loader

संघर्ष, दमदार अभिनय के बलबूते फ़िल्म इंडस्ट्री में इरफ़ान ने बनाई थी अलग पहचान

मध्यवर्गीय परवरिश वाले माहौल से आने वाले इरफ़ान ने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से निकलकर मुंबई की चकाचौंध वाली फ़िल्म इंडस्ट्री में अपने काम के दम पर पहचान बनाई। नामी फ़िल्मी सितारे होने के बावजूद वह कभी फ़िल्मी दुनिया की तड़क-भड़क का हिस्सा नहीं बने और पैसे, ब्रांडिंग और मार्केटिंग के पीछे पागलों की तरह दौड़ने की रेस से भी हमेशा दूर ही रहे। 
अमिताभ

झुम्पा लाहिरी के उपन्यास ‘द नेमसेक’ पर इसी शीर्षक से बनी फ़िल्म में अशोक गांगुली का किरदार निभाने वाले इरफ़ान ख़ान का वह सीन इस वक्त याद या रहा है जिसमें हवाई अड्डे पर लाइन में खड़े हुए वह सिर्फ हल्का सा सिर हिला कर गुडबाय का संकेत देते हैं और अगला ही दृश्य उनके किरदार अशोक गांगुली की मृत्यु का समाचार सामने लाता है और तब दर्शक के सामने एक सामान्य लगने वाले अभिवादन का अर्थ अलविदा की तरह खुलता है। 

उस दृश्य में और उस पूरी फ़िल्म में इरफ़ान का उच्च कोटि का अभिनय दर्शक से एक गहरे आध्यात्मिक, रहस्यवादी स्पर्श की तरह जुड़ता है और उस छुअन की थरथराहट बहुत देर तक बनी रहती है। 

ताज़ा ख़बरें

बरसों पहले टीवी पर देखे गए नाटक ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ में लेनिन बने इरफ़ान का संवाद भी याद आ रहा है, जब वह अपनी अब तक खास बन चुकी मुस्कराहट के साथ कहते हैं - “लेनिन दिखता है? दिखना भी नहीं चाहिए क्योंकि लेनिन तो यहाँ है।" संवाद का अंतिम हिस्सा कहते हुए दिमाग की तरफ इशारा करती हुई उनकी उंगली जैसे स्मृति में छप गयी थी। 

आज इरफ़ान के गुज़र जाने पर उनके बारे में लिखते हुए वह दृश्य, उनकी मुस्कराहट और किरदार का उनका कमाल का विश्लेषण याद आ गया। 

चरित्रों और भावनाओं को इस तरह अंडरप्ले करने में इरफ़ान की महारत ने उन्हें मसाला हिंदी सिनेमा की भीड़ में तो एक अलग मुकाम दिलाया ही, अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में भी इरफ़ान भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री के सबसे चर्चित चेहरे के तौर पर पहचाने गए, सराहे गए। 

बड़ी-बड़ी और गहराई से देखती आँखें, आवाज़ का शानदार उतार-चढ़ाव और चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कराहट, इरफ़ान ने अपने अभिनय में अलग-अलग किरदारों के रंग दिखाने के लिए इनका बखूबी इस्तेमाल किया।

पहचान बनाने के लिए संघर्ष 

नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से अभिनय का प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने संघर्ष का एक लम्बा दौर देखा। टेलीविज़न के लिए ‘भारत एक खोज’ ‘चाणक्य’, ‘चंद्रकांता’, ‘बनेगी अपनी बात’ जैसे धारावाहिकों ने उन्हें काम तो दिलाया लेकिन उनके भीतर छिपे बड़े कलाकार के लिए छोटा पर्दा संतुष्टि के लिहाज से नाकाफी था। 

मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ में छोटे से किरदार के बाद गोविन्द निहलानी की फ़िल्म दृष्टि में डिंपल कपाड़िया के साथ किये दृश्यों में उन्हें नोटिस किया गया। तपन सिन्हा की फ़िल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ में मुख्य किरदार तो पंकज कपूर का था लेकिन इरफ़ान का निभाया अमूल्य वाला किरदार भी याद रह गया। मगर उन्हें पुख्ता पहचान मिली ‘हासिल’ और ‘वॉरियर’ से। 

इरफ़ान के जिगरी दोस्त तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म ‘हासिल’ में छात्र नेता रणविजय के खल चरित्र ने उनके लिए मसाला हिंदी सिनेमा में बड़े किरदारों के दरवाज़े खोले और आसिफ़ कपाड़िया की फ़िल्म ‘वॉरियर’ के साथ उन्होंने अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करायी। उसके बाद तो ‘स्लमडॉग मिलिनेयर’, ‘लाइफ़ ऑफ़ पाई’, ‘अमेजिंग स्पाईडरमैन’, ‘जुरासिक वर्ल्ड’ ने उन्हें हॉलीवुड में सबसे ज़्यादा मांग वाला हिंदुस्तानी अभिनेता बना दिया। 

इधर, हिंदी सिनेमा में ‘गुनाह’, ‘न्यूयॉर्क’, ‘चॉकलेट’, ‘गुंडे’, ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो’, ‘रोग’, ‘जज़्बा’, ‘तलवार’, ‘पीकू’ जैसी तमाम फ़िल्में जिनमें इरफ़ान चरित्र अभिनेता, खलनायक और नायक के तौर पर दिखे और खालिस मुम्बइया फ़ॉर्मूला सिनेमा के सितारों के बीच अपनी अलग पहचान बनायी। ‘पीकू’ की सफलता में अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण के साथ इरफ़ान की अदाकारी का बड़ा हाथ था। 

