वर्तमान में हमारे देश में सिनेमा जिस दौर से गुज़र रहा है उस दौर को ऐतिहासिक तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इतिहास में याद ज़रूर रखा जाएगा। इसे सिर्फ़ इसलिए नहीं याद रखा जाएगा कि इतिहास से जुड़े कथानकों के दम पर बड़े-बड़े बजट की मल्टी स्टारर फ़िल्में बनीं बल्कि इसलिए ज़्यादा याद किया जाएगा कि इस दौर में सिनेमा को प्रत्यक्ष तौर पर राजनीति का हथियार बनाकर उसका भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है।
राजनीतिक मत भिन्न रखने वाले कलाकारों की फ़िल्मों का बहिष्कार इस बात को स्पष्ट कर दे रहा है कि सिर्फ़ मीडिया ही 'गोदी मीडिया' नहीं बना है सिनेमा भी किसी ऐसे ही नाम का इंतज़ार कर रहा है। राष्ट्रवाद का एक प्रखर ज्वार इन दिनों हिंदी फ़िल्मों में परोसा जा रहा है। साथ ही साथ राजनीतिक रोटी सेंकने का खेल भी अब फ़िल्मों के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से खेलने की कोशिश हो रही है।
इसका नज़ारा साल 2019 में लोकसभा चुनावों के ठीक पहले देखने को मिला था।
विवेक ओबरॉय अभिनीत ‘पीएम नरेंद्र मोदी, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत ‘ठाकरे’, अनुपम खेर और अक्षय खन्ना अभिनीत ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’, ऐसी फ़िल्में हैं जो चुनावी साल में एक ख़ास मक़सद से प्रदर्शित की गयीं।
फ़िल्म मणिकर्णिका में भी वैसे तो झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी है, पर इसमें उनकी धार्मिक पहचान को ख़ासतौर पर उभारा गया है और साथ ही डायलॉग्स में बार-बार देश बचाने की बात की गई है। ऐसी ही एक फ़िल्म रही ‘उरी’, जो 2016 में भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित है। लोकसभा चुनाव से पहले देश के मुख्य राजनीतिक दलों के बीच सर्जिकल स्ट्राइक बड़ा मुद्दा बन गया था।
इस कड़ी में अब ‘तानाजी’ का नाम भी जुड़ रहा है। देशभक्तों की फ़ौज इस फ़िल्म को ‘छपाक’ के बरक्स रख देशभक्ति का जज़्बा उभार रही है। आरोप यह भी लगता है कि ऐसी फ़िल्में बनाते समय विचारधारा विशेष को दर्शाने के लिए तथ्यों के साथ छेड़खानी भी की जा रही हैं। ख़ैर, यह बहस तो जारी रहेगी पर अजय देवगन अभिनीत तानाजी मालसुरे फ़िल्म कमाई के रिकॉर्ड तोड़ रही है।
अब ‘तानाजी’
इतिहास में तानाजी मालसुरे का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है और इसका कारण उनकी बहादुरी, युद्ध शैली, तलवारबाज़ी और छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रति निष्ठा है। तानाजी ने शिवाजी महाराज के लिए कई युद्ध लड़े और साल 1670 में कोढ़ाणा क़िले (सिंहगढ़) को भी जीता था। जब शिवाजी सिंहगढ़ को जीतने निकले थे तब तानाजी अपने पुत्र के विवाह में व्यस्त थे लेकिन जैसे ही उन्हें शिवाजी का समाचार मिला उन्होंने वह विवाह छोड़कर युद्ध में चले गए।
शिवाजी महाराज का संदेश था "माता जीजाबाई ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक कोढाणा दुर्ग पर मुसलमानों के हरे झंडे को हटा कर भगवा ध्वज नहीं फहराया जाता, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगी। तुम्हें सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण करना है और अपने अधिकार में लेकर भगवा ध्वज फहराना है। स्वामी का संदेश पाकर तानाजी ने सबको आदेश दिया- “विवाह के बाजे बजाना बन्द करो, युद्ध के बाजे बजाओ।" अनेक लोगों ने तानाजी से कहा- "अरे, पुत्र का विवाह तो हो जाने दो, फिर शिवाजी महाराज के आदेश का पालन कर लेना।" परन्तु, तानाजी ने ऊँची आवाज़ में कहा- "नहीं, पहले कोढाणा दुर्ग का विवाह होगा, बाद में पुत्र का विवाह। यदि मैं जीवित रहा तो युद्ध से लौटकर विवाह का प्रबंध करूँगा। यदि मैं युद्ध में काम आया तो शिवाजी महाराज हमारे पुत्र का विवाह करेंगे।" बस, युद्ध निश्चित हो गया।
इतिहास में इस बात का बार-बार उल्लेख है कि शिवाजी महाराज की गोरिल्ला युद्ध शैली में कई प्रयोग हुआ करते थे। उनमें से एक गोह का ज़िक्र है। यह गोह तानाजी के पास था। गोह का नाम यशवंती था। इसकी कमर में रस्सी बाँध कर तानाजी क़िले की दीवार पर ऊपर की ओर फेंकते थे और यह गोह छिपकली की तरह दीवार से चिपक जाती थी। इस रस्सी को पकड़ कर वे क़िले की दीवार चढ़ जाते थे। लेकिन कोंढाणा के क़िले पर जिस रात हमला करना था पहली बार में यशवंती सही ढंग से दीवार पर पकड़ नहीं बना पायी और वापस नीचे गिर गयी। सभी ने इसे अपशकुन माना और तानाजी से वापस लौटने के लिए कहा; लेकिन तानाजी ने इस बात को अंधविश्वास कहकर ठुकरा दिया।
बताया जाता है कि युद्ध में तानाजी की ढाल टूट गई। तब उन्होंने अपना सिर का फेटा (पगड़ी को) खोल लिया। और उसे अपने दूसरे हाथ में लपेट लिया ताकि उसे ढाल की तरह इस्तेमाल कर सकें। उसके बाद उन्होंने एक हाथ से तीव्र गति से तलवार चलाई और दूसरे हाथ पर शत्रु की तलवार के घाव लिए। इस युद्ध में शेलार मामा के हाथों उदयभानु भी मारा गया। सूर्योदय होते-होते कोढाणा दुर्ग पर भगवा ध्वज फहर गया। शिवाजी यह देखकर प्रसन्न हो उठे। परन्तु, जब उन्हें पता चला कि उनके आदेश का पालन करने में तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए हैं, तब उनके मुख से निकल पड़ा- “गढ़ आला पण सिंह गेला यानी ‘गढ़ तो हाथ में आया, परन्तु मेरा सिंह (तानाजी) चला गया।’ उसी दिन से कोढाणा का नाम सिंहगढ़ हो गया।
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