हंगामा बरपा कि लोगों में एक अजीब तरह का डर बैठ गया और वे मानने लगे कि देशवासियों की सुरक्षा ख़तरे में है। ऐसा कहा गया कि उस फ़ेक वीडियो में जेएनयू (जवाहर लाल यूनिवर्सिटी) के कुछ छात्रों ने देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे बुलंद किये हैं। देश एकबारगी इस जानकारी से चौंक गया था। 
ताज़ा ख़बरें

कुछ लोग जो कश्मीर को मानचित्र में अंकित एक प्रदेश मानते थे और उसके सियासती पहलुओं से बिलकुल अनजान थे, कुछ जिन्हें बॉर्डर की कोई जानकारी नहीं थी और कुछ जिनका बॉर्डर पर तैनात सैनिकों से कोई वास्ता नहीं था, वे इससे बहुत डर गए थे। वे बहुत व्याकुल और चिंताग्रस्त होकर ड्राइंग रूम से लेकर सड़कों और चौराहों पर यही चर्चा कर रहे थे कि यह देश जो कि ख़तरे में पड़ गया है उसे बचाया कैसे जाये? और इस तरह पहली बार एक निहायत मुखर राजनीतिक नैरेटिव तैयार किया गया और उसे जनमत का बाना पहना कर निर्णय लिया गया कि ऐसे ख़तरनाक मंसूबों वाले छात्रों को दंडित करने से ही देश बच सकता है। फिर, पुलिस और न्यायालय की मदद से इस निर्णय को अंजाम देने की पूरी कोशिश भी हुई।

इस नैरेटिव में दो बातें गौर करने लायक हैं, एक - देश की परिभाषा, दूसरी - जनमत का आधार। अधिकतर लोगों के लिए देश सरहदों में सिमटा एक भौगोलिक वृत्त होता है और इस परिभाषा के तहत ख़तरा उसी वृत्त पर होता है। जब ख़तरा मंडराने की अफ़वाहें जोर-शोर से फैलती हैं या फैलाई जाती हैं तो लोगों को यह समझाना बहुत मुश्किल होता है कि देश का मतलब सिर्फ़ सरहद नहीं, सरहद के बीच बसने वाले लोग भी होते हैं।  उनकी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और खुशहाली भी होती है। जिसकी ज़िम्मेदारी सरकार, सामाजिक न्यायवेत्ताओं और ओपिनियन मेकर्स/मीडिया की होती है। इसी तरह जनमत का आधार कोई एक बहुसंख्यक पार्टी या पंथ को मानने वाले लोग नहीं होते। देश सभी का होता है, अल्पसंख्यकों का और बहुसंख्यकों का। और लोकतंत्र में सभी के साझे विचार एक देश की अवधारणा को निर्मित करते हैं।
ऐसे में जब एक चुनी हुई पार्टी अपनी धारा के विरुद्ध बोलने वाले, व्यवहार करने वालों को देशद्रोही कहती है तो यह सामूहिक चिंता की बात हो जाती है। आख़िर किसी प्रचलित धारा के विरुद्ध कुछ बोलने से देशद्रोह कैसे हो जाता है?
अगर हम इसी दलील को सभी राजनैतिक पार्टियों, जातियों और धर्मों के बरक्स रख कर देखें तो फिर कुछ और नयी बातें सामने आती हैं, जैसे - इस दलील के पीछे छुपा एक ख़तरनाक किस्म का बहुसंख्यकवाद, उसकी सत्ता का अहंकार और भंयकर क़िस्म की असहिष्णुता। यह वाद अपने आप में बहुत शुचितावादी भी है। यह अपने को हिंदू धर्म का प्रतिनिधि कहता है। इसका हिंदू धर्म घोर प्रतिक्रियावादी किस्म का है और बेहद सीमित भी। यह अपनी विचारधारा में एक खास किस्म के हिंदुओं को ही समाहित कर पाता है। इसके स्टीरियोटाइप मॉडल में उत्तर भारत (गाय पट्टी) के शाकाहारी, तैंतीस करोड़ देवताओं में से चुनिंदा देवताओं (राम, कृष्ण और देवी माता का वैष्णव अवतार) को मानने वाले, उसकी पूजा पद्धतियों को अपनाने वाले तथाकथित उच्च जातियों वाले हिंदू हैं। 
इसमें बंगाल, बिहार के कई हिस्से, असम, अरुणाचल, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम, मिज़ोरम, केरल, कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और गोवा जैसे प्रदेशों के बहुसंख्यक लेकिन अलग सांस्कृतिक तेवर के तथाकथित उच्च जाति के लोग, दलित समुदाय के लोग और आदिवासी समाज के लोग कहीं स्थान नहीं पाते हैं।
मुसलमान, सिख और क्रिश्चियन समुदायों का इसमें शामिल होना तो दूर की बात है। एक सीमित परिभाषा के अंतर्गत कभी भी इतने विविध आयामी पहलुओं को समेटा नहीं जा सकता है और उसे साम, दाम, दंड, भेद से दरकिनार कर यह देश नहीं चल सकता है। सच तो यह है कि इस देश के निर्माण में इस विविधता को एक ख़ूबसूरत ज़ज्बे की तरह रोपा गया था। 
आंबेडकर ने देश की सबसे ख़ूबसूरत किताब - संविधान को रचने में प्रमुख भूमिका निभाई और साफ़ कहा कि साम्राज्यवादी संघर्ष से भी बड़ा संघर्ष इस देश के भीतर हज़ारों सालों से व्याप्त ग़ैर बराबरी की समाप्ति का संघर्ष है और हमें उसे पाटने की कोशिश करनी होगी।
महात्मा गाँधी ने अल्पसंख्यकों को अपने शरीर और दिल का हिस्सा माना और तत्कालीन प्रशासन ने 1947 में हुए भारत-पाकिस्तान के दुखद विभाजन के बाद पूरी कोशिश की कि अमन-चैन कायम रहे और देश अपने लोगों (हिंदू,मुसलमान आदि) को सुरक्षा और समान अवसरों के लिए आश्वस्त करे।
विचार से और ख़बरें
लेकिन हम देखते हैं कि ऐसा नहीं हुआ और 2014 के बाद ग़ैर बराबरी की यह खाई बढ़ गई। इसके पीछे सीधे-सीधे एक नया राजनीतिक नैरेटिव ज़िम्मेदार दिखता है। देश के नागरिकों के भीतर बैठी असुरक्षाओं को ऐसी एकहरी, रूढ़ विचारधाराएँ एक मंच उपलब्ध कराती हैं।

