वह 2012 का समय था जब निर्भया का नृशंस बलात्कार छह लोगों ने किया था। घटना इतनी भयानक और विभत्स थी कि समाज पूरी तरह हिल गया था। बात यह भी थी कि हमारे ही समाज के इन 'बलात्कार बाँकुरों' ने बलात्कार की ऐसी नयी प्रविधि खोज कर दिखा दी जो औरत की हत्या से कई गुणे अधिक दर्दनाक थी। तब हम कितने भयभीत हुए कि भय के मारे अथाह ग़ुस्से के हवाले हुए कि फिर नहीं याद रहा कि हम सड़कों पर निकल पड़े हैं या संसद के आसपास छा गए हैं। हमने कौन-सा क़ानून तोड़ा है या कौन-सा धर्म निभा रहे हैं। तब हम भय के मारे जाग पड़े थे और दर्द के मारे बढ़े चले जा रहे थे। हमारा डर और हमारा ग़ुस्सा जायज़ माना गया। तब कुछ नियम बने, कुछ पाबन्दियाँ लागू की गईं, इसलिये कि हम निर्भय हो जाएँ, देश की स्त्रियाँ सुरक्षा की हक़दार मानी जाएँ। बड़ी राहत हुई थी तब। लगता था कि अब कोई स्त्री अपमान नहीं होगा। दोषियों को संगीन सजाएं दी जाएँगी। मगर यह क्या हुआ कि हम देखते ही रह गए ठगे-ठगे से। सारी दिलासाएँ धरी रह गईं।
ज़्यादा समय नहीं बीता कि बलात्कारों और हत्याओं ने फिर गति पकड़ी क्योंकि जिसे समाज में मर्द होने की पदवी मिली है वह मर्दानगी न दिखाए तो लानत है उसके मर्दपने को।
मर्द ख़ुद को शेर की तरह हिंसक मान कर चलता है जो शिकार में विश्वास रखता है। पहले वह शिकार अकेला किया करता था मगर अब उसके भीतर सामूहिकता का ‘विकास’ हुआ है अत: वह झुंड बनाकर औरत को चारों ओर से घेरता है।
सामूहिक आनन्द की यह प्रविधि बहुत माफ़िक़ रही, सफलता के शिखर छूने लगी। और फिर तो जस्टिस वर्मा की बनाई वह नियमावली ताक पर रख दी गई जिसमें स्त्री के सम्मानित जीवन के ख़िलाफ़ चलने पर दंड-विधान मुक़र्रर किए गए थे। लेकिन कुछ ही दिन गुज़रे कि सामूहिक बलात्कारों और हत्याओं के सिलसिले बराबर चलने लगे। अब हम दिन में कई-कई बार देखते-गुज़रते हैं ऐसी दुर्दमनीय घटनाओं से और जीना-मरना एक कर देते हैं और आप कहते हैं कि हम डरते क्यों हैं?
छोड़िए बलात्कारों और तत्पश्चात हत्याओं की बात, स्त्री संहार का सिलसिला नया नहीं है क्योंकि पुरातन युग से आज तक यह ‘पवित्र यज्ञ‘ हो रहा है। कैसा हास्यास्पद हो गया सरकार की ओर से आया यह नारा - बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ। बेटी को पहले तो मानव विज्ञान की तकनीक ने ही भ्रूण रूप में ख़त्म करने की सुविधा दे दी और हमारे मर्दाने समाज की बढ़ोतरी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा जगह बना दी। चलिए, फिर भी बेटी पैदा होकर ही मानी और आपका मन बच्ची के प्रति दयालु भी हो उठा। बेटी पढ़ाओ की सद्इच्छा भी जाग गई तो इस से अच्छी बात कोई नहीं।
- लड़कियों को पढ़ाया जा रहा है और वे उस सीमा तक सफल होती जाती हैं जहाँ तक कि उन से उम्मीद नहीं की जाती, लेकिन बीच में यह क्या हो पड़ता है कि बीच रास्ते लड़की के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं, कि घर हो या बाहर उसको पेट्रोल या मिट्टी का तेल छिड़क कर आग के हवाले कर दिया जाता है।
मैं ऐसी कितनी बच्चियों के नाम लूँ। आप समझ लो कि लड़कियों की खेपें हत्याओं के हवाले की जा रही हैं। और आप कहते हैं कि हम डरें नहीं। यह तो मानवीयता के ख़िलाफ़ है क्योंकि भय मनुष्य का आदिम लक्षण होता है जैसे कि निद्रा और आहार। भयभीत कौन कर रहा है यह कोई दबी-छिपी बात तो है नहीं।
भय मुक्त करने वाला धर्म डरा क्यों रहा है आज?
