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इन मुद्दों पर लड़ा जाएगा 2019 का महासमर

रविवार को चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव 2019 की तारीख़ की घोषणा कर दी। चुनाव सात चरणों में होंगे जो 13 अप्रैल से 19 मई तक देश के अलग-अगल हिस्सों में होंगे। सभी पार्टियों ने कमर तो बहुत पहले से ही कस ली थी, लेकिन विपक्ष मुद्दों की तलाश में भटक रहा था और वह पिछले कुछ दिनों से प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्रवाद में फँसा हुआ नज़र आ रहा था।
दरअसल बीजेपी की पूरी कोशिश राष्ट्रवाद को चुनावी मुद्दा बनाने की है तो विपक्ष सरकार के पाँच साल के कामकाज पर बीजेपी को घेरने की कोशिश करेगा। आइए एक बार नज़र डाल लेते हैं आगामी चुनाव में होने वाले प्रमुख मुद्दों पर-
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राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद

राष्ट्र सुरक्षा और आतंकवाद 1990 के बाद से हर चुनाव में बड़े मुद्दे बनते रहे हैं। वहीं अगर इस बार की बात करें तो ये मुद्दे शुरुआती रैलियों और भाषणों से नदारद थे, लेकिन 14 फरवरी को पुलवामा में सीआरपीएफ़ पर हुए फ़िदायीन हमले ने इन्हें केंद्र में ला खड़ा किया है।
पुलवामा हमले में सीआरपीएफ़ के 40 जवान शहीद हो गए थे। जिसके बाद विपक्ष एक-दो दिन चुप रहने के बाद हमले को  सरकार की कमज़ोरी बताकर उसे घेरने लगा। फिर ऐसा हुआ जिसने पूरा पासा बीजेपी की ओर पलट दिया। भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान में घुसकर बालाकोट में आतंकवादी संगठन जैश-मुहम्मद के ठिकानों पर बमबारी कर दी।
बालाकोट हमले के बाद से ही बीजेपी ने राष्ट्रवाद को एक चुनावी मुद्दा बना लिया है। बीजेपी यह साबित करने में लगी हुई है कि मोदी ही वह नेता हैं जो पाकिस्तान जैसे देश को सबक सिखा सकते हैं।

मँहगाई

मँहगाई एक सर्वव्यापी मुद्दा है, जो चुनावी मुद्दों के केंद्रबिंदु पर अक्सर रहता है। यह मुद्दा भी इस बार अब तक सुनने में नहीं आया है। हालांकि कीमतों में तेज़ी पर इस सरकार में कुछ अंकुश ज़रूर लगा है, लेकिन लोगों का कहना है कि यह कृषि उत्पादनों से कटौती करके किया है। बीजेपी को ग्रामीण क्षेत्रों में इसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

बेरोज़गारी

बेरोज़गारी देश में एक बड़ा मुद्दा है और बीजेपी ने 2014 में इस मुद्दे पर कांग्रेस को जमकर घेरा था। बीजेपी ने इस मुद्दे के आधार पर युवाओं के बीच अपनी पैठ मजबूत बनाई थी। हालांकि यह इस बार भी एक बड़ा मुद्दा रहेगा और विपक्ष मोदी सरकार को 2014 में किए गए उसके वादे बार-बार याद दिलाएगा।
मोदी ने 2014 में  हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का वादा किया था, जिस पर वह औंधे मुँह गिरी है और विपक्ष सरकार की इस नाकामी को जनता के बीच लेकर जाएगा। यही नहीं, वह नोटबंदी और जीएसटी जैसे मुद्दों को भी उठाएगा, जिसने देश की अर्थव्यवस्था पर ब्रेक लगा दिया था।

