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क्या अब प्रासंगिक नहीं रही तीसरे मोर्चे की कल्पना?

क्या देश की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत की कमी खल रही है? 1989 के बाद से जब देश में गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हुआ था तो हर चुनाव से पहले सबकी निगाहें तीसरे मोर्चे और उसका ख़ाका तैयार करने वाले हरकिशन सिंह सुरजीत पर रहती थी। सालों तक सीपीएम के महासचिव रहे सुरजीत ने उस दौर में रामो-वामो (राष्ट्रीय मोर्चा और वाम मोर्चा) जैसा गठबंधन बनाकर दो धुर विरोधी राजनीतिक विचारधारा वाली पार्टियों को एक छतरी में ला खड़ा किया था। लेकिन आज अनुकूल मौसम दिखाई पड़ रहा है, लेकिन तीसरे मोर्चे की नींव नहीं पड़ती दिख रही। इसमें सवाल यह उठ रहे हैं कि क्या तीसरा मोर्चा या फ़ेडरल फ़्रंट अब इस दौर की राजनीति में प्रासंगिक नहीं रहे? क्योंकि आज देश में वैसे ही दो बड़े गठबंधन हैं एक सत्ताधारी बीजेपी का एनडीए और दूसरा विपक्ष का यूपीए। अब इन दोनों गठबंधनों के बाद तीसरे गठबंधन का प्रयोग सफल होगा या नहीं और होगा तो कैसे? इस पर चर्चाएँ शुरू हो गयी हैं।

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17वीं लोकसभा का चुनाव अंतिम पड़ाव की तरफ़ है। 19 मई को मतदान समाप्त होते ही मुख्यधारा के तमाम मीडिया चैनल और समाचार पत्र अपने आकलनों का पिटारा खोल के बैठ जाएँगे, लेकिन जहाँ मतदान हो गए हैं वहाँ के नेपथ्य में जो स्वर सुनाई दे रहे हैं वह इशारा कर रहे हैं सरकार की विदाई का। सरकार की विदाई होगी या नहीं, इस पर अंतिम मोहर तो 23 मई को मतगणना के बाद ही लगने वाली है, लेकिन वेब मीडिया पर स्वतंत्र पत्रकारों के आकलन और क्षेत्रीय दलों के नेताओं की चहल-कदमी इस धारणा को बल दे रही हैं कि बदलाव की संभावनाएँ प्रबल हैं।

बहुमत से दूर रहने के संकेत तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयानों और भाषणों से भी आ रहे हैं। उनकी पार्टी नए सहयोगियों की तलाश में है। चुनाव बाद ममता बनर्जी, स्टालिन, अखिलेश यादव, नवीन पटनायक और मायावती महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं, इस बात को कोई नकार नहीं रहा।

जिस तरह के आकलन आ रहे हैं वे इस बात का इशारा कर रहे हैं कि इन पाँचों नेताओं की पार्टियों का प्रदर्शन काफ़ी बेहतर रहने वाला है। स्टालिन को छोड़ दें तो बाक़ी सभी नेताओं ने कांग्रेस से दूरी बनाकर चुनाव लड़ा है और सबके निशाने पर