धर्म जो हमें भय मुक्त करता रहा है आज डराने का काम कर रहा है। ऐसे कई मामले हैं जो धर्म से जुड़कर मनुष्य को अपने क़ब्ज़े में कर लेते हैं वरन हमने लव जेहाद शब्द अब तक की ज़िन्दगी में सुना नहीं था। अपने मज़हब के बाहर शादी करने की ऐसी संगीन सज़ाओं की आज़ाद भारत में कल्पना नहीं की थी।- दुखद अचम्भा न हो तो क्या हो जब शिक्षित युवक और युवतियों को अपनी ज़िन्दगी के लिये फ़ैसले न लेने दिए जाएँ और फ़ैसले लेने की क़ीमत सजा-ए-मौत हो। कहते हैं न कि एक को सजा दो, बाक़ी सबक़ लेंगे। बेशक सबक़ में दिल दहल-दहल जाने की प्रक्रिया से गुज़रना अजूबा तो नहीं।
क्या फूलन देवी हो जाने के सपने नहीं आएँगे?
हाँ, हम बहादुरी दिखा सकते हैं क्योंकि भय के बाद की स्थिति ग़ुस्से से भभूका होने की होती है। तब क्या हमें स्त्री के रूप में फूलन देवी हो जाने के सपने नहीं आएँगे? आप तो दुर्गा काली का पूजन करते हैं, उसकी शक्ति को सराहते हैं, मगर जब औरत काली का भयानक रूप धारण करती है तो आप भी थरथर काँपते हैं। तब हम क्या यह कहें कि आप क्यों डर रहे हैं, क्यों थरथर काँप रहे हैं। नहीं, हम तो ऐसा नहीं कहेंगे, फूलन देवी के समय भी ऐसा नहीं कहा था।
तब फूलन देवी की बहादुरी को लानत ही मिली थी कि मल्लाह की लड़की ने ठाकुरों पर वार किया, अपने प्रति अपमान का बदला लिया, भला एक तो छोटी जात जिसका मान क्या अपमान क्या, ऊपर से औरत जात की इतनी हिम्मत?
तरक्क़ियों के ढोल नगाड़े खोखले
मुश्किल तो यही है कि इस इक्कीसवीं सदी में विकास और तरक्कियों के ढोल-नगाड़े जो बज रहे हैं वे निहायत खोखले हैं क्योंकि इस देश की स्त्री बेदर्द तरीक़ों से रौंदी जा रही है और दलित आदिवासियों की आवाज़ का अता-पता मिलना मुश्किल हो रहा है। ये सब डर ही तो रहे हैं, नहीं तो अपनी नागरिकता के लिये ज़ोर देकर अधिकारों की माँग न करते? किस से माँगें अपना हक़? क्या उनसे जिनके आगे बोलना मना है? जिन से जबाव माँगना उनकी तौहीन में शामिल है। ज़बर लोग जब मारते हैं तो रोने नहीं देते। जितनी बलात्कृत लड़कियाँ रोईं-चिल्लाईं उनकी हत्या लाज़िमी मानी गई। और जो घिसटती हुई थाने-चौकी तक पहुँच गईं उनकी आवाज़ का कोई मतलब न मानने का रिवाज बना दिया गया है।
हमारे पास अब भय ही बचा है
तो हुज़ूर, हमारे परवरदिगार! अब हमारे पास हमारी आस और साँस के रूप में हमारा भय ही बचा है जो हमें कहीं तक सहारा दे रहा है अपनी ज़िन्दगी को बचाने के लिए। और भय के साथ यह आस भी बच रही है कि आज नहीं तो कल हम अपना होश सम्भालेंगे और जोश पकड़ेंगे तब दरिन्दों से आमना सामना होगा क्योंकि अब फिर से फूलनदेवियों का आना लाज़िमी हो गया है। दूसरों की दी हुई सुरक्षा, सुरक्षा नहीं होती, वह सुरक्षा का भ्रम होता है और अब हम भ्रमों से तंग आ चुके हैं। सच मानिए हमारे डर-भय ही हमें आत्मरक्षा के हथियार थमा रहे हैं क्योंकि यातना से हलकान होकर आख़िर साहस जाग ही उठा कि जाँबाज़ संघर्ष के लिये तैयार हो गए।
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