बसवराज बोम्मई
भाजपा - शिगगांव
अभी रुझान नहीं
अपनी ऐतिहासिक जीत के बाद बीजेपी के मुख्यालय से ‘राष्ट्र को धन्यवाद’ देते हुए नरेन्द्र मोदी अगर धर्मनिरपेक्षता के डिस्कोर्स को ध्वस्त करने को अपनी सबसे प्रमुख उपलब्धि बता रहे थे तो यह बात राजनीति करने वाले और राजनीति पर सोच-समझ रखने वाले सभी लोगों के लिए ध्यान देने वाली थी। यह सही है कि प्रबन्धन और चौकसी में नरेन्द्र मोदी और उनके पटु शिष्य अमित शाह का कोई जबाब नहीं है, पर लड़ाई सिर्फ़ इससे नहीं लड़ी गई। संघ परिवार, बीजेपी और नरेन्द्र मोदी ने पूरा चुनाव बहुत ही साफ़ सोची-समझी रणनीति और एक लम्बी दृष्टि के साथ लड़ी। 'मोदी-मोदी' से शुरू हुआ चुनाव अगर 'मोदी-मोदी' एक शोर के साथ ख़त्म हो रहा है तो यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस बीच कोई राजनीति बदली ही नहीं या ख़ुद नरेन्द्र मोदी कुछ नहीं बदले।
असलियत यह है कि अगर नरेन्द्र मोदी चुनाव के दौरान ही रोज़ ड्रेस बदलने के साथ मुद्दे और रणनीति बदलते नज़र आ रहे थे तो यह सिर्फ़ चुनाव भर का दैनिक नेग नहीं था।
मोदी चौबीस घंटे और 365 दिन राजनीति करने वाले और बड़े आराम से कोर्स करेक्शन करने वाले हैं। उनकी तुलना में फ़ुरसत की राजनीति और कभी भी रणनीति और सोच न बदलने वाले नेताओं को मिला चुनावी फल लोगों की अपनी समझ से ज़्यादा उन पर तरह-तरह से चढ़े मोदी रंग का भी नतीजा है। यह जीत न सिर्फ़ बड़ी है बल्कि निर्णायक भी है।
लेकिन मामला सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी की जीत और हार का नहीं है। चुनाव में यह भी साबित हुआ कि मोदी जी ख़ुद को मुद्दा बना रहे थे तो रणनीति के तहत ही। और वह सही साबित हुए। पर इससे ज़्यादा बड़ी बात हुई कि चुनाव को सिर्फ़ जातियों और सामाजिक समूहों के अंकगणित से जानने-समझने और सिर्फ़ उसे ही आधार बनाकर टिकट देने और चुनाव लड़ने वाले दिन लद गए हैं। ऐसा नहीं है कि ये चीजें पहले नहीं थीं और सिर्फ़ बिहार और उत्तर प्रदेश में ही यह होता था। पर पिछले तीस सालों से अर्थात मंडल आने के बाद से बाद से इस गणित का जोर कुछ ज़्यादा ही हो गया था। इस चुनाव ने न सिर्फ़ इस अंकगणित वाली राजनीति को खारिज़ किया है, बल्कि इसका प्रभाव निर्णायक ढंग से ख़त्म कर दिया है। अगर आगे के चुनावों में इसका असर घटता दिखे तो 2019 के आम चुनाव को एक निर्णायक मोड़ माना जाएगा।
गिनने चलेंगे तो लोग कई बार जाति-धर्म से ऊपर उठकर वोट देते दिखेंगे। पर इस बार तीस-तीस साल से एक जाति या दो-तीन सामाजिक समूहों के नाम पर राज करने या सत्ता सुख भोगने वाले लोगों और परिवारों को पक्का जबाब मिल गया है। उम्मीद है कि वे और उनके अन्ध भक्त समर्थक भी कुछ सबक़ लेंगे।
दूसरी चीज यह है कि क्षेत्रीय दलों की ताक़त कम हुई है। काफ़ी समय बाद, लगभग इन्हीं तीस सालों में, यह स्थिति आ गई कि हर संसद में क्षेत्रीय दलों का कुल योग राष्ट्रीय दलों से ऊपर हो जाता था। पिछले चुनाव में पहली बार राष्ट्रीय दलों की संख्या ऊपर आई। इस बार भी क्षेत्रीय दलों की ताक़त निर्णायक ढंग से कम हो गई है। क्षेत्रीय दलों की हालत यह है कि उन्हें चाहिए तो सारी सत्ता और ज़िम्मेवारी बहुत सीमित। मायावती जी के सामने किसी को चप्पल-जूते पहनकर आने की इजाज़त नहीं है लेकिन तीस साल से जारी भूमंडलीकरण पर, विदेश नीति पर, खेल नीति पर क्या राय है, किसी को पता हो तो बताए। यही बात अधिकांश क्षेत्रीय सूरमाओं के लिए लागू होती है। दलित नेता सिर्फ़ दलित सवाल पर सक्रिय होगा, आदिवादी सिर्फ़ आदिवासियों के मसले पर और पिछड़ा नेता चौबीसों घंटे सिर्फ़ नए-नए आरक्षण के सवाल उठाएगा तो पूरी राजनीति कौन करेगा। इसलिये यह चुनाव अगर राजनीति के इस बड़े बदलाव की शुरुआत करता है और राष्ट्रीय दलों की राजनीति वापस लाता है तो इसका स्वागत करना चाहिए।
इस चुनाव ने साम्प्रदायिकता और कई और अवधारणाओं का घालमेल भी किया है। मोदी जी ने हिन्दू हृदय सम्राट बने रहने के साथ राष्ट्रवाद और मज़बूत नेतृत्व का विचार भी मिलाया।
इसका यह मतलब हुआ कि उन्होंने और बीजेपी ने अपना मुसलमान विरोधी नज़रिया छोड़े बगैर अपने को सबसे मज़बूत और राष्ट्रवादी नेता साबित किया और लोगों ने उस पर भरोसा भी किया। अब इस डिस्कोर्स का मतलब यह भी निकलता है कि कोई ग़ैर-हिन्दू मज़बूत नेता हो ही नहीं सकता, कोई ग़ैर-हिन्दू राष्ट्रवादी हो ही नहीं सकता और इन सब मसलों को छेड़ने वाला भी एंटी-नेशनल है, उसे पाकिस्तान चले जाना चाहिए। इसक मतलब यह भी हुआ कि सत्ता में, संसद में और उसी हिसाब से समाज के महत्वपूर्ण स्थानों पर मुसलमानों या ग़ैर-हिन्दुओं की जगह नहीं है, या नेता की दया पर निर्भर है। किसी मुसलमान को मंत्री बनाना उस पर एहसान करना है, उसका हक़ नहीं है। वह नेता बनने की आकांक्षा तो नहीं ही करे। यह बहुत ख़तरनाक डिस्कोर्स है। साध्वी प्रज्ञा को लाना और उनका गोडसे को राष्ट्रवादी कहना सिर्फ़ निजी शर्म की बात नहीं है।
एक पक्ष यह भी है कि इस चुनाव में नरेन्द्र मोदी के सामने कोई और प्रतिद्वन्द्वी नहीं था। असल में 2019 के नरेन्द्र मोदी के लिए 2014 का नरेन्द्र मोदी ही सबसे बड़ी चुनौती था। और कालाधन लाकर हरेक को 15-15 लाख देने, दो करोड़ लोगों को सालाना रोज़गार देने से लेकर इतने सारे वायदे थे कि उसके आगे किसी भी सरकार का प्रदर्शन फ़ीका ही होना था। नरेन्द्र मोदी ने अपनी चौबीसों घंटे की मेहनत और उससे भी ज़्यादा चालाक सोच तथा पुलवामा में सैनिकों की शहादत के तत्काल बाद बालाकोट हमला करके इस नाकामी को ज़बरदस्त सफलता में बदल दिया। इसके इर्द-गिर्द ही चुनाव का मुख्य विमर्श गढ़ा गया और इसने 2014 वाले मोदी को ढक दिया। फिर इस चुनाव ने संसाधनों, प्रबन्धन कौशल के ज़ोर और ज़बरदस्त रणनीतिकारों के लिए भी याद किया जाएगा। दूसरी ओर यह भी दिखा कि साफ़ बनती विपक्षी एकता को भी नहीं सम्भाला जा सकता। मोदी ने कर्नाटक और तीन हिन्दी भाषी प्रांतों की पराजय ने मोदी को और चौकस किया तो विपक्ष के नेताओं का माथा ख़राब हुआ।
और अब निर्विवाद नेता बने मोदी के ऊपर ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेवारी आई है।
About Us । Mission Statement । Board of Directors । Editorial Board | Satya Hindi Editorial Standards
Grievance Redressal । Terms of use । Privacy Policy
अपनी राय बतायें