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अपने से आधी साइज़ वाले के नख़रे क्यों सह रहे हैं अमित शाह?

न कोई ओपिनियन पोल, न कोई एग्ज़िट पोल, न कोई ज्योतिषीय गणना, न कोई सर्वे। बिना इन सबके भी मैं आज यह भविष्यवाणी करता हूँ कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बिहार से उतनी सीटें नहीं मिलेंगी जितनी 2014 में मिली थीं। और मेरी इस भविष्यवाणी को कोई नहीं झुठला सकता। पूछिए क्यों?

इसलिए कि एनडीए का बिहार में लोकसभा के लिए सीटों का तालमेल हो गया। कुल 40 सीटें हैं और दोनों बड़े दल 17-17 सीटों पर उम्मीदवार उतारेंगे और रामविलास पासवान की पार्टी को 6 सीटें मिलेंगी। पहले बीजेपी, जनता दल (युनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी में 18:17:5 के हिसाब से सीटों का विभाजन हुआ था लेकिन पासवान और नीतीश दोनों ख़ुश नहीं थे। पासवान इसलिए कि उनके हिसाब से उन्हें 6 सीटें मिलनी चाहिए थी और नीतीश कुमार इसलिए कि इस बँटवारे से जेडीयू बीजेपी से एक सीट ही सही, नीचे रह जाता। संशोधित बँटवारे से पासवान भी ख़ुश और नीतीश भी। और बीजेपी? बीजेपी पर तो केवल तरस खाया जा सकता है। एक पार्टी जिसे पिछले लोकसभा चुनाव में क़रीब 30% वोट मिले थे और जो 22 सीटें जीत कर राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी, वह आज इतनी मजबूर है कि 40 में से केवल 17 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी। मतलब यह कि यदि वह अपने हिस्से की सारी सीटें जीत जाए तब भी उसके सांसदों की संख्या पहले से 5 कम ही होगी।

चुनावी राजनीति का छोटा-मोटा जानकार भी समझ पा रहा होगा कि ये दोनों नेता, ख़ास कर नीतीश कुमार बीजेपी के साथ ज़्यादती कर रहे हैं क्योंकि यदि जनसमर्थन की बात की जाए तो आज की तारीख़ में बीजेपी राज्य की सबसे ताक़तवर पार्टी है। और यह कोई हवा-हवाई बात नहीं है।
  • यदि हम पिछले दो चुनावों - 2014 का लोकसभा और 2015 का विधानसभा चुनाव - का हिसाब देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि किस पार्टी को कितना जनसमर्थन हासिल हुआ था। 2014 का चुनाव इस लिहाज़ से बेहतर है कि उसमें बीजेपी और जेडी (यू) दोनों अलग-अलग लड़े थे और उन दोनों की ताक़त पहचानने का वह सबसे अच्छा ज़रिया है।
आइए, नीचे के चार्ट में देखते हैं कि 2014 में बीजेपी और जेडी(यू) का क्या-क्या वोट प्रतिशत था। पासवान और कुशवाहा की पार्टियाँ तब बीजेपी के साथ थीं।
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आपने देखा, जब बीजेपी और जेडी(यू) आमने-सामने थे तो बीजेपी को 29.4 (क़रीब 30%) और जेडीयू को 15.8% (क़रीब 16%) वोट मिले थे। मोटामोटी बीजेपी जेडीयू से डबल थी। उस हिसाब से अगले लोकसभा के लिए सीट बँटवारे में बीजेपी को जेडी(यू) से डबल सीटें मिलनी चाहिए थीं। यदि कोई पक्का गुणा-भाग करे तो वोट प्रतिशत (29.4:15.8) के हिसाब से बीजेपी को 23 और जेडीयू को 12 सीटें मिलनी चाहिए थीं। उधर पासवान की पार्टी को अपने 2014 के वोट प्रतिशत (6.4) के हिसाब से 5 सीटें मिलनी चाहिए थीं लेकिन उन्होंने भी मोलभाव करके एक सीट बढ़वा ली।

दोनों नेताओं के इस बाँह-मरोड़ तरीक़ों से अमित शाह दाँत पीस कर रह जाते होंगे लेकिन इस बार हालात इतने बदले हुए हैं कि वे न चाहते हुए भी इन दोनों की दादागीरी सह रहे हैं। आइए, हम देखते हैं कि आख़िर बीजेपी अपने से आधी और उस आधे से भी आधी ताक़त वाली दोनों पार्टियों के नख़रे सहने को क्यों तैयार है।

मूल प्रश्न यह है कि बिहार में जब बीजेपी 2014 में बिना जेडीयू के केवल अपने बल पर और कुछ छोटे दलों के सहयोग से 40 में से 22 सीटें जीत सकती थी तो आज उसे नीतीश की बैसाखियों की आवश्यकता क्यों है?

कारण समझने के लिए हमें क्रमवार आगे बढ़ना होगा।

1. पाँच साल में गंगा में बहुत सारा पानी बह गया है और 2014 की मोदी लहर का आज वह जलवा नहीं है। इसलिए यदि आज बीजेपी अकेले लड़े तो ज़रूरी नहीं कि उसे 29.4% वोट मिले। अब तो कुशवाहा की पार्टी भी उसके साथ नहीं है और वह विरोधी कैंप में जा मिली है। और यह तो हम जानते ही हैं कि ख़ुद के ख़ेमे के 3% वोट यदि विरोधी ख़ेमे में चले जाएँ तो अंतर 3 का नहीं, 6% का हो जाता है। इसलिए अकेले लड़ना ख़तरे से ख़ाली नहीं है।
2. नीतीश 2014 में अकेले थे, आज बीजेपी के साथ हैं। यदि बीजेपी, जेडी(यू) और एलएनजेपी का तब का वोट शेयर मिला दिया जाए (29.4+15.8+6.4) तो यह 52% के आसपास बैठता है और किसी भी सीधी लड़ाई में 52 प्रतिशत बहुत ज़बरदस्त कॉम्बिनेशन माना जाता है। ऐसे में यह गठजोड़ चुनाव स्वीप कर सकता है
3. लेकिन जैसा कि ऊपर कहा, बीजेपी को वोट शेयर अगले चुनावों में घट सकता है क्योंकि मोदी का जादू पहले से कम हुआ है। दूसरे जेडीयू का सपोर्ट भी पहले जितना नहीं नज़र आता, ख़ास कर मुसलमानों में वह ख़त्म-सा हो गया है। मार्च 18 में अररिया लोकसभा सीट पर आरजेडी की जीत यह बताती है कि बीजेपी और जेडीयू के साथ आने के बावजूद वह इतना घातक गठजोड़ नहीं हुआ कि विपक्ष का सफ़ाया कर दे। यह सीट पहले भी आरजेडी के पास थी लेकिन तब बीजेपी और जेडीयू अलग-अलग लड़े थे। तब के दोनों दलों के वोट जोड़ देते तो वे आरजेडी से क़रीब 70 हज़ार ज़्यादा हो जाते लेकिन नतीजा आया तो आरजेडी क़रीब 60 हज़ार वोट से जीत गई। यानी चार सालों में 1.30 लाख वोट इधर से उधर हो गए।
4. निष्कर्ष यह कि बीजेपी जेडीयू के साथ मिल कर लड़े तब भी वैसे नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती जैसी कि 52% वोट शेयर वाले गठजोड़ के लिए सहज लगती है। लेकिन बीजेपी को यह भी पता है कि जेडीयू के साथ मिल कर उसे जितनी सीटें मिलेंगी, उससे अलग रहने पर उसे शायद उतनी भी न मिलें। और एक डर यह भी है कि कहीं जेडीयू आरजेडी से तालमेल न कर ले (जिसकी संभावना आज की तारीख़ में बहुत कम है लेकिन राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं)। तब तो पार्टी का सर्वनाश हो जाएगा - वैसा ही सर्वनाश जैसा 2015 के विधानसभा चुनावों में हुआ था। यदि नीतीश साथ रहें परंतु पासवान ही अपने 5-6% वोटों के साथ आरजेडी कैंप में मिल जाएँ, तब भी अंतर 10-12% का हो सकता है।
5. यही कारण है कि बीजेपी को पासवान के सामने भी झुकना पड़ा है और नीतीश के भी आगे। कहते हैं कि मजबूरी में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। अमित शाह वही कर रहे हैं - गिरगिटी चाणक्य के सामने सर नवा रहे हैं और अपने से आधी ताक़त वाले को भी बराबरी का सम्मान दे रहे हैं।
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टाइम्स अॉव इंडिया से साभार

लेकिन यह गुजराती वणिक हिसाब-किताब में कच्चा नहीं है। एक बार नतीजा आ गया और दिल्ली में ठीकठाक बहुमत से एनडीए की सरकार बन गई तो फिर दोनों को उनकी औक़ात बता दी जाएगी। मेरा अनुमान है कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों के बाद नीतीश कुमार सातवीं बार बिहार के सीएम नहीं बनेंगे। बीजेपी महाराष्ट्र और असम सहित कई राज्यों में समय के साथ-साथ अपने जूनियर सहयोगियों को ख़त्म या कमज़ोर कर चुकी है। बिहार भी अपवाद नहीं होगा।

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क़मर वहीद नक़वी

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