शाहबानो की रूह उसी तरह से छटपटा रही होगी, जैसी कि जीवित रहते 1985 में सुप्रीम कोर्ट से केस जीत लेने के बाद संसद द्वारा कोर्ट का फ़ैसला पलट दिये जाने से उसके मन पर बीतती रही थी!
हज़ार साल या उससे भी ज़्यादा समय से चली आ रही किसी सामाजिक बुराई को एक क़ानून बनाकर दो-चार साल में ख़त्म करने के सपने देखना कोई बहुत बड़ी अक़्लमंदी का काम तो नहीं है।