देश में बढ़ी नफ़रत

एक छद्म असुरक्षा को हवा देकर और ख़ास तरह की धार्मिक मान्यताओं को देश पर भारतीयता के नाम पर थोपने पर दो तरह के नतीजे देखने में आये हैं। पहला, देश के अन्दर नफ़रत बढ़ी है और देश कई तरह के टुकड़ों में बँट गया है। इसमें आश्चर्य नहीं कि कई राजनैतिक पंडितों ने इस विघटन की भविष्यवाणी बहुत पहले कर दी थी और इसके पीछे बहुसंख्यक विचारधारा का विस्फोटक आगमन था।
संबंधित ख़बरें
ग़ौर करने वाली बात यह है कि इस विचारधारा से बहुसंख्यकों को सीधे लोकतंत्र के रोस्टर से डिलीट कर दिया गया था और श्रेष्ठ हिन्दू धर्म की आचार संहिता को लागू किया गया था। वही श्रेष्ठता जिसे चंद ब्राह्मणवादियों/अभिलाषी ब्राह्मणवादियों ने अपनी जागीर समझ सीने से लगाकर रखा है और उसे ही अपनी सत्ता के औजार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। उसे हमेशा जिंदा रखने के लिए वे उसके खाद-पानी के इंतजाम करने वालों को नियुक्त करते हैं, जो इसी देश से ही आते हैं और एक-एक मिथकीय पुष्पक विमान पर सवार हो एक मिथकीय ख़तरे में पड़े राष्ट्र की रक्षा करने लगते हैं।

मुसलिमों-दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा

इसी क्रम में वे अपने देश की सरहद के भीतर रहने वालों पर हिंसा करते हैं और उन्हें नष्ट करने की कोशिश करते हैं। इसमें सिर्फ़ जुनैद और पहलू ख़ान ही नहीं मारे जाते बल्कि कई हिंदू नाम वाले भी मारे जाते हैं जिनकी पहचान बाद में चमड़े का व्यापार करने वाले गुजरात के दलितों के रूप में होती है या हाल ही में मारे गए उत्तराखंड के एक दलित के रूप में, जिसने इन तथाकथित ऊँची जाति वालों के सामने कुर्सी पर बैठकर खाना खाने की हिमाकत कर दी थी।
ऐसे ही एक मामले में गुजरात में एक दलित को घोड़े पर चढ़ने से रोकने के लिए महिलाएँ सड़कों पर भजन-कीर्तन करने में जुट जाती हैं, जिससे वह पैदल ही बना रहे यानी औक़ात में रहे। यहाँ औक़ात सिर्फ़ धार्मिक किताबी मसला नहीं है जो सुदूर अतीत में कभी था, बल्कि वह आज का एक बड़ा मुद्दा है जिसे हर ‘उस दूसरे’ को बताया और जताया जाना है जो सरकार पोषित स्टीरियो टाइप से अलग है। सरकार ने इस हर ‘उस दूसरे’ को दंड देने की सामाजिक सहूलियत उपलब्ध करा दी है। यह बात साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है।

बढ़ा है जाति प्रथा का दंश

जाति प्रथा का दंश इन पांच वर्षों में और खुलकर सामने आया है। हम देख रहे हैं कि तथाकथित हिंदू ही दूसरे हिंदू को कमजोर मान कर दंड देने में लगा हुआ है और यह एक परंपरा बन गयी है। हम यह भी जानते हैं कि इस तरह की परम्पराएँ नई सरकारों के आने के बाद भी जल्दी नष्ट नहीं होतीं। एक बार चढ़े ज़हर का उतरना आसान काम नहीं होता। इसीलिए जब टाइम मैगज़ीन का शीर्षक माननीय प्रधानमंत्री को समर्पित होता है तो उसमें हम सब भी प्रकारांतर से शामिल हो जाते हैं। हम भी उस  ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के सदस्य हो जाते हैं जिसने अपने देश की सरहद के भीतर रहने वाले लोगों को वर्षों से दूसरा बना कर रखा। हम ही वे लोग हैं जो एक सरगना के आदेश पर चुप रहने का विकल्प चुनते हैं या ऐसी परंपराओं को पोषित करते हैं, जिससे देश के टुकड़े हो जाएँ।
कुछ मुट्ठी भर लोग हमारे सांस्कृतिक मूल्य और आचार-व्यवहार भी तय करते हैं और हम भेड़ बनकर उनके पीछे-पीछे चलते हैं। हमारी यह गिरोहबंदी ही हमें असली ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ में बदल देती है और हम वही हो जाते हैं जो नहीं होना चाहते थे। जैसा दिनकर कहते हैं - समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्रजो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
वंदना राग

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें