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फ़ाइल फ़ोटोफ़ोटो साभार: एमपीएनवी

ड्रामा स्कूल की अजब दास्ताँ: एकमात्र शिक्षक निकाला, विरोध पर छात्र भी निष्कासित

उत्तर भारत में 2 ड्रामा स्कूलों- मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय और भारतेन्दु नाट्य एकेडमी के हाल क्या हैं? स्थानीय अंचलों में इन दोनों संस्थाओं ने कलाओं की प्रस्तुति और प्रसार की दिशा में अनुकरणीय कार्य किया है। लेकिन अब क्या इनके वैसे ही हालात हैं? क्यों इनकी दुर्दशा की ख़बरें मीडिया में आ रही हैं?
अनिल शुक्ल

उत्तर भारत में कुल जमा 2 ही ड्रामा स्कूल हैं और दोनों का बुरा हाल है। 'नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा' (एनएसडी) की तर्ज़ पर खोले गए इन स्कूलों में एक (भोपाल) में शिक्षण के लिए कोई फ़ैकल्टी (अध्यापक) नहीं है। 'स्कूल' के एक अदद शिक्षक को लॉकडाउन शुरू होने से पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और कोर्स को पूरा किये जाने की माँग को लेकर निदेशक कार्यालय के सामने धरने पर बैठे छात्रों में से 8 को बीते सोमवार 'स्कूल' से निष्कासित कर दिया गया है। उधर दूसरे 'स्कूल' (लखनऊ) में न निदेशक हैं न फ़ैकल्टी। निदेशक के पद पर 4 साल से 'स्कूल' का एक बाबू (क्लर्क) क़ाबिज़ है।

'मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय' (एमपीएसडी) की स्थापना जून 2011 में हुई थी। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सांस्कृतिक संपदा से परिपूर्ण राज्य हैं। छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र राज्य बनाये जाने से पहले ही इन सांस्कृतिक सम्पदाओं और इससे जुड़ी प्रस्तुति कलाओं के संरक्षण और संवर्धन हेतु यहाँ के युवाओं के लिए एक ऐसे 'ड्रामा स्कूल' के खोलने पर विचार चल रहा था जो इन परम्परागत प्रस्तुति कलाओं को आधुनिक रंग तकनीक के चश्मे से देख सके और उन्हें इस नए 'चैलेंज' के लिए प्रशिक्षित कर सके। इससे पूर्व 1980 के दशक में (तमाम तरह के विवादों के बावजूद) यहाँ 'भारत भवन' की स्थापना की गई थी जिसने निःसंदेह इस अंचल में कलाओं की प्रस्तुति और प्रसार की दिशा में अनुकरणीय कार्य किया है।

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उत्तर एवं मध्य भारत के अधिकांश अंचलों में परंपरागत कलाएँ जहाँ लुप्तप्राय होती जा रही हैं, वहीं सौभाग्य से मध्य भारत के इस अंचल में ये कलाएँ और इनकी परम्परागत तकनीक अपने मूलभूत स्वरूप में अभी भी मौजूद हैं। परम्परागत कलाओं की आधुनिक रंगकर्म के साथ 'कनेक्टिविटी' की बात करें तो सौभाग्य से संयुक्त मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित) को महान रंगशिल्पी के रूप में हबीब तनवीर का सानिध्य मिला जिन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक रंगमंच 'नाचा' का इस्तेमाल आधुनिक रंग तकनीक के रूप में करके अंचल के रंगकर्मियों के सामने आधुनिक नाट्यपरम्परा के नए द्वार खोले, जो इससे पहले उत्तर भारत के किसी अंचल में नहीं हुआ था।

‘एमपीएसडी' के पहले निदेशक के रूप में 'एनएसडी' से प्रशिक्षित युवा रंगकर्मी संजय उपाध्याय को यह अवसर मिला कि वह 'स्कूल' के पहले निदेशक के रूप में आधुनिक रंगकर्म और अंचल के परम्परागत रंगकर्म से जोड़ कर एक नयी रंगधारा का सूत्रपात कर सकें। उन्होंने ऐसा किया भी। वह सौभाग्यशाली थे, उन्हें अपने 5 साल के पहले 'कार्यकाल में 'स्कूल' को राष्ट्रीय गरिमा प्रदान करवाने में सफलता मिली। 'मप्र सरकार ने उनके कार्यकाल को 2 वर्ष का अतिरिक्त 'विस्तार' दिया।

अपने मूल गुरुकुल (एनएसडी) की परम्परा के विपरीत संजय ने भोपाल के इस नए नकोरे नाट्य विद्यालय में जैसा माहौल तैयार किया, उसका नतीजा था कि यहाँ से पास आउट होने वालों में मुंबई भाग कर फ़िल्मों में हीरो बनने वालों की तुलना में पेशेवर या शौक़िया नाट्यकर्म को प्राथमिकता देने वालों की तादाद ज़्यादा बड़ी थी।

