युद्ध को टालना सभ्य समाजों की प्राथमिकता हो
युद्ध को टालना दुनिया के सारे सभ्य समाजों की प्राथमिकता होनी चाहिए। भारत की राजनीति का यह हमेशा से स्थाई भाव रहा है। जब कबायली हमले के बहाने जिन्ना के दौर में, विभाजन के बाद ही पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला किया था तो भारत ने उसको खदेड़ा लेकिन युद्ध को आगे नहीं बढ़ाया।
- जब 1965 में पाकिस्तानी शासक जनरल अयूब ने कश्मीर में बहुत बड़े पैमाने पर घुसपैठ करायी तो उनको मुगालता था कि कश्मीरी अवाम उनके साथ है। लेकिन जब उनके घुसपैठिये फ़ौजियों को पकड़कर कश्मीरी जनता ने पुलिस के हवाले कर दिया तो उनकी समझ में बात आ गयी।
पाकिस्तान को ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा। वह पूरी दुनिया को मालूम है। 1971 की जंग भी एक फ़ौजी जनरल, याह्या ख़ान की बेवकूफ़ी का नतीजा था। पाकिस्तानी क़ौमी असेम्बली के चुनाव में शेख मुजीबुर्रहमान को स्पष्ट बहुमत था, लेकिन जनरल याह्या ख़ान ने उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। नतीजा हुआ कि एक राष्ट्र के रूप में बंग्लादेश का जन्म हो गया।
- फ़ौजी जनरल जब भी कंट्रोल में होते हैं तो वह भारत के साथ पंगा ज़रूर लेते हैं। जनरल जिया और जनरल मुशर्रफ की कारस्तानियाँ भी सबको मालूम हैं।
पाकिस्तान की तरफ़ से फिर बेवकूफ़ी
ऐसी ही बेवकूफ़ी पाकिस्तान की तरफ़ से फिर हो रही है। पाकिस्तानी फ़ौज ने एक मंदबुद्धि क्रिकेट खिलाड़ी को देश का प्रधानमंत्री बना दिया है और उसके कंधे पर बन्दूक रख कर भारत को छेड़ने की कोशिश की जा रही है। पूरी दुनिया के समझदार लोग यह चाहते हैं कि पाकिस्तान अपने देश में मुसीबत झेल रहे आम आदमी को सम्मान का जीवन देने में अपनी सारी ताक़त लगाए लेकिन पाकिस्तानी फ़ौज की दहशत में रहकर वहाँ की तथाकथित सिविलियन सरकार के प्रधानमंत्री भारत विरोधी राग अलापते रहते हैं। आज की भू-भौगोलिक सच्चाई यह है कि अगर पाकिस्तानी नेता तमीज़ से रहें तो भारत के लोग और सरकार उसकी मदद कर सकते हैं।
पाकिस्तान को यह भरोसा होना चाहिए कि भारत को इस बात में कोई रूचि नहीं है कि वह पाकिस्तान को परेशान करे लेकिन मुसीबत की असली जड़ वहाँ की फ़ौज है। फ़ौज के लिए भारत की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाना लगभग असंभव है।
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इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि भारत से दुश्मनी का हौव्वा खड़ा करके पाकिस्तानी जनरल अपने मुल्क़ में राजनीतिक और सिविलियन बिरादरी को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं। इसी के आधार पर उसे चीन जैसे देशों से आर्थिक मदद भी मिल जाती है। लेकिन दूसरी बात सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। पाकिस्तानी फ़ौज में टॉप पर बैठे लोग 1971 की हार को कभी नहीं भूल पाते। फ़ौज को वह दंश हमेशा सालता रहता है। उसी दंश की पीड़ा के चक्कर में उनके एक अन्य पराजित जनरल, जिया-उल-हक ने भारत के पंजाब में खालिस्तान बनवा कर बदला लेने की कोशिश की थी। मौजूदा फ़ौजी निज़ाम यही खेल कश्मीर में करने के चक्कर में है।
मुगालते में पाकिस्तानी फ़ौज
फ़ौज को मुगालता यह है कि उसके पास परमाणु बम है जिसके कारण भारत उस पर हमला नहीं करेगा। लेकिन ऐसा नहीं है। अगर कश्मीर में पाकिस्तानी फ़ौज और आईएसआई ने संकट का स्तर इतना बढ़ा दिया कि भारत की एकता और अखंडता को ख़तरा पैदा हो गया तो भारतीय फ़ौज पाकिस्तान को तबाह करने का माद्दा रखती है और वह उसे साबित भी कर सकती है। लेकिन फ़ौजी जनरल को अक़्ल की बात सिखा पाना थोड़ा टेढ़ा काम होता है। इसी तरह के हवाई क़िले बनाते हुए जनरल अयूब और जनरल याह्या ने भारत पर हमला किया था जिसके नतीजे पाकिस्तान आज तक भोग रहा है और उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती रहेगीं।
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो, पाकिस्तानी हुक़्मरान उससे बेख़बर हैं।
जहाँ तक भारत का सवाल है, वह एक उभरती हुई महाशक्ति है और अमेरिका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रहा है।
अब पाकिस्तान को अमेरिका से वह मदद नहीं मिलेगी जो 1971 में मिली थी। इसलिए पाकिस्तानी हुक़्मरान, ख़ासकर फ़ौज को वह बेवकूफ़ी नहीं करनी चाहिए जो 1965 में जनरल अयूब ने की थी।
जनरल अयूब को लगता था कि जब वह भारत पर हमला कर देंगे तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा और भारत डर जाएगा और कश्मीर उन्हें दे देगा। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और पाकिस्तानी फ़ौज लगभग तबाह हो गयी। इस बार भी भारत के ख़िलाफ़ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फ़ौज की बहुत बड़ी भूल होगी। लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फ़ौज के टॉप अफ़सर बदले की आग में जल रहे हैं, वहाँ की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फ़ौज के सामने नतमस्तक है।
इतिहास से सबक लें पाक जनरल
कश्मीर में आईएसआई ने हालात को बहुत ख़राब कर दिया है। आजकल आईएसआई का नया खिलौना जैश-ए-मुहम्मद है, जिसका सरगना मसूद अज़हर भारत को तबाह करने के सपने देख रहा है। इसलिए इस बात का ख़तरा बढ़ चुका है कि पाकिस्तानी जनरल अपनी सेना के पिछले सत्तर साल के इतिहास से सबक न लें और भारत से युद्ध करने की मूर्खता कर बैठें। भारत को कूटनीतिक तरीक़े से यह समझा देना चाहिए कि अगर पाकिस्तानी फ़ौज हमला करने के ख़तरे से खेलती है तो बाक़ी दुनिया को मालूम रहे कि भारत न तो गाफिल है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह की दया दिखाएगा। इस बार लड़ाई फ़ाइनल होगी। 1965 में भारत की सेना ने लाहौर के दरवाज़े पर दस्तक दे दी थी। रूस ने बीच बचाव करके सुलह करवाया तब इच्छोगिल तक बढ़ गयी भारतीय सेना वापस आई।
भारत के नेता भी मुगालते में
इधर, भारत में भी युद्ध के ख़तरों से अनभिज्ञ सत्ताधारी पार्टी के कुछ नेताओं को मुगालता है कि अगर पाकिस्तान से कारगिल जैसा कोई सीमित युद्ध हो जाए तो 2019 के चुनावों में फ़ायदा होगा। लेकिन उनको पता होना चाहिए कि 1965 की लड़ाई के बाद सत्ताधारी पार्टी पूरे उत्तर भारत में हार गयी थी। 1971 की लड़ाई में निर्णायक जीत के बाद जो पहला लोकसभा चुनाव हुआ उसमें इंदिरा गाँधी की पार्टी बुरी तरह से हार गयी थी और देश की जनता उनके ख़िलाफ़ 1974 से ही लामबंद हो गयी थी।
इस बार भी जंग टलती रहे तो बेहतर है लेकिन अगर पाकिस्तान जंग थोप देता है तो उसको जवाब तो देना ही पड़ेगा।
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