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क्या सरकारों के ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत खो चुके हैं लोग?

प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकॉनमिस्ट’ ने पिछले दिनों रूस के सम्बन्ध में प्रकाशित अपने एक अग्रलेख में कहा है कि लोगों का पेट जैसे-जैसे तंग होने लगता है, सरकारों के पास उन्हें देने के लिए राष्ट्रवाद और विषाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। अग्रलेख में यह भी कहा गया है कि जो सरकारें अपनी जनता के ख़िलाफ़ भय का इस्तेमाल करके शासन करती हैं, वे अंततः खुद भी भय में ही रहने लगती हैं। 
श्रवण गर्ग

सहज जिज्ञासा है कि लोग पूछ रहे हैं- ‘अब क्या करना चाहिए?’ एक विशाल देश और उसके एक-दूसरे से लगातार अलग किए जा रहे नागरिक जिस मुक़ाम पर आज खड़े हैं, वे जानना चाह रहे हैं कि उन्हें अब किस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए? 

आम आदमी की साँसों को प्रभावित करने वाला ऐसा कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जिसमें अभावों के साथ-साथ बाक़ी सभी चीज़ें भी अपने निम्नतम स्तरों पर नहीं पहुँच गई हों। होड़ मची हुई है कि कौन ज़्यादा नीचे गिर सकता है। संविधान निर्माता सात दशक पहले के काल में वर्तमान परिदृश्य की कल्पना नहीं कर पाए होंगे वरना वे कुछ तो लिखकर अवश्य जाते।

हमने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया कि हमारे आसपास की चीज़ें कितनी तेज़ी से फ़ास्ट-फ़ॉरवर्ड हो रही हैं और पलक झपकते ही पुरानी के स्थान पर नई आकृतियाँ प्रकट हो रही हैं। केवल एक उदाहरण ले लें... क्या हमने नोटिस किया कि मॉब-लिंचिंग जैसी घटनाएँ अचानक बंद हो गई हैं, जैसे किसी ने स्विच ऑफ करके ऐसा न करने का फ़रमान जारी कर दिया हो। 

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इसका यह मतलब क़तई नहीं कि वे तत्व जो इस तरह की कार्रवाइयों में जुटे थे, उनका कोई हृदय परिवर्तन हो गया है और वे एक नेक इंसान बन गए हैं। न ही कुछ ऐसा हुआ है कि जो घटनाएँ अतीत में घट चुकी हैं, उनके दोषियों को पर्याप्त सजाएँ और पीड़ित परिवारों को राहत और न्याय नसीब हो चुका है।

लोग तकलीफ़ के साथ महसूस कर रहे हैं कि इस समय जो कुछ चल रहा है, वह और भी ज़्यादा डराने वाला है। ऐसा इसलिए कि इस नए खेल में जो हिस्सा ले रहे हैं, उनका सम्बन्ध समाज के सम्पन्न लोगों की जमात से है। असीमित सम्पन्नता के बोझ से जन्मा यह नया उग्रवाद मॉब लिंचिंग या धार्मिक आतंकवाद के मुक़ाबले ज़्यादा ख़तरनाक इसलिए है कि क्योंकि इसे स्थानीय सत्ताओं का राजनीतिक संरक्षण और प्रश्रय प्राप्त है। इसे राजनीति ने सत्ता की ज़रूरत का नया हथियार बना लिया है। 

इस खेल में उन अस्सी करोड़ लोगों की कोई भागीदारी नहीं है, जिन्हें राशन की क़तारों में खड़ा कर दिया गया है, जो करोड़ों की तादाद में बेरोज़गार हैं अथवा इलाज के अभाव में अस्पतालों की सीढ़ियों पर दम तोड़ रहे हैं।

प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकॉनमिस्ट’ ने पिछले दिनों रूस के सम्बन्ध में प्रकाशित अपने एक अग्रलेख में कहा है कि लोगों का पेट जैसे-जैसे तंग होने लगता है, सरकारों के पास उन्हें देने के लिए राष्ट्रवाद और विषाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता।

उत्तर प्रदेश में आपातकाल?

अग्रलेख में यह भी कहा गया है कि जो सरकारें अपनी जनता के ख़िलाफ़ भय का इस्तेमाल करके शासन करती हैं, वे अंततः खुद भी भय में ही रहने लगती हैं। लगभग पच्चीस करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में इस समय जो चल रहा है वह बताता है और इशारा भी करता है कि आपातकाल लगाने के लिए अब किसी औपचारिक घोषणा की ज़रूरत नहीं रहेगी।

लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका पर उठते सवालों को लेकर देखिए डिबेट-
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी एक अधिसूचना के अनुसार अब राज्य के किसी भी व्यक्ति को बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति और वारंट के गिरफ़्तार किया जा सकेगा। बिना सरकार की इजाज़त के कोर्ट भी ऐसी कार्रवाई करने वाले किसी अधिकारी के ख़िलाफ़ संज्ञान नहीं ले सकेगा। माना जा सकता है कि आगे या पीछे और सरकारें भी उत्तर प्रदेश से प्रेरणा ले सकती हैं। क्योंकि जो चिंताएँ देश की सबसे अधिक आबादी वाले राज्य की हो सकती हैं, वे और प्रदेशों की भी तो हो सकती हैं। 
सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश की इस 'व्यवस्था' को नागरिकों के सशक्तिकरण की दिशा में उठाया गया कदम माना जाए या फिर किसी अन्य आशंका और अज्ञात भय की दृष्टि से देखा जाए?

