मायावती जी, देश की प्रधानमंत्री?
लाख टके का सवाल है?
शनिवार 12 जनवरी को लखनऊ की बहुप्रतीक्षित प्रेस कान्फ्रेंस में पत्रकार सुभाष मिश्रा ने पूछा, 'अखिलेश जी आप प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती जी के दावे को सपोर्ट करेंगे?'
जवाब में अखिलेश बोले, 'आपको पता है कि मेरा समर्थन किसको होगा? मैं चाहता हूँ कि देश का अगला प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से ही हो!'
दरअसल, सपा-बसपा गठबंधन मायावती के लिए सिर्फ़ दोनों पार्टियों के बीच 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सीटों का बँटवारा भर नहीं है। बल्कि गठबंधन की 'डील' के पीछे मायावती के इरादे कुछ और ही हैं!
असल कहानी यह है कि मायावती लखनऊ को अखिलेश को सौंप रही हैं और चाहती हैं कि जवाब में अखिलेश अपना सारा दमख़म मायावती जी को प्रधानमंत्री बनाने में लगाएँ। पर अखिलेश सावधानी से अपने शब्द और वाक्य चयन कर रहे हैं। प्रेस कॉन्फ्रेन्स में मायावती ने कांग्रेस की बड़ी आलोचना की, लेकिन अखिलेश ने कांग्रेस पर चुप्पी ही रखी। मायावती ने तो यहाँ तक एलान किया कि वह अब कांग्रेस से किसी राज्य में कोई चुनावी समझौता नहीं करेंगी। लेकिन कांग्रेस पर मायावती की टिप्पणियों को लेकर पूछे गए एक सवाल का सीधा जवाब देने से अखिलेश कन्नी काट गए।
- तो क्या मायावती प्रधानमंत्री बन सकती हैं? उन्हें कौन-कौन समर्थन दे सकता है? कौन उनकी राह का रोड़ा बनेगा?
मायावती की अपनी खुद की पार्टी बीएसपी उत्तर प्रदेश में 38 सीटें लड़ने जा रही है। इतनी ही सीटें अखिलेश लड़ेंगे। अमेठी और रायबरेली की दो सीटें बिना गठबंधन के कांग्रेस के लिए छोड़ी जा रही हैं और बाक़ी दो सीटे सहयोगी दलों को दी जाएँगी। पहले ख़बरें थीं कि अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल भी इस गठबंधन में शामिल होगा। लेकिन इस प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में किसी ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि उसे साथ लिया जाएगा।
बहरहाल, कुल मिला कर अब गठबंधन ने एलान किया है कि वह उत्तर प्रदेश की 80 में से 78 सीटों पर लड़ेगा। यदि यह गठबंधन 60 सीट जीत भी लेता है, तो बाक़ी?
- फिर भी क्या सब कुछ सचमुच इतना ही आसान है? जो इतना सरल लगता है, अंदरखाने उतना ही कठिन है। जो उनका ट्रम्प कार्ड है, वही जोकर भी है।
मायावती को क्यों प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब नहीं देखना चाहिए? इस 'ब्लंट' सवाल पर जवाब में शुरू में जो भी 'पॉलिश्ड' कारण आते हैं, आख़िर में उनकी क़लई उतर जाती है और वे उनकी जाति पर ख़त्म हो जाते हैं।
मायावती देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री बनीं। थोड़ी ना-नुकुर के बाद सब स्वीकार लेते हैं कि बीते पचास वर्षों में उत्तर प्रदेश में मायावती के ज़माने में क़ानून-व्यवस्था सबसे बेहतरीन रही। सबसे कम सांप्रदायिक विवाद हुए। सबसे कम दलित उत्पीड़न हुआ। स्त्रियों पर कम अत्याचार हुए। क़ानून का राज तुलनात्मक रूप से बेहतर रहा।
मुख्यमंत्री और भ्रष्टाचार
हाँ, मायावती पर भ्रष्टाचार के आरोप ज़रूर लगते रहे हैं। लेकिन लगभग सभी दूसरे मुख्यमंत्रियों पर ऐसे आरोप अकसर ही लगे हैं, लगते ही रहते हैं। योगी आदित्यनाथ को 'ईमानदार' कहने वाले ही आरोप लगाते हैं कि उत्तर प्रदेश में कई मंत्री भ्रष्ट हैं। रिटायर्ड आई. ए. एस. अफ़सर एस. पी. सिंह कहते हैं, 'हर काम के तिगुने-चौगुने रेट चल रहे हैं!' इस बलिवेदी पर तो हर कोई शहीद है, सहारा-बिड़ला डायरियों के मामले में तो नरेन्द्र मोदी का नाम भी उछल चुका है।
कॉंग्रेस और बीजेपी इसलिए 'उज्ज्वल' हैं क्योंकि सेठों के चंदे की तरह देश के तंत्र पर इनकी अच्छी-ख़ासी पकड़ रहती है, जो वक़्त-बेवक्त इनको 'ड्राइक्लीन' कर देती है। मीडिया भी इन पर उदार रहता है। इनके मामले पचा जाता है, जबकि लालू, मायावती आदि के मामले बढ़ा-चढ़ा कर चटखारे लेता है।
कैसे पिघलीं मायावती?
मायावती राजनीतिक रूप से लचीली तब साबित हुईं जब मुलायमसिंह यादव के साथ बनी इनकी पहली साझा सरकार के ज़माने में गेस्ट हाउस कांड हुआ। तब इनके विधायकों को जबरन अपहृत करने के क्रम में बड़ी धींगामुश्ती हुई थी। इसके बाद बीजेपी की मदद से वह पहली बार 1995 में मुख्यमंत्री बनीं और यूपी में यादवों और जाटवों में दो दशक तक चले बैर की पृष्ठभूमि बनी। इसका निबटारा तब हुआ जब मोदी की सरकार दिल्ली में बनी और योगी की उत्तर प्रदेश में। गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के उपचुनावों में ज़मीनी सच्चाई के दबाव ने दोनों के बीच बर्फ़ पिघलाई और अखिलेश ने मायावती के घर जाकर उनके सामने जो प्रस्ताव रखा, उससे दिल्ली हिल गई!
नए वक़्त में अखिलेश अब मायावती के सबसे प्रबल पैरोकार हैं कि वह देश की पहली दलित प्रधानमंत्री बनें। मायावती को इस प्रस्ताव में मनचाहा सकून मिलता है कि अपने पिता की जगह भतीजा बुआ के लिए ऐतिहासिक सपना देख-दिखा रहा है।
अचानक हुए इस मेल से यूपी के ग्रामीण महासागर में जाटव-यादव एकता की लहरों ने सुनामी पैदा कर दी है। यूपी के मुसलमान बीजेपी राज में दोयम दर्जे में ठेले जा रहे थे, उन्हें भी साँस मिली। तमाम दूसरी छोटी सामाजिक इकाइयों की बेचैनी भी इसी सागर की ओर चल पड़ी और मोदी राज के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा यूपी की अस्सी सीटों के दलदल में आकर फँस गया।
गोरखपुर मंडल के बसपा कोआर्डिनेटर ब्रजेश गौतम हमें लखनऊ में एक नाई की दुकान में मिल गए। वहाँ सारे कोआर्डिनेटरों की मीटिंग बहनजी ने बुलाई थी। वह कहते हैं, 'सिर्फ़ दस-बारह शहरी सीटों के सिवा कहीं कोई मुकाबला ही नहीं बचा है, दलित-पिछड़ा-मुसलमान और प्रत्याशी की जात के बहुमत को एक पाले में रख दीजिए,' उन्होंने फ़ार्मूला बताया!
सिप्पाल, राजभर, अपना दल, महान दल, पासी समाज आदि तो उधर हैं, मैंने छेड़ा?
'सर आप दिल्ली से आए हैं। आपको ज़मीन की गर्मी का पता नहीं, ये सब बीजेपी से रुपया ऐंठेंगे और दारू-मुर्ग़ा काटेंगे, फिर “गोरखपुर” होगा! नीचे पब्लिक वेट कर रही है कि कब इलेक्शन का एलान हो बस, देखते रहिए,' गौतम पूरे जोश में थे। ।
डॉ. ओमप्रकाश त्रिपाठी उत्तर प्रदेश के कई दशकों के बसपाई हैं। एम. एल. सी. रह, एम. एल. ए. लड़े, बसपा समर्थित ब्राह्मण संगठनों के प्रभारी आदि रहे और इस सीज़न में लोकसभा के टिकट के अभ्यर्थी हैं। वह कहते हैं, 'देखिए, बहनजी का इस बार पी. एम .का बेस्ट चांस है। राहुल पर आम सहमति नहीं बनेगी और देश को 1977 की ग़लती भी सुधारनी है जब बाबू जगजीवनराम को पी. एम .बनते बनते-बनते पीछे हटा दिया गया था!'
मायावती की मुश्किल क्या?
मायावती की मुश्किल यह है कि हालाँकि उनकी पार्टी क़रीब दर्ज़न भर बड़े राज्यों में हल्का-फुल्का जनाधार रखती है, पर वह लोकसभा सीटें सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही जीत सकती है या एकाध सीट पंजाब में। हरियाणा में वह चौटाला के साथ है, पर चौटाला की पार्टी सचमुच में दो टुकड़े हो चुकी है। बिहार और झारखंड में उसके सहयोगी लोग कांग्रेस को तवज्जो दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश में ज़्यादा से ज़्यादा के चक्कर में उसने कॉंग्रेस से बात बिगाड़ रखी है!
- ममता बनर्जी के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव 'पिचिंग' कर रहे हैं। नवीन पटनायक की ज़बान अभी बंद है, पता नहीं किसके पक्ष में खुले? चंद्रबाबू नायडू कांग्रेस से गठजोड़ कर चुके हैं वरना वह ऐसे मामलों में पिछली सदी के आख़िरी दशक में माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के दाहिनी तरफ़ मिलते थे।
देश में दलितों के तमाम युवा नेता विकसित हो रहे हैं, पर मायावती के सामने कम से कम 2019 के आम चुनाव में उनमें से किसी से कोई चुनौती नहीं हैं। सभी दल प्रकट में और रिकार्ड पर कभी दलितों की अनदेखी करने की तोहमत नहीं ले सकते। सुप्रीम कोर्ट के दलित उत्पीड़न क़ानून के मामले में दिए गए फ़ैसले को जिस तत्परता से सवर्णों की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी ने संसद में पलटा, वह उसका ज्वलंत उदाहरण है। पर क्या यह सदाशयता नम्बर एक की कुर्सी के लिए भी क़ायम रह पाएगी, देखना यही है?
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