क्रिकेटर बनना चाहते थे इरफ़ान 

53 साल के इरफ़ान राजस्थान के जयपुर शहर के मध्यवर्गीय परवरिश वाले माहौल से निकलकर दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के रास्ते मुंबई की चकाचौंध वाली फ़िल्मी दुनिया में पहुंचे थे।  दिलचस्प बात यह है कि इरफ़ान शुरुआत में क्रिकेटर बनना चाहते थे लेकिन पैसों की कमी की वजह से यह सपना अधूरा ही रह गया। 

छोटे शहर का मध्य वर्गीय परिवेश, उसकी नैतिकताएं, संकोच, सादगी भरी ज़िन्दगी इरफ़ान की शख्सियत का हिस्सा बनी रही। नामी फ़िल्मी सितारे होने के बावजूद इरफ़ान फ़िल्मी दुनिया की तड़क-भड़क का हिस्सा कभी नहीं बने। स्टारडम कभी उनकी प्राथमिकता भी नहीं रही।

इरफ़ान ने एक बुद्धिजीवी कलाकार की छवि बनाई। लीक से हटकर वह पैसे, ब्रांडिंग और मार्केटिंग के पीछे पागलों की तरह दौड़ने की रेस से भी हमेशा दूर ही रहे। एनएसडी की अपनी दोस्त सुतपा सिकदर से शादी की और दो बच्चों के पिता बने। 2018 में उन्हें कैंसर का पता चला था और वह इलाज के लिए विदेश गए, वहां से ठीक होकर भी लौटे लेकिन मंगलवार की शाम अचानक तबियत बिगड़ने के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया जहाँ उन्होंने बुधवार को अंतिम सांस ली। 

इसे नियति का क्रूर खेल ही कहा जायेगा कि इरफ़ान की मां की बीते शनिवार को 95 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई थी लेकिन कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से चल रहे लॉकडाउन के कारण वह अपनी मां की अंत्येष्टि में भी शामिल नहीं हो पाए थे। 

सिनेमा से और ख़बरें

तीन दशकों के अपने अभिनय के सफर में इरफ़ान की फ़िल्मों की गिनती सौ तक भी नहीं है, जो एक तरह से यही साबित करता है कि उन्हें आंकड़ों के खेल के बजाय काम से, कला की गहराई से ज़्यादा लगाव था। इस जूनून के चलते ही उन्होंने कई यादगार किरदार निभाए हैं, जो मील का पत्थर बन चुके हैं। 

हैदर का रूहदार, मैकबेथ की तर्ज़ पर ढला मक़बूल, पान सिंह तोमर, लंच बॉक्स का क्लर्क, अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने के लिए तरह-तरह के जुगाड़ लगाता हिंदी मीडियम का मिडिल क्लास शख्स जैसे किरदार इरफ़ान को स्तरीय अभिनय पसंद करने वाले दर्शकों के बीच हमेशा जीवित रखेंगे। लेकिन उनके जैसा शख्स अब हमारे बीच नहीं है, यह टीस भी बनी रहेगी। 

एथलीट से चंबल का बाग़ी बन चुका पान सिंह तोमर पुलिस से छुपते-छुपाते पत्नी से मिलने जाता है। पत्नी से पूछता है तुम्हारे पंडित ने मेरी जन्मपत्री देखकर क्या कहा है? पत्नी कहती है- पंडित का कहना है सरेंडर हो जाओ। पान सिंह कहता है - तुम्हारा पंडित फर्जी है। एक न एक दिन तो सबको सरेंडर होना है। पति-पत्नी के बीच यह संवाद बुंदेलखंड की स्थानीय बोली में होता है।

पान सिंह तोमर बने इरफ़ान अपनी संवाद अदायगी और चेहरे के हाव-भाव से सरेंडर के रूपक के गूढ़ अर्थ को जिस तरह खोलकर दर्शक तक पहुंचाते हैं, वह अद्भुत है। पान सिंह तोमर इरफ़ान के आविस्मरणीय अभिनय और तिग्मांशु धूलिया के बेहतरीन निर्देशन की वजह से विश्वस्तरीय उत्कृष्ट सिनेमा की श्रेणी की फ़िल्म है, हिंदी सिनेमा का एक शानदार, यादगार हिस्सा तो है ही। 

फ़िल्म में पान सिंह के हितैषियों की सलाह के ज़रिये सरेंडर का ज़िक्र कई बार आता है। अजीब विडंबना है कि इरफान ने कैंसर के इलाज के दौरान बेहद तकलीफ से गुजरते हुए कहा था कि उन्होंने सरेंडर कर दिया है।

‘लाइफ़ ऑफ़ पाई’ में इरफ़ान द्वारा बोला गया एक संवाद याद आ रहा है- ‘अंत में पूरा जीवन बस सिर्फ सब कुछ छोड़ देने की ही कहानी रह जाता है लेकिन अलविदा कहने का वक्त भी नहीं मिल पाता, यह बात हमेशा सबसे ज़्यादा तकलीफ देती है।’    
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अमिताभ

अपनी राय बतायें

सिनेमा से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें