हिंदी सिनेमा के आज के दौर के शानदार और दमदार अदाकार माने जाने वाले, अपने मौलिक अभिनय का लोहा मनवाकर बिहार के बेतिया जैसे छोटे शहर से निकल कर कई राष्ट्रीय और फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड जीतने वाले मनोज वाजपेयी इन दिनों कुमाऊँ की हसीन वादियों में परिवार के साथ हैं। वह दो माह से लॉकडॉउन की वजह से शूटिंग स्थगित होने के कारण रुके हुए हैं। उनसे बातचीत की वरिष्ठ पत्रकार ध्रुव रौतेला ने।
सवाल- फ़ैमिली मैन के श्रीकांत त्रिपाठी और वास्तविक जीवन के मनोज वाजपेयी, जो पत्नी और एक छोटी बेटी के साथ रहते हैं, के बीच क्या समानता है?
मनोज वाजपेयी: जब आपकी यात्रा नीचे से ऊपर की ओर होती है तो आपके पास अनुभव का भंडार होता है। एक आम इंसान की तरह एक कलाकार का पिता के रूप में अनुभव करना और बेटी की चिंता करना स्वाभाविक है। आम इंसान की तरह श्रीकांत तिवारी भी वही सब करता है। उसमें एक मानव स्वभाव जैसी अच्छाई है तो बुराई भी। मसलन, वह पत्नी और उसके सहकर्मी के संबंधों पर शक करता है, पीछा करता है। इसी तरह दक्षिण भारतीय परिवार से आने वाली पत्नी के माता-पिता के साथ उसका एक प्रकार का द्वंद्व सांस्कृतिक और भाषाई भी है। इसलिए मेरा प्रयास चरित्र में डूबकर उसको बाहर लाने का रहता है।
सवाल: सत्या के भीखू म्हात्रे के समय के सिनेमा और आज वेब सीरीज़ के ज़माने में क्या बदलाव आया है? आज के समय में "मस्तराम" आसानी से हमारे घरों में फ़ोन,टीवी के माध्यम से जगह बना रहा है तो क्या कला के ऊपर अश्लीलता हावी नहीं हो रही है?
मनोज वाजपेयी: देखिए, यह जो ओटीटी और वेब सीरीज़ की दुनिया आई है, ग़जब की जगह इसने बनाई है। यह बेहद स्वतंत्र और लोकतांत्रिक है। गालियाँ हमने गणित की तरह किसी क्लास में नहीं सीखी होती हैं, स्वयं माहौल से हम उसको आत्मसात करते हैं। इसी तरह इसमें सेंसर की कैंची का ख़तरा नहीं है। यह ज़्यादा स्वतंत्र है। आज़ादी की बात हम कलाकार शुरू से करते आए हैं और सेंसर भी किसी माता-पिता से बड़ा नहीं है, उसको एक उम्र तक क्या करना है, यह हम पर निर्भर है। उसके बाद तो हमारा बच्चा भी स्वयं ही तय करता है ना कि क्या बोलें या फिर देखें। ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर मेरी बेटी अभी से सीरीज़ देखती है लेकिन जिसमें लिखा होता है यह सात साल तक के बच्चे के लिए मंजूर है, वो उसी को देखेगी जिसको हम माता-पिता बोलेंगे। फै़मिली मैन आई तो हमने तय किया, उसको दिखाएँगे और जो सवाल वह मुझसे पूछती रही, मैं मौलिकता के साथ उसकी जिज्ञासा को शांत करता गया। हर जागरूक माता-पिता को यही करना चाहिए। जिसकी आप बात करे रहे हैं, मस्तराम एक ऐसा काल्पनिक चरित्र है जो हमारे समाज का हिस्सा रहा है, जिसको हम नकार नहीं सकते। हमारी बढ़ती हुई उम्र के साथ वह नाम काफ़ी लोकप्रिय रहा है और इस बात का द्योतक रहा है कि हमारे समाज में वासना को लेकर कुंठाएँ कितनी हैं। हमने उसको प्राकृतिक न मान दबाया-छुपाया है जिसके कारण से यह हुआ। ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म ने जन्म जातीय व्यवस्था, धारणा और परंपरा को भी तोड़ा है।
इसमें बीच में कोई बॉक्स ऑफ़िस भी नहीं जो आपका मूल्यांकन करेगा, आपकी प्रतिभा सीधे दर्शक तय करेगा कोई आलोचक या अख़बार भी नहीं।
सवाल: क्या मनोज वाजपेयी जैसा मंझा हुआ अभिनेता मानता है कि हमको अब गालियाँ सुनने की आदत डालनी पड़ेगी?
मनोज वाजपेयी: देखिए, चरित्र को मैं जज नहीं करता हूँ। भाषा चरित्र के साथ कैरी करती है और यह तय भी करती है कि उसका बैकग्राउंड क्या है। आप बताओ कहानी लिखने वाला लेखक उस चरित्र का क्या मूल्याँकन कर सकता है जिसको स्वयं वह गढ़ रहा हो? आप, मैं और यहाँ बैठे सब लोग समाज के भिन्न-भिन्न परिवेश से आते हैं, शिक्षा अलग है, संस्कार अलग हैं लेकिन हम सब अपने आप में सत्य तो है ना।
सवाल: फ़िल्म राजनीति में वीरू भइया वाला किरदार माना जाता है दुर्योधन से प्रेरित था, आपने इसको कैसे लिया?
मनोज वाजपेयी: दरअसल जितना हमने पढ़ा जाना है कौरवों के बारे में वह अधूरा है। हमने समय के अनुसार और अपनी कमफ़र्ट के हिसाब से सच्चाई, बुराई के मानक तय कर लिए हैं। हम ख़ुद की अच्छाई पसंद करते हैं और बुराई को पचा नहीं पाते। हम अपने प्रतिनिधि भी प्रशंसा करने वाले चुनते हैं। यह जानकर कि हममें गुण और अवगुण दोनों हैं, वह चरित्र जिसकी आप बात कर रहे हैं, वह बुरा होकर भी वहाँ पर दर्शकों को अच्छा लगता है। श्री राम भी अवगुणों पर विजय प्राप्त कर आदर्श बने और हम उनको भगवान मानते हैं। आज हम अपने भगवान के बारे में कुछ नहीं जानते, इसका मतलब है स्वयं के बारे में कुछ नहीं जानते इसलिए आलोचना पर तकलीफ़ महसूस करते हैं।
सवाल: आप बेतिया जैसे छोटे शहर से चल दिल्ली आए। लगातार तीन बार एनएसडी में दाखिले से वंचित रहे। उस समय कैसा लगा?
मनोज वाजपेयी: 20-21 की आयु में रिजेक्शन बर्दास्त के बाहर होता है लेकिन लगातार रिजेक्शन आदत बना देता है। वो आदत जीवन में कहीं ना कहीं काम आती है। मसलन, जब आप पहली बार रिजेक्ट होते हैं तो आपको लगता है, सामने वाला ग़लत है। आपके अंदर की अद्भुत क्षमता को वह देख नहीं पाया। दूसरी बार आपको लगता है, आपमें कमी है और इस बार आप उससे सीख जाएँगे। अंततः तीसरी बार के रिजेक्शन में आप समझ जाते हैं, यह चीज मेरे लिए नहीं बनी या मेरी क़िस्मत में नहीं थी। रिजेक्शन आपके भीतर आध्यात्मिक विकास का मौक़ा देता है और वह आपके जीवन की जद्दोजहद से विजय प्राप्त करने में मददगार साबित होता है। इसलिए अपना काम कीजिए और ऊपर वाले पर छोड़ दीजिए।
सवाल: मैंने आपका लेख पढ़ा। इरफ़ान के जाने का आपको दुख हुआ। आपके दौर के बेहद संजीदा अदाकार थे। कैसे रहे आपके उनसे संबंध?
मनोज वाजपेयी: हमारी शुरुआत लगभग साथ हुई लेकिन हम इतने वर्षों तक अलग-अलग काम करते रहे, हमारे ग्रुप्स भी अलग-अलग ही थे, बॉलीवुड बड़ा है, कलाकारों का दोस्तों का ग्रुप भी अलग था लेकिन इरफ़ान के जल्दी जाने का दुख हमेशा रहेगा।
सवाल: आप उत्तराखंड में अपने जीवन में तिग्मांशु धूलिया का कितना योगदान मानते हैं?
मनोज वाजपेयी: तिग्मांशु ने ही मेरी पहली फ़िल्म बैंडिट क्वीन के लिए मेरा नाम शेखर कपूर साहब को सुझाया था। उसके बाद गाहे बगाहे भले ही हमारी मुलाक़ातें हुईं लेकिन फ़िल्म इंडस्ट्री में पहला धक्का उन्होंने ही मारा, यह सत्य है जिसको मैं हमेशा बोलता हूँ। उससे पहले स्वाभिमान में मैं, आशुतोष राणा, रोहित रॉय साथ काम कर रहे थे।
सवाल: नई पीढ़ी के अभिनेताओं में आपको एक दर्शक के ताैर पर कौन पसंद हैं?
मनोज वाजपेयी: मैं राजकुमार राव को पसंद करता हूँ। विजय वर्मा पसंद हैं। अभिषेक बनर्जी हैं और अभी पाताल लोक में जयदीप अहलावत नेचुरल लगे। मुझे वैसे भी बहुत ही ख़ालिस अभिनेता बहुत पसंद हैं जिनकी परफॉर्मेंस में मुझे एक देसीपना दिखाई देता है, मुझे बहुत ज़्यादा अच्छे लगते हैं क्योंकि हमारा हिन्दुस्तान 70% देसी ही तो है।
सवाल: 25 वर्ष आपने हिंदी सिनेमा में काम किया है। आपकी अंग्रेज़ी पर भी ग़जब की कमांड है। क्या जल्दी ही हॉलीवुड की तरफ़ रुख करेंगे?
मनोज वाजपेयी: देखिए, बातचीत चलती रहती है लेकिन मेरे अंदर कोई जल्दबाज़ी या छटपटाहट नहीं। मैं 15 वर्ष की आयु में जान गया था कि केवल भोजपुरी और हिंदी मुझे बड़े शहर में स्थापित नहीं कर पाएगी और उस दौर में बिहार-यूपी में कुछ नेता थे जो अंग्रेज़ी के ख़िलाफ़ आंदोलन करते थे लेकिन ख़ुद के बच्चे बड़े कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाते थे। मैं उनकी चाल भाँप गया था। इसलिए दिल्ली आकर मैंने अंग्रेज़ी सीखी। मैंने उसको उर्दू की तरह भाषा के रूप में नहीं बल्कि केवल एक स्किल के रूप में आत्मसात किया। अंग्रेज़ी को मैंने कभी भी भाषा के रूप में नहीं लिया है।
सवाल: कोरोना के इस संकट को कैसे देखते हैं?
मनोज वाजपेयी: देखिए, लाखों मज़दूर जब पलायन कर रहे हों, आधे के आधे शहर खाली हो रहे हों, तो कष्ट होता है। बेहद अनिश्चितता का दौर है लेकिन हमको वर्तमान के सत्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
सवाल: दो माह हो गए आपको उत्तराखंड में यहाँ मुक्तेश्वर में कैसी दिनचर्या है?
मनोज वाजपेयी: पहाड़ों से प्रेम कर रहा हूँ। कुमाऊँ की संस्कृति सीख रहा हूँ। आसपास गाँव वालों ने नौला दिखाया, बाखली दिखाई। पत्नी और बेटी साथ हैं। सामने हिमालय है। प्रकृति के बीच इस दौरान क्लाइंबिंग की है। आगे नियम शिथिल हों तो जागेश्वर धाम में जल चढ़ाना है और द्वारहाट पांडु खोली भी जाने का मन है। पहाड़ के लोग मौलिक हैं, निर्मल हैं, अतिथि देवो भव : संस्कार में शामिल हैं।
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