7 अक्टूबर 2018 को आलोक चटर्जी को निदेशक पद पर नियुक्त किया गया। आलोक भी 'राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय' के पास आउट थे और कहने को वहाँ संजय उपाध्याय से 4 साल सीनियर थे लेकिन भोपाल स्थित 'स्कूल' में 7 साल से शिक्षण का कार्य कर रहे थे। निदेशक की कुर्सी पर विराजमान होने से पहले आलोक ने भोपाल के कतिपय रंगकर्मियों की ओर से स्थानीय मीडिया में अभियान चलवाया था कि 'स्कूल' प्रमुख के पद पर स्थानीय रंगकर्मी को ही बैठाया जाना चाहिए। 

बहरहाल, इस अभियान का उनकी चयन प्रक्रिया पर कितना असर पड़ा, पता नहीं लेकिन 8 अक्टूबर 2018 को निदेशक पद संभालने के बाद से 'स्कूल' में जिस प्रकार की अराजकता फैली वह अभी तक थमने का नाम नहीं ले रही है। आलोक चटर्जी इसे अपने विरुद्ध ‘कुछ लोगों का षड्यंत्र’ मानते हैं।

अपने कार्यकाल का एक साल पूरा होते ही उन्होंने पहला हमला 'स्कूल' के एक मात्र स्थाई फ़ैकल्टी सदस्य केके राजन पर बोला। राजन भी उन्हीं की तरह 'एनएसडी' पास आउट हैं जिन्हें पिछले निदेशक संजय उपाध्याय ने 8 साल पहले नियुक्त किया था। राजन बताते हैं ‘मुझे डेढ़ साल से परेशान किया जा रहा था। मुझसे नाराज़गी की वजह यह थी कि निदेशक का पद खाली होने पर मैंने भी आवेदन किया था। वह न मालूम मुझमें कौन सा ख़तरा देखते हैं।’ राजन बताते हैं कि संजय उपाध्याय के 7 साल के निदेशक के कार्यकाल में न तो छात्रों की ओर से किसी प्रकार का 'अनरेस्ट' हुआ था और न ही स्टाफ़ में किसी स्तर पर कोई असंतोष था। ‘आलोक चटर्जी ने एक एक करके सभी को बाहर का रास्ता दिखाया और अब वे छात्रों के पीछे पड़ गए हैं।’ 

छात्रों की परेशानी

एक वर्ष के कोर्स 2019 से शुरू होकर जुलाई 2020 तक के लिए प्रस्तावित थे। इसके बाद एक वर्ष का पीरियड छात्रों की 'इंटर्नशिप' का था जिसमें उन्हें अलग-अलग अंचलों में जाकर स्वतंत्र नाट्य संरचनाएँ (ड्रामा प्रोडक्शन) करने थे। दुर्भाग्य से लॉकडाउन प्रारम्भ हो जाने के चलते 'स्कूल' बंद हो गए और छात्र अपने-अपने गृह जनपद लौट गए। यह सिलसिला अभी तक जारी था। किसी भी पेशेवर पाठ्यक्रम में 4 महीने की बंदी के मायने छोटे नहीं होते। छात्र बेचैन से अपने घरों में थे कि तभी अगस्त के पहले हफ़्ते में उन्हें मेल से सूचित किया गया कि उनके 'कोर्स' ख़त्म माने जाएँ, अब उन्हें डिप्लोमा प्राप्त करने के लिए निर्धारित तिथि पर 'स्कूल' आना होगा। वे सभी परेशान थे क्योंकि अभी उनके लम्बे चौड़े कोर्स पूरे पढ़ाये जाने थे और प्रशिक्षण के लिए कम से कम 2 प्रोडक्शन होने बाक़ी थे। 

सभी छात्र भरभराकर भोपाल पहुँचने लगे। उन्होंने निदेशक से मिलकर यह कहना चाहा कि अभी उनके 4 महीने का कोर्स पूरा करवाया जाए। उनका कहना था कि इसके लिए जब भी स्थितियाँ सामान्य मानी जाएँ, उनकी नियमित कक्षाएँ लगें और प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के लिए नाटकों के प्रोडक्शन हों।

निदेशक द्वारा ऐसी किसी संभावना से इनकार करने की दशा में सभी छात्र निदेशक कार्यालय के सामने 'धरने' पर बैठ गए। धरने के 11वें दिन 8 छात्रों को निष्कासित करने का नोटिस दे दिया गया। निष्कासित छात्रों में 5 पुरुष और 3 महिलाएँ शामिल हैं।

निष्कासित छात्र विनय बघेला का कहना है कि “उनके 'कोर्स' एक पेशेवर और विधिवत प्रशिक्षण की आवश्यकता वाले हैं जो विशेषज्ञों की मदद से ही पूरे हो सकते हैं। यह कोई बीए पास टाइप मामला नहीं कि रिजल्ट में पास कर देते हैं अब जाओ और बाबू की नौकरी ढूंढो।" एक दूसरे निष्कासित छात्र प्रियम जैन का कहना है "थ्योरी की आधी क्लासें लगी हैं और यही स्थिति प्रैक्टिकल कक्षाओं की है।" 

वस्तुतः लॉकडाउन से पहले ही विशेषज्ञ विज़िटिंग प्राध्यापकों को नहीं बुलाया गया था जिसके चलते पर्याप्त कक्षाएँ नहीं हो पा रही थीं। छात्रों ने जब इस बाबत निदेशक से पूछा तो जवाब मिला कि फंड की कमी के कारण बाहर से विशेषज्ञों को बुलाना संभव नहीं हो पा रहा है।

इस पर छात्रों ने जनवरी में प्रदेश के सांस्कृतिक सचिव से मुलाक़ात की। ('स्कूल' प्रदेश के सांस्कृतिक मंत्रालय के अधीन है।) सचिव के निर्देश पर सांस्कृतिक संचनालय (डायरेक्ट्रेट) के अधिकारियों, 'स्कूल' निदेशक और छात्रों की मीटिंग में विशेषज्ञों को बुलाने का निर्णय लिया गया, हालाँकि इस पर अमल शुरू होने के साथ ही कोरोना संकट खड़ा हो गया। छात्रों का कहना है कि कक्षाओं की बात तो एक तरफ़, वे सारे साल दूसरे प्रकार की जिन अनियमितताओं से जूझते रहे उनमें ख़राब वाटर कूलर से निकलने वाले दूषित पेय जल और मेस जैसी प्राथमिक आवश्यकताएँ भी शामिल हैं लेकिन 'स्कूल' प्रबंधन सारी समस्याओं पर मौन साधे रहा।

निदेशक की सफ़ाई

निदेशक आलोक चटर्जी इन सभी आरोपों से इनकार करते हैं। 'सत्य हिंदी' से बातचीत में वह सफ़ाई देते हुए कहते हैं, "छात्रों को मासिक स्तर पर मिलने वाले साल भर के वज़ीफ़े दिए जा चुके हैं और अब नाट्य विद्यालय के पास उनके सत्र को आगे बढ़ा पाने की आर्थिक क्षमता नहीं है। इस बाबत उन्होंने सांस्कृतिक संचनालय को लिखा है, जैसा निर्देश मिलेगा, वह वैसा ही करेंगे।" यह पूछने पर कि इन सारे मसलों पर छात्रों के साथ बैठक करने की जगह उन्होंने उन पर अनुशासन का डंडा क्यों चला दिया, श्री चटर्जी का जवाब था कि “वे लोग 'स्कूल' के माहौल को बिगाड़ रहे थे।“ यह पूछने पर कि छात्रों के कोर्स को संचनालय से 'एक्सटेंशन' की अनुमति मिलने की दशा में उनके हस्ताक्षरों से निष्कासित छात्रों को उसमें शामिल किया जाएगा, आलोक का जवाब था "इसका फ़ैसला भी संचनालय करेगा।" 

स्थिति यह है कि भोपाल के समाचार पत्र और मीडिया 'नाट्य विद्यालय' की ख़बरों से अटे पड़े हैं लेकिन न तो सांस्कृतिक संचनालय और न शासन इस मामले में किसी प्रकार का हस्तक्षेप कर रहा है। 'प्रगतिशील लेखक संघ' के प्रदेश अध्यक्ष शैलेन्द्र शैली कहते हैं कि "जो स्कूल हाल के सालों में देश में अपनी इमेज बना रहा था, वहाँ लगातार सुनाई देने वाली अराजकता और यह दशा देखी नहीं जाती। शासन को चाहिए कि तुरंत छात्रों की समस्या का निदान ढूंढें।"

भारतेन्दु नाट्य एकेडमी

उधर लखनऊ स्थित 'भारतेन्दु नाट्य एकेडमी' (बीएनए) भी ऐतिहासिक शैक्षिक संकट से जूझ रहा है। सन 1975 में स्थापित यह 'नाट्य विद्यालय' कभी एनएसडी के अलावा देश का एकमात्र ड्रामा स्कूल हुआ करता था जिसने राजपाल यादव से लेकर नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी तक शानदार अभिनेताओं की एक 'गैलेक्सी' को जन्म दिया है। अब लेकिन यही 'बीएनए' नाट्य शिक्षण के नाम पर खाना पूरी कर रहा है और लखनऊ के सांस्कृतिक जगत में यह 'बीमार नाट्य एकेडमी' के रूप में पुकारा जाता है।

madhya pradesh natya vidyalaya crisis and students protest - Satya Hindi
भारतेन्दु नाट्य एकेडमी में एक प्रस्तुति। फ़ोटो साभार: भारतेन्दु नाट्य एकेडमी

'कोई समय था जब इस 'नाट्य विद्यालय' के प्रबंधन के अध्यक्ष पद पर अमृतलाल नागर, अनुपम खेर और नादिरा बब्बर जैसी विभूतियाँ विराजमान हुआ करती थीं और निदेशक की कुर्सी पर राज बिसारिया जैसे नाट्य शिल्पी। आज हालत यह है कि अध्यक्ष का पद खाली पड़ा है, प्रबंधन समिति है नहीं और शासन की कृपा से निदेशक की कुर्सी पर 4 साल से 'विद्यालय' का ही एक अकाउंटेंट बैठा है। स्कूल' के बाबू को ‘भरत मुनि’ का ख़िताब अता करके ‘कार्यकारी निदेशक’ की कुर्सी पर बैठाने में जैसी श्रद्धा अखिलेश यादव सरकार ने दिखाई थी, योगी सरकार ने भी उसी बाबू को उसी गद्दी पर बैठाए रखने में वैसी ही तन्मयता का परिचय दिया है।

कोई समय था जब 'बीएनए' की प्रबंधन समिति के साथ इब्राहिम अल्काज़ी, नेमिचंद जैन, मनोहर सिंह, कुंवर नारायण सिंह जैसे नाट्यशिल्पियों और लेखकों के नाम जुड़े थे, राज बिसारिया जैसे वरिष्ठ रंगशिल्पी इसके संस्थापक निदेशक हुआ करते थे और उन्होंने अपनी परिकल्पना से एक लघु 'एनएसडी' को लखनऊ में खड़ा कर दिया था।

श्री बिसरिया ने 'नाट्य विद्यालय' से जुड़ी जिस 'रेपेट्री कंपनी' की स्थापना की थी, वह सालों से बंद पड़ी है। हालत यह है कि कभी शानदार शास्त्रीय और आधुनिक हिंदी नाटक तैयार करके देश भर में प्रस्तुति देने वाली 'बीएनए रेपेट्री कंपनी' आज 'स्वच्छता' से लेकर 'कोरोना' के सरकारी प्रचार वाली तथाकथित लघु नाटिकाओं को तैयार कर रही है। इसके लिए शहर के 'सी' ग्रेड अभिनेताओं को पकड़ कर उनसे काम चलाया जा रहा है। बताया जाता है ज़िला स्तर के अधिकारियों के आवास से लेकर दूसरे प्रशासनिक अधिकारियों के यहाँ काम करने वाले अस्थाई नौकरों को भी वेतन के तौर पर 'रेपेट्री' से अभिनेता फ़ीस के रूप में भुगतान किया जाता है। 'बीएनए' के पास अपना एक अदद स्थाई शिक्षक या प्रशिक्षक नहीं। सहायक निदशकों के 2 पदों पर भी बाबुओं का क़ब्ज़ा है। 

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'ड्रामा स्कूल' के विनाश की कहानी दरअसल मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में शुरू होती है जब कैबिनेट ने एक फ़ैसला करके इसके अध्यक्ष पद को राज्य मंत्री का ओहदा प्रदान किया था और वहाँ बसपा नेता की नियुक्ति कर दी थी। यह अकेले 'ड्रामा स्कूल' की विनाशलीला की कहानी नहीं, मायावती सरकार की दुर्भावना का यह क़हर संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी आदि सभी सांस्कृतिक स्वायत्त सेवी संस्थाओं पर भी टूटा था और सभी जगह राज्य मंत्री पद के लालच में बसपा नेताओं को बैठा दिया गया था। आगे चलकर यही सिलसिला अखिलेश यादव सरकार में भी जारी रहा।

'सैंया भये कोतवाल अब डर काहे का' का गीत गाने वाले बाबुओं के दम पर किस तरह के छात्रों को दाखिला मिलता होगा और 2 साल के पाठ्यक्रम के रूप में उन्हें क्या पढ़ाया जाता होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। यही कारण है कि कभी राजपाल यादवों और नवाज़उद्दीन सिद्दीक़ियों को तैयार करने वाला ‘बीएनए’ बीते सालों में एक भी क़ाबिल रंगशिल्पी को जन्म नहीं दे सका है। यही नहीं, छात्रों को मिलने वाली स्कॉलरशिप की कैसी बंदरबाँट होती होगी, इसे भी सहज समझा जा सकता है।  

'बीएनए' के आख़िरी निदेशक और सुप्रसिद्ध रंगशिल्पी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ कहते हैं कि "अब तो यह स्थिति आ गई है कि बीएनए में झाँकने का मन नहीं करता।"

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