मेरे पिछले आलेख (‘कोरोना पर भारी पड़ गई कंगना’) को लेकर कई मित्रों की जो अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं हैं, उनमें केवल दो का उल्लेख करना चाहूँगा। दोनों के सवाल एक जैसे ही हैं। ग्वालियर के कवि-मित्र पवन करण ने कहा- ‘दुखद है। क्या किया जाए!’ और शिवपुरी के डॉ. महेंद्र अग्रवाल की प्रतिक्रिया है- ‘सही कहा, पर क्या होगा?’ 

सवाल जायज़ हैं और हरेक व्यक्ति जानना भी चाहता है कि परिस्थितियों के प्रति मन में क्षोभ हो और अहिंसक तरीक़ों से भी नाराज़गी को ज़ाहिर करने के ख़िलाफ़ सड़कों पर अवरोध खड़े कर दिए जाएँ तो फिर एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संवेदनशील नागरिकों को क्या करना चाहिए? 

हमें यह जानकर थोड़ा आश्चर्य हो सकता है कि दुनिया के कोई एक चौथाई से ज़्यादा यानी साठ देशों में इस समय नागरिक अपनी माँगों अथवा सरकारों के कामकाज के ख़िलाफ़ सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इनमें तानाशाही हुकूमतें भी शामिल हैं। अमेरिका के तो सभी राज्यों में 25 मई के बाद से ऐसा हो रहा है।

महात्मा गांधी ने वैसे तो अहिंसक और शांतिपूर्ण प्रतिकार के कई रास्ते बताए हैं, पर उनका पालन हमारे लिए कठिन है। दूसरा यह कि इस समय हमारे पास गांधी जी जैसा कोई व्यक्तित्व भी नहीं है। अब यह भी सम्भव नहीं कि केवल एक या कुछ व्यक्ति ही बोलते रहें और बाक़ी मौन रहें। 

सरकारों को सुविधाजनक लगता है कि कुछ लोग विरोध करते रहें और बाक़ी खामोशी ओढ़े रहें। इससे दुनिया में भी संदेश चला जाता है कि देश में बोलने पर कोई पाबंदी नहीं है और कहीं कुछ बदलता भी नहीं।

प्रतिष्ठापूर्ण नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त करने वाली अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने शांतिपूर्ण प्रतिकारों के क्षेत्र में कई तरीक़े ईजाद किए हैं। ये तरीक़े अधिनायकवादी हुकूमतों पर भी असर डालते हैं और लोकतांत्रिक सरकारों को भी जवाब देने के लिए बाध्य करते हैं। एमनेस्टी की पहल पर कई देशों में जेलों में बंद सत्ता-विरोधी लोग रिहा हुए हैं और मौत की सजाएँ भी रद्द हुई हैं। 

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एमनेस्टी के काम करने के कई और तरीक़ों में एक यह भी है कि वह नागरिकों को प्रेरित करती है कि व्यवस्थाओं के प्रति अपना प्रतिरोध व्यक्त करने के लिए वे शासन-प्रमुखों के नाम चिट्ठियाँ और मेल लिखें या अन्य साधनों से संदेश प्रेषित करें।

अराजकता फैला रहा मीडिया?

हमारे यहाँ तो सवाल उन कतिपय मीडिया संस्थानों का भी है, जो राष्ट्रीय स्तर पर अराजकता फैला रहे हैं। नागरिक चाहें तो यह काम लगातार कर सकते हैं और ऐसे सभी लोगों, संस्थाओं और शासन में बैठे ज़िम्मेदार व्यक्तियों को अपने विरोध और असहमति से अवगत करा सकते हैं, जिन्होंने लोकतंत्र को एक मज़ाक बना कर रख दिया है। 

नागरिकों में अगर किसी भी तरह का विरोध या असहमति व्यक्त करने का साहस ही नहीं बचा है तो फिर उन्हें जो कुछ चल रहा है, उसे चुपचाप स्वीकार करते रहना चाहिए। अभी ऐसा ही हो रहा है कि गिने-चुने लोग ही बोल रहे हैं और बहुसंख्या में मौन हैं।

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