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भीड़ हिंसा पर दुनिया भर में क्यों हो रही है भारत की बदनामी?

‘जय श्री राम’ के नारे और गाय के नाम पर ‘भीड़ हिंसा’ की घटनाएँ एक के बाद एक क्यों लगातार बढ़ती जा रही हैं? इसका जवाब एक अमेरिकी रिपोर्ट, इस पर सरकारी रवैया और अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्टों में मिल जाएगा। पिछले महीने अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट की एक रिपोर्ट को हमारी सरकार ने दो दिनों के भीतर ही आनन-फानन में ख़ारिज़ कर दिया था। यह रिपोर्ट थी, ‘एनुअल 2018 इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ पर। इसके अनुसार सत्तारूढ़ बीजेपी के वरिष्ठ सदस्य अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भड़काऊ बयान देते रहते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन बयानों से प्रेरित होकर अतिवादी हिन्दू संगठन, जिनको सरकार और पुलिस का समर्थन मिलता है, कभी ‘जय श्री राम’ के नाम पर तो कभी गाय के नाम पर खुलेआम अल्पसंख्यकों से मारपीट करते हैं और हत्या भी कर देते हैं। रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष जनवरी से नवम्बर के बीच ऐसे 18 हमले किये गए जिनमें कम से कम 8 लोगों की हत्या सरेआम भीड़ द्वारा की गयी। मारे गए सभी लोग अल्पसंख्यक समुदाय के थे।

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इस रिपोर्ट को सरकार ने ख़ारिज़ कर दिया और कहा कि हम संविधान के अनुसार धर्मनिरपेक्षता का पूरी तरह से पालन करते हैं, सभी वर्गों को सुरक्षित रखने का काम करते हैं और हमारे आंतरिक मामलों में अमेरिका को दखल नहीं देना चाहिए। अब ज़रा हमारे देश की हक़ीकत भी देखिये। जिस समय यह रिपोर्ट आयी उसी के आसपास के दिनों में ही झारखंड में तबरेज़ अंसारी की हत्या कर दी गयी और उनकी हत्या करने वाले पुलिस संरक्षण में आराम फरमा रहे हैं। असम के बारपेटा में भी ‘जय श्री राम’ नहीं कहने पर एक युवक की हत्या कर दी गयी। मुंबई के टैक्सी ड्राइवर फ़ज़ल उस्मान ख़ान को भी भीड़ ने ‘जय श्री राम’ नहीं कहने पर पीटा। कोलकाता के मदरसा शिक्षक हफ़ीज़ मुहम्मद शाहरुख हलधर जब रेलगाड़ी में सफ़र कर रहे थे, तब पहले तो उनके पहनावे पर लोगों ने फब्तियां कसीं और फिर ‘जय श्री राम’ नहीं कहने पर चलती रेलगाड़ी से उन्हें नीचे फेंक दिया।

भीड़ हिंसा की खुली छूट?

यह सब उस समाज की हक़ीकत है जहाँ प्रधानमंत्री ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ का नारा गढ़ते हैं। देश के अधिकतर मीडिया संस्थानों की तो हिम्मत नहीं है, पर विदेशी मीडिया और संस्थान समय-समय पर देश में अल्पसंख्यकों पर 'सरकार समर्थित' हिन्दू अतिवादी संगठनों द्वारा की जाने वाली हिंसा पर रिपोर्ट प्रकाशित करते रहे हैं। ह्यूमन राइट्स वाच नाम की संस्था द्वारा पिछले वर्ष प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में गाय के नाम पर या ऐसे ही दूसरे कारणों के नाम पर हिंसा की खुली छूट है। इस रिपोर्ट में भी कहा गया है कि भीड़ द्वारा मारे गए लोगों में अधिकतर मुसलिम या फिर अल्पसंख्यक लोग हैं और जो लोग ऐसी हिंसा करते हैं उन्हें बचाने में स्थानीय प्रशासन, स्थानीय राजनेता और पुलिस सभी संलग्न रहते हैं।

साम्प्रदायिक भाषणों में 500% का इज़ाफा

ह्यूमन राइट्स वाच रिपोर्ट के अनुसार मई 2015 से दिसम्बर 2018 के बीच कम से कम 44 व्यक्ति गो-मांस के शक में या फिर गाय के व्यापार के शक में मारे जा चुके हैं। इन 44 व्यक्तियों में से 36 मुसलिम थे। बता दें कि अल्पसंख्यक समुदाय के अलावा केरल, गोवा और तमिलनाडु के बहुत से हिन्दू समुदाय के लोग भी गो-मांस खाते हैं।

रिपोर्ट है कि वर्ष 2014 से पहले के पाँच वर्षों की तुलना में इसके बाद के चार वर्षों के दौरान जनता के चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा साम्प्रदायिक भाषणों में 500 प्रतिशत का इज़ाफा हो गया है। और ऐसा करने वाले अधिकतर प्रतिनिधि बीजेपी के हैं। गाय के नाम पर भीड़ द्वारा हिंसा की 90 प्रतिशत से अधिक घटनाएँ बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हुई हैं और 66 प्रतिशत घटनाएँ ऐसे राज्यों में हुई हैं जहाँ बीजेपी का शासन रहा।

ह्यूमन राइट्स वाच की साउथ एशिया डायरेक्टर मीनाक्षी गांगुली के अनुसार इस तरह की घटनाओं की शुरुआत भले ही हिन्दू वोट बटोरने के लिए की गयी हो पर अब यह सब नियंत्रण के बाहर हो गया है और निशाना अल्पसंख्यक बन रहे हैं।