ग्रामीण अशांति

2014 में मोदी की महाविजय में किसान और ग्रामीण वोटरों का बहुत बड़ा हाथ था। किसानों की आमदनी दोगुनी करने के मोदी के वादे से किसानों में एक उम्मीद जगी थी। हालांकि उस पर भी सरकार खरी नहीं उतरी है। नोटबंदी जैसे क़दम ने किसानों को खेती के लिए बीज तक को तरसा दिया था। इससे पहले दिसंबर में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने किसानों के मुद्दे को काफ़ी प्रमुखता दी थी और उसमें उनको कामयाबी भी मिली थी। अब देखना यह है कि इस लोकसभा चुनाव में इस मुद्दे को कैसे भुनाया जाता है।
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ध्रुवीकरण

जो इस समय देश में ध्रुवीकरण का  माहौल है वह इससे पहले कभी नहीं देखा गया। यह मुद्दा बीजेपी जैसी हिंदुत्व समर्थक पार्टी को ही फ़ायदा देता है। 2014 में भी मोदी की जीत में इस मुद्दे का बहुत बड़ा योगदान था। वर्तमान माहौल को देखते हुए हार से परेशान कांग्रेस तक ने अपनी स़़ॉफ्ट हिंदुत्व  की छवि को बनाना शुरू कर दिया है।

जाति

भारत जैसे देश  में ‘जाति’ चुनाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस चुनाव में भी इस मुद्दे के ऊपर चुनावी रणनीतियाँ तैयार की जाएँगीं।
विपक्ष जाति के मुद्दे पर सबसे ज़्यादा आश्रित लगता है। उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी का गठबंधन यादव, जाटव और मुसलिम गठजोड़ के दम पर बीजेपी को हराने की कोशिश में है।
पिछले साल दिसंबर में मध्यप्रदेश, राजस्थान के विधानसभा चुनाव के दौरान जाति का मुद्दा बीजेपी के लिए उल्टा पड़ गया था। एससी कोटा से नाराज़ अगड़ी जाति के लोगों ने बीजेपी को हार का स्वाद चखा दिया था। इसके बाद बीजेपी ने सामान्य जाति को 10 फीसदी का आरक्षण देकर उनको खुश करने की भी कोशिश की थी।

भ्रष्टाचार

2014 में कांग्रेस की नैया डुबाने में भ्रष्टाचार के मुद्दा का बड़ा हाथ था। कांग्रेस अपने समय में हुए घोटालों के कारण सत्ता से उखाड़ फेंकी गई थी। वहीं इस चुनाव में भी राहुल गांधी रफ़ाल के मुद्दे को भुनाने में लगे हुए हैं, लेकिन वह इससे कितना फ़ायदा उठा पाएँगे, यह तो चुनाव बाद ही पता चलेगा। मोदी अपनी सरकार में कोई भ्रष्टाचार नहीं होने का दम हर भाषण में भरते हैं। यही नहीं लोगों ने नोटबंदी जैसे दंश तक को झेल लिया केवल इस भरोसे पर क्योंकि मोदी ने नोटबंदी को भ्रष्टाचार ख़त्म करने के लिए उठाया गया क़दम बताया था।

सोशल मीडिया

पीछले लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया एक नया और सबसे बड़ा हथियार बनकर उभरा। मोदी की जीत में सोशल मीडिया कैंपेन का बहुत बड़ा हाथ था। कहा जाता है कि उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के चुनाव प्रचार की तर्ज़ पर किया था। पिछला चुनाव ट्विटर पर इस तरह लड़ा गया कि लोगों ने इसको #TwitterElection  तक कह दिया था। अब इस बार के चुनाव में भी सोशल मीडिया एक बड़ी भूमिका निभाएगा।

कल्याणकारी योजनाएँ

मोदी ने अपने कार्यकाल में कई कल्याणकारी योजनाओं को शुरू किया और उन का ढिंढोरा जगह-जगह ख़ूब बजाया। जिसमें स्वच्छ भारत, मुद्रा योजना, आयुष्मान भारत जैसी याजनाएँ शामिल हैं।
राहुल गांधी ने भी पिछले साल के अख़िरी महीने में हुए विधानसभा चुनावों में किसान ऋण माफ़ी जैसी योजना का सहारा लिया था। अब इस लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने पहले से ही ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ लाने की घोषणा कर दी है।

