क़रीब चार साल पहले यूपीएससी के परिणाम आए और मैंने देखा कि एक नाम फिर सामने आया वो था ज़कात फ़ाउंडेशन का। मैं हैरान था और हतप्रभ भी। मेरे मन में कई सवाल थे, पहला, ये कौन सी संस्था है, दूसरा, ये ऐसा क्या कर रही है जो इतने अल्पसंख्यक बच्चे इनके यहाँ से पढ़कर सिविल सेवा में पास हो रहे हैं, और आख़िरी- अल्पसंख्यकों में इतनी फ़िक्र किसे पड़ी है। सारे सवाल समेट कर एक दिन मैं ज़फ़र साहब से मिलने गया। सीआईएसआरएस, जंगपुरा में भी उनका ऑफ़िस है, जहाँ बच्चों की सिविल सेवा परीक्षा की तैयारियों के लिए चयन की प्रक्रिया होती है।
वहाँ पहुँचा तो देखता हूँ एक हॉल में जहाँ हम बैठे हुए थे, एक छोटे से कद का, बढ़ी उम्र का एक शख्स हमारे सामने आया, चेहरे पर आधी मुस्कुराहट, पूरी गंभीरता। परिचय के बाद मैंने दिमाग में उधम मचा रहे पहले सवाल को दागा। मैंने पूछा, आप कौन हैं और ये काम कब से कर रहे हैं? सवाल के जवाब में जफर साहब मुस्कुराए और बोले, हम भी सरकार की नौकरी कर के आए हैं और कुछ लोग मिलकर माइनॉरिटी के उन बच्चों को जिनमें कुछ करने की सलाहियत है, आगे बढ़ा रहे हैं। मैंने पूछा, सिर्फ़ मुसलमान? जवाब आया बिल्कुल नहीं, हमारे पास ईसाई, सिख और अन्य अल्पसंख्यकों के बच्चे भी कोचिंग पाते हैं। आप चाहें तो सिविल क्वालिफाई कर निकले बच्चों की लिस्ट को देख सकते हैं। मेरा दूसरा सवाल था कि मुसलिम समाज में बीते 70 सालों में तो ये सब नहीं हुआ तो अब कैसे? जवाब था कि आज नहीं तो किसी को तो शुरुआत करनी होगी। हम कब तक कहेंगे कि बीते साल, बीते साल। हिंदुस्तान ने सबको बराबरी का हक दिया है और आप कोशिश क्यों नहीं करते। हम सिर्फ़ ज़रिया हैं ऐसी उम्मीदों का जो कुछ करना चाहती हैं लेकिन आर्थिक तंगी और सहुलियतें उनके आड़े आती हैं।
मेरा एक और सवाल था कि अब तो बच्चे काफ़ी संख्या में आ रहे होंगे? कैसे इंतज़ाम कर पाते हैं? उन्होंने कहा कि आपकी बात वाज़िब है। समस्या तो है। देश की कई ऐसी संस्थाएँ हैं जो माइनॉरिटी के स्तर को सुधारना चाहती हैं, उन्होंने हमसे संपर्क किया है। हमने पैसा तो नहीं लिया लेकिन हॉस्टल बनवाने और ज़मीन आदि मुहैया कराने पर सहमति जताई है। और भी कई बातें हुईं लेकिन उन बातों का यहाँ ज़िक्र करना ज़्यादा मायने नहीं रखता। मैं वहाँ से आ गया। उसके बाद हर साल यूपीएससी का रिजल्ट आता है तो बाद में ये ख़बर भी आती है कि ज़कात के कितने बच्चे पास हुए। ये एक अच्छी बात है कि मुसलमानों के बीच कोई तो है जो यह कोशिश कर रहा है।
ख़ैर, ये तो वो है जो मैंने ख़ुद देखा। अब बात करते हैं कि हंगामा क्यों बरपा है। सुदर्शन टीवी ने ज़कात को जिहादी साबित करने की कोशिश की। उसके एक शो बिंदास बोल के प्रोमो में दावा किया गया कि वो प्रशासनिक सेवा में मुसलिमों की घुसपैठ की साज़िश पर बड़ा खुलासा करेगा। सुप्रीम कोर्ट ने उस शो पर रोक लगा दी। इस पर अगली सुनवाई 21 सितंबर को होनी है। ज़ाहिर है सुप्रीम कोर्ट कभी मीडिया के मामले में दखल नहीं देता लेकिन उसने ऐसा किया। इसका मतलब है कि सुदर्शन ऐसा कुछ कर रहा था जिस पर तुरंत कुछ करने की ज़रूरत थी, उसने किया भी।
अब देखिए, सूचना और प्रसारण मंत्रालय क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट से- जबकि मुख्यधारा का मीडिया प्रिंट हो या टीवी एक बार प्रसारण कर पाते हैं लेकिन डिजिटल मीडिया की पाठक संख्या और उसकी पहुँच काफ़ी ज़्यादा है और कई इलेक्ट्रॉनिक एप्लिकेशन जैसे व्हाट्सएप, फ़ेसबुक और ट्विटर में इसे वायरल करने की ज़्यादा ताक़त होती है।
कहते हैं समझदार को इशारा काफ़ी होता है। लेकिन वो समझदार कौन है और इशारा किस ओर है? क्या सरकार अब डिजिटल में जो स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं, उनका गला दबाना चाहती है? जो समझिए, लेकिन इसके निहितार्थ यही हैं कि सुप्रीम कोर्ट डिजिटल पर कुछ करे। यानी सुदर्शन चलाए वो ठीक लेकिन कोई डिजिटल पर सरकार के ख़िलाफ़ कुछ न लिखे।
मेरा सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार यह चाहती है कि सुदर्शन ये शो टेलीकास्ट करे? क्या वह यह चाहती है कि ज़कात की कोशिशों को जिहादी कोशिशों में तब्दील कर दिया जाए? क्या वो चाहती है कि ग़रीब मुसलिम, ईसाई और सिखों को किसी अच्छे समर्थन से महरूम कर दिया जाए? मुझे यक़ीन है कि केंद्र सरकार ऐसा नहीं चाहती लेकिन उसकी कथनी और करनी में अंतर एक डर पैदा कर रहा है। मुसलिम समाज में जो ये सोचता है कि सब हमसे इसलिए नाराज़ हैं कि ग़रीबी, अज्ञानता, अपराध हमारे समाज में ज़्यादा है, हमें यह तसवीर बदलनी चाहिए, लेकिन तब क्या जब जो मेहनत करके सिस्टम की दहलीज पार कर आगे बढ़े हैं उनके ऊपर उंगली उठाने लगेंगे।
इसका क्या संदेश जाता है? केंद्र सरकार को इस पर ज़रूर विचार करना चाहिए। बड़ों को नैतिकता सिखाना मेरी नज़र में ख़ुद पर थूकने जैसा है- जो अब नहीं सुधरे वो देश को डुबो कर ही मानेंगे।
सवाल उठाने वालों को मैं बता दूँ कि मुसलमानों में एजुकेशन को लेकर बीते एक दशक में बेहद सक्रियता आई है। वो चाहते हैं वो हरेक के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सकें। जो सो रहे हैं उनको बताता चलूँ कि पूरे देश में अलग-अलग स्तर पर लोग ग़रीब मुसलिमों की पढ़ाई के लिये जी जान से लगे हुए हैं।
स्टेप्स फ़ाउंडेशन (दायरा-राष्ट्रीय) -
मॉब लिंचिंग में मारे गए लोगों के बच्चों को मुफ्त शिक्षा मुहैया कराती है। यह हॉस्टल भी देती है। देशभर में वह यह मुहिम चला रही है।
मिशन तालीम- (दायरा-क्षेत्रीय)-
दिल्ली-एनसीआर और यूपी के कई ज़िलों में सक्रिय। ग़रीब बच्चों को ईडब्लूएस कोटे के तहत एडिमिशन दिलाने की मुहिम चलाती है।
सर सैय्यद एजुकेशन रिवॉल्यूशन मिशन (दायरा-राष्ट्रीय)-
इसके फ़ाउंडर रिटायर्ड पीसीएस अफ़सर हाजी नसीमुद्दीन हैं। हर साल 300 युवाओं को सिविल सेवा की तैयारी के लिए एडमिशन देते हैं। कोचिंग और हॉस्टल की सुविधा देते हैं। बीते क़रीब 6 साल से इस मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं। ओखला में ऑफिस है।
जामिया हमदर्द रेसिडेंशियल कोचिंग अकेडेमी-
सिविल सर्विस की कोचिंग देती है। 2009 में यह स्थापित हुई और सफलता के मामले में काफ़ी बेहतर रिकॉर्ड है इसका।
चाचा नेहरू मदरसा-
हिन्दी, अंग्रेज़ी, गणित के साथ उर्दू और अरबी भी पढ़ाई जाती है। हॉस्टल में बाहर के बच्चे रहते हैं। सलमा अंसारी इसे चला रही हैं। यह चैरिटी फ़ंड से अलीगढ़ में चल रहा है।
यह लिस्ट काफ़ी लंबी है जो यहाँ देना संभव नहीं है।
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