रिपोर्ट में इस तरह की 11 घटनाओं का विश्लेषण कर यह बताया गया है कि किन कारणों से ऐसे लोगों पर कार्रवाई नहीं की जाती है। एक घटना में ह्त्या करने वाले ने यह बताया कि उसने हत्या की है, पर स्थानीय पुलिस ने उस स्टेटमेंट को कोर्ट में पेश ही नहीं किया। दूसरी घटना में भीड़ को स्थानीय नेताओं का संरक्षण प्राप्त था इसलिए पुलिस ने मामला उठने ही नहीं दिया।

जून 2018 में जब भीड़ ने गो-मांस के नाम पर जब एक मुसलिम को मार दिया तब पुलिस में इसे मोटरसाइकिल दुर्घटना का केस बना दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार लगभग हरेक घटना में पुलिस का रवैया एक जैसा ही रहता है, शिकायत दर्ज नहीं करना, घटना की छानबीन नहीं करना, सबूतों को नष्ट करना और यहाँ तक कि हत्या में ख़ुद शामिल हो जाना। घटना की तत्परता से तहकीकात कर मुज़रिम को पकड़ने के बजाय पुलिस पीड़ित को, गवाहों को या फिर पीड़ित के सगे-सम्बन्धियों को ही मुज़रिम ठहराने के लिए पूरा ज़ोर लगा देती है।

इंडियास्पेंड की रिपोर्ट 

इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 8 वर्षों (2010 से 2017) के दौरान गायों के नाम पर भीड़ द्वारा कुल हमलों में से 51 प्रतिशत मुसलिम थे जिन्हें निशाना बनाया गया और इसमें मरने वाले कुल 25 व्यक्तियों में से 84 प्रतिशत मुसलिम थे। पिछले 8 वर्षों के दौरान इस तरह की जितनी भी घटनाएँ हुईं उनमें से 97 प्रतिशत घटनाएँ मई 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हुईं। ये सभी तथ्य इतना तो उजागर करते हैं कि गाय या दूसरे मामलों में अतिवादी हिन्दू संगठनों के सदस्य भीड़ की शक्ल में मुसलिमों और अल्पसंख्यकों को मार रहे हैं और इन्हें सरकारी समर्थन प्राप्त है।

विचार से ख़ास

‘वाशिंगटन पोस्ट’ की रिपोर्ट

‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने भीड़ द्वारा हत्याओं की हरेक घटना को प्रकाशित किया है। इसके क़रीब-क़रीब हरेक समाचार में एक वाक्य ज़रूर मिलता है, भारत में कुल जनसंख्या में से 80 प्रतिशत हिन्दू हैं और मात्र 14 प्रतिशत मुसलिम हैं। 23 जुलाई 2018 को प्रकाशित समाचार के अनुसार पिछले कुछ महीनों के दौरान भीड़ ने 25 व्यक्तियों की हत्या बच्चा चुराने के बहाने से की और 20 लोगों की हत्या गाय के नाम पर कर दी। इस समाचार में राहुल गाँधी के ट्वीट, ‘मोदी के क्रूर भारत’ का भी ज़िक्र है। हिन्दू अतिवादी संगठन अपने आप को गो-रक्षक बताते हैं और इनका सम्बन्ध प्रधानमंत्री मोदी के बीजेपी से है।

‘द गार्डियन’ की रिपोर्ट

‘द गार्डियन’ की 21 जुलाई 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार अलवर की घटना के बाद फिर से स्पष्ट है कि हिन्दू-अतिवादी संगठनों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। ज़्यादातर राज्यों में मांस के लिए गाय को मारने पर प्रतिबन्ध है फिर भी 2014 में नरेन्द्र मोदी की हिन्दू राष्ट्रवादी सरकार आने के साथ ही गो-रक्षा के नाम पर हिंसा तेज़ी से बढ़ी है। मानवाधिकार संगठन और मुसलिमों का कहना है कि मोदी समेत सरकार के अन्य मंत्री इसकी निंदा करने से बचते हैं और पुलिस लचर रवैया अपनाती है। ख़बर में असदुद्दीन ओवैसी के ट्वीट को भी शामिल किया गया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत में गाय को जीने का मौलिक अधिकार तो है, पर मुस्लिमों को नहीं। मोदी सरकार के 4 साल भीड़ की हिंसा के हैं। मोदी सरकार के दौरान हिन्दू अतिवादी संगठन एक प्राइवेट मिलिट्री जैसा काम कर रहे हैं और क़ानून का उन्हें कई डर नहीं है।

द गार्डियन में 23 जुलाई 2018 को प्रकाशित एक ख़बर का शीर्षक है, ‘इंडियन पुलिस टुक टी-ब्रेक बिफोर अटेन्डिंग टू लिंचिंग विक्टिम’। इसमें कहा गया है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में हिन्दू-राष्ट्रवादियों पर आरोप लगते रहे हैं कि गाय के नाम पर बढ़ती मुसलिमों के प्रति हिंसा की सरकार लगातार अनदेखी कर रही है। मानवाधिकार संगठन आक्षेप लगा रहे हैं कि हत्यारी भीड़ उसी पार्टी से ताल्लुक रखती है जो 2014 में सत्ता में आयी।

ऐसी हिंसा में संलिप्त लोगों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी सजा सुनिश्चित करने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार दिया है, पर इस आदेश का पालन करता कोई राज्य नहीं दिखाई देता है।

साफ़ है कि ऐसी ख़बरों पर देश का मीडिया कितना भी लीपापोती करे, पूरी दुनिया में भारत में भीड़ हिंसा और सरकार की नाकामी के चर्चे हैं। कई जन-अधिकार कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि भीड़ की हिंसा को ‘वैध’ कर दिया गया है। कम से कम पिछले पाँच वर्षों का अनुभव तो यही साबित करता है।

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महेंद्र पाण्डेय

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