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कंगना की आड़ में एक तीर से दो शिकार कर रही बीजेपी 

देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य महाराष्ट्र के निर्वाचित मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत से छीछालेदर करवा कर क्या बीजेपी राज्य की सत्ता से वंचित रहने का बदला ले रही है? ऐसा करके देश की राजनीति में बीजेपी कौन सी मिसाल पेश करना चाहती है? ठाकरे, शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की महाविकास आघाड़ी यानी गठबंधन की बहुमत सरकार के निर्वाचित मुखिया हैं। उन्हें प्रदेश के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने बाकायदा संविधान की शपथ दिलाकर मुख्यमंत्री पद सौंपा है। 

ठाकरे के मुकाबले कंगना रनौत बॉलीवुड के उन सैकड़ों कलाकारों में शुमार हैं जो देश के कोने-कोने से मुंबई आकर अपने हुनर के बूते लोगों के दिलों में जगह बनाते हैं। उन्हीं लोगों के मत हासिल करने वाले तीन दलों के विधायकों ने बहुमत से उद्धव को अपना नेता और महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री चुना है। 

इस प्रकार करोड़ों लोगों के मत के बूते प्रदेश चला रहे उद्धव ठाकरे से कंगना की तू-तड़ाक उस बीजेपी के लिए कैसे जायज है जो विपक्षियों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सम्मान नहीं करने का आरोप लगाती है?
कंगना के बड़बोलेपन के पीछे अपना हाथ होने के बीजेपी लगातार सबूत दे रही है। पहले तो बीजेपी के एक प्रवक्ता ने कंगना के तीखे बयानों का समर्थन किया। फिर उससे मुंबई को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर कहलवा कर आनन-फानन में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से सिफारिश करवाई और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने उसे वाई दर्जे की सरकारी सुरक्षा मुहैया करवा दी। 

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फिर विश्व हिंदू परिषद और अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद से कंगना के समर्थन में बयान दिलवा कर महाराष्ट्र सरकार की निंदा करवाई। रही-सही कसर महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से कंगना का समर्थन और उद्धव सरकार की निंदा करवा के पूरी कर दी। 

कंगना के हालिया बयान

कंगना के बयानों पर जरा गौर कीजिए, “मुंबई तो पीओके लगने लगी”, “जिस विचारधारा पर बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना का निर्माण किया, आज शिवसेना से सोनिया सेना बनकर सत्ता के लिए वह विचारधारा बेच दी है”, “जो गुंडे मेरी पीठ के पीछे मेरे घर को तोड़ते हैं, उन्हें नागरिक निकाय न कहें, संविधान का अपमान ना करें”, “महाराष्ट्र सरकार की शर्मनाक हरकत से मराठी संस्कृति और गौरव को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए।” 

दल विशेष के मीडिया सेल की भाषा और लटके-झटके कंगना में साफ झलक रहे हैं! कदम दर कदम राजनीतिक फिकरे कसती कंगना का हाथ अब सीधे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के गिरेबां पर है! वो शिवसेना को एक तरफ तो सोनिया सेना कह रही हैं और दूसरी तरफ ये कह कर, “किसी स्त्री पर जुल्म देखकर भी उन्हें तरस नहीं आता”। सोनिया गांधी की सहानुभूति की चाहत का दिखावा भी कर रही हैं। 

इतना ही नहीं, कंगना राजनीतिक तुरूप मान कर बालासाहेब ठाकरे का ऐसा बयान चला रही हैं जिसमें उन्होंने गठबंधन होने पर शिव सेना के भी कांग्रेस बन जाने को लेकर आगाह किया था। कोई पूछे कि कंगना के पास क्या राजनीतिक बयानों या नेताओं के वीडियो की लाइब्रेरी है? वो अभिनेत्री हैं या राजनेत्री? 

जाहिर है कि बयानों को धार देने वाले शब्दों, मुहावरों और वीडियो रूपी सभी अस्त्र-शस्त्र कल तक अपने श्रेष्ठ अभिनय के बूते मशहूर हुई अभिनेत्री को अब दल विशेष का मीडिया सेल सप्लाई कर रहा है।

बीजेपी का मकसद?

इससे बीजेपी का मकसद भी सध रहा है वर्ना जब कोरोना वायरस महामारी के संक्रमितों की संख्या रोजाना एक लाख के खतरनाक स्तर पर हो उस समय कंगना-सुशांत-रिया प्रकरण का सुर्खी बनना आख़िर और क्या जता रहा है? अपने दफ्तर में अवैध निर्माण गिराने से बौखला कर उद्धव से तू-तड़ाक करने की अपनी हिमाकत को क्या वो भूल गईं? अफसोस यह है कि कंगना हरेक बयान से अपने गले में राजनीतिक फंदा कसती जा रही हैं। 

महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री क्या कोई हृतिक रोशन या अध्ययन सुमन है जो कंगना के मुंहफट बयानों के बावजूद दुबका रहेगा? सही हो या गलत शिवसेना, मराठा स्वाभिमान का प्रतिनिधि संगठन है। बाल ठाकरे ने इसका गठन उस समय किया था जब महाराष्ट्र की राजधानी होने के बावजूद बंबई यानी मुंबई में मराठियों की हैसियत दक्षिण अफ्रीका के उन एशियाई कुलियों जैसी ही थी जिनको समान नागरिक अधिकार दिलाने के लिए मोहन दास करमचंद गांधी को सत्याग्रह करना पड़ा था। 

सुनिए, इस विषय पर वरिष्ठ पत्रकारों की चर्चा। 

बाल ठाकरे ने किया एकजुट 

बंबई में पहले गुजराती सेठों और फिर दक्षिण भारतीय माफिया तथा मध्यवर्ग की तूती बोलती थी। मराठा अपने ही राज्य में असमान शर्तों पर काम करने को मजबूर थे। उसी दौरान कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने अपने कार्टूनों के जरिए मुंबई की सामाजिक विषमता पर चोट की। फिर मराठियों को जागरूक बना कर लामबंद किया और शिवसेना का ठसका जमा दिया। 

उनकी एक आवाज पर दिन-रात चलने वाली बंबई ठिठक कर रूक जाती थी। अलबत्ता 1992-1993 के दंगों में शिवसेना की भूमिका एकतरफा रही जिसका श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट उल्लेख है। 

मार्च 1993 में दाउद इब्राहिम प्रायोजित मुंबई बम धमाकों के बाद ध्रुवीकरण और गहरे पैठ गया। उसी की बदौलत 1995 में शिवसेना ने अपने गठबंधन सहयोगी बीजेपी के साथ महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बहुमत पाकर पहली बार सरकार बनाई।

बंबई का नाम मुंबई करवाया 

उसके बाद क्षेत्र की अधिष्ठात्री मुम्बा देवी के नाम पर शिवसेना ने बंबई का नाम मुंबई करवाया तथा सत्ता का मीठा फल चखने का सिलसिला चल निकला। इसके बावजूद बाल ठाकरे ने न तो कोई चुनाव लड़ा और न ही कोई संवैधानिक अथवा सार्वजनिक पद स्वीकार किया। ऐसा करके उन्होंने शिवसेना के बेताज बादशाह की अपनी छवि बरकरार रखी।  

बाल ठाकरे की मृत्यु के सात साल बाद उनके परिवार में उद्धव ने पहली बार संविधान का हलफ लेकर सत्ता की जिम्मेदारी वहन करने का साहस दिखाया है। उनके पिता बाला साहेब ठाकरे हमेशा किंगमेकर रहे और यह कह कर कि 'महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री मनोहर जोशी का रिमोट कंट्रोल मेरे हाथ में है' अपनी हैसियत जताने से भी नहीं चूके। बालासाहेब की स्थिति ठीक वैसी ही थी जैसी आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की है। 

फर्क बस इतना है कि बीजेपी की डोर अपने हाथ में होने की असलियत को आरएसएस सार्वजनिक रूप से जताता नहीं है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित बीजेपी के तमाम मंत्रियों द्वारा आरएसएस के सामने समय-समय पर अपने कामों का ब्यौरा देने से यह तथ्य स्वयं ही पुष्ट होता है। 

बीजेपी के पीछे है आरएसएस 

बीजेपी की सरकारों द्वारा आरएसएस के एजेंडे के अनुसार सरकारी नीतियां लागू करना भी उसकी किंगमेकर की हैसियत का द्योतक है। बीजेपी का संगठन सचिव आरएसएस से ही मांगा जाता है। सत्ता के गलियारों में दिखता है कि वही राज्यों में बीजेपी की चुनावी रणनीति से लेकर मुख्यमंत्रियों के नाम तक सारी चुनावी और संगठनात्मक रणनीति का अंतिम फैसला करता है। 

बाल ठाकरे की भी शिवसेना में ऐसी हैसियत थी कि मंडल अध्यक्षों से लेकर पार्षद, विधायक तथा लोकसभा उम्मीदवार वही तय करते थे। कमोबेश वही स्थिति शिवसेना में अब उद्धव ठाकरे की है। पार्टी ही नहीं अब तो प्रदेश सरकार की कमान भी उद्धव के हाथ में है। कंगना के मामले में शिवसेना द्वारा अपनाए गए रूख़ का उसके द्वारा कोई पहली बार इजहार नहीं किया जा रहा। उसकी राजनीति ऐसी ही है। यदि ठन गई तो शिवसेना का भरोसा आमने-सामने, दो-दो हाथ करने में रहता है। वह ‘तुरंत दान महाकल्याण’ की नीति की अनुयायी है। 

इसी के तहत शिवसेना नीत बृहन्मुंबई महानगर पालिका यानी बीएमसी ने कंगना का बांद्रा स्थित स्टूडियो अवैध निर्माण की बिनाह पर जवाब की बाट जोहे बिना तोड़ दिया। बीएमसी के अनुसार, कंगना के दफ्तर में 14 अवैध निर्माण थे। गौरतलब है कि कंगना शिवसेना शासित मुंबई की तुलना पाक अधिकृत कश्मीर से कर चुकी हैं। 

उसने ठाकरे को चुनौती देते हुए कहा था, 'उखाड़ लो जो उखाड़ना है।' शिवसेना ने उसके दफ्तर में बीएमसी से तोड़फोड़ करवाने के बाद अपने मुखपत्र सामना में 'उखाड़ दिया' का मोटा सा शीर्षक लगाकर जवाब दे दिया। बीएमसी ने खार में उसके घर में भी अवैध निर्माण के लिए कंगना को नोटिस थमाया है। 

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तोड़फोड़ से बौखलाई कंगना ने उद्धव को 'वंशवाद की मिसाल' बता दिया। कंगना के इस बयान पर कि ‘मुझे मुंबई पुलिस से मूवी माफ़िया से भी ज़्यादा डर लगता है’, की महाराष्ट्र में जबरदस्त प्रतिक्रिया है। 

प्रवासियों का समर्थन पाने की राजनीति

कंगना के बहाने बीजेपी द्वारा महाराष्ट्र के प्रवासी कामगारों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने का दांव भी चला गया है। क्योंकि अपना सिक्का जमने के बाद शिवसेना ने यूपी और बिहार से आए मेहनती कामगारों से मराठियों को मिलने वाली होड़ रोकने के लिए 'मुंबई मराठों की' के नाम पर उनसे ज्यादतियां की हैं। इन हरकतों का विरोध मुख्यत: कांग्रेस ने किया और उसे प्रवासियों का बढ़-चढ़ कर समर्थन भी मिला। 

अब दिक्कत यह है कि कांग्रेस तो शिवसेना के साथ महाविकास आघाड़ी सरकार में भागीदार है। इसलिए कंगना बनाम शिवसेना के बहाने बीजेपी प्रवासियों में पैठ बढ़ा कर बीएमसी का अगला चुनाव अकेले जीतना चाहती है। इसीलिए कंगना से शिवसेना को सोनिया सेना कहलवा कर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया गया है। 

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अनन्त मित्तल

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