मोदी

इस लोकसभा में बीजेपी फिर एक बार मोदी फै़क्टर पर ही निर्भर करेगी। हालांकि विपक्ष ब्रांड बन चुके ‘नमो’ की छवि  को तोड़ने की पूरी कोशिश कर रहा है। बीजेपी का भरोसा है कि अमित शाह एक बार फिर से मोदी के पक्ष में वोट करवाने में सक्षम होंगे। वहीं यह भी माना जा रहा है कि पिछले साल के आखिर में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी से जो वोट छिटक चुके हैं वह भी लोकसभा में मोदी के पक्ष में फिर आ सकते हैं।

गोरक्षा

उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव के दौरान बीजेपी ने ग़ैरकानूनी बूचड़खानों को बंद करने की घोषणा की थी। सरकार आने के बाद इस पर डंडा भी चलाया गया, जिसके बाद वही खुले घूम रहे जानवर किसानों के लिए सिरदर्द बन गए हैं।
आजकल जानवर किसानों की लहलहाती फसल को बर्बाद कर देते हैं, जिससे किसानों की हालत और खस्ता हो रही है। अब देखना यह होगा कि योगी से नाराज़ किसान मोदी पर गुस्सा निकालेंगे या नहीं।

एक पार्टी या गठबंधन

आगामी चुनाव में एक पार्टी और गठबंधन का मुद्दा भी रैलियों और भाषणों में सुनने को मिलेगा। एक तरफ़  बीेजेपी मोदी को मज़बूत नेता के तौर पर प्रस्तुत करेगी तो वहीं गठबंधन अपने आप को लोकतांत्रिक सरकार देने का वादा करेगा। इससे पहले भी हम प्रधानमंत्री के भाषणों में मजबूत सरकार या मजबूर सरकार का नारा सुन चुके हैं।

युवा मतदाता

इस बार के चुनाव में युवा मतदाता एक बड़ा फ़ैक्टर बनकर उभरेगा। इस बार 8.43 करोड़ नए मतदाता वोट डालेंगे। नेता नए मतदाताओं को लुभाने के लिए अलग-अलग तरीके आजमाएँगे। वे इन मतदाताओं को लुभाने के लिए सोशल मीडिया से लेकर भाषणों तक में लोकलुभावन वादे भी करते नज़र आएँगे। कुल मिलाकर नया वोटर एक बड़ा वर्ग है जो चुनाव की दिशा भी तय कर सकता है।

महिलाएँ

हर बार के चुनाव में महिला वर्ग को लुभाने के लिए राजनीतिक पार्टियाँ नए-नए हथकंडे अपनाती हैं। इस बार के चुनाव में भी महिलाएँ एक बड़ा फैक्टर होंगी। बीजेपी के मुताबिक़, उनकी सरकार ने महिलाओं के लिए बहुत कल्याणकारी योजनाएँ शुरू की हैं, जिनमें उज्ज्वला योजना, फ़्री गैस कनेक्शन, बलात्कारियों के लिए कड़ी सजा जैसा कानून शामिल है। अभी विपक्ष भी महिलाओं को लेकर घोषणाएँ करेगा और सरकार की महिला सुरक्षा पर नाकामी को उजागर करेगा।

दलित-आदिवासी

चुनाव के वक़्त सारे राजनीतिक दल इस वर्ग को लुभाने की कोशिश करते हैं, लेकिन काम निकल जाने पर भूल जाते हैं इसीलिए ये तबका आज़ादी के इतने दिनों बाद भी तिरस्कार की ज़िंदगी जीने को मजबूर है।
पिछले पाँच साल में दलितों पर जगह-जगह अत्याचार-शोषण के मामले सामने आए हैं। इनमें रोहित वेमुला की आत्महत्या  और ऊना में गोरक्षकों द्वारा दलितों को पीटे जाने जैसी वारदात भी शामिल है। वहीं छत्तीसगढ़ में बीजेपी की हार भी यह साबित करती है कि आदिवासी वर्ग बीजेपी से गुस्सा है। अब देखना यह होगा कि इस चुनाव में राजनीतिक दल इनको कैसे लुभाते हैं।
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क़मर वहीद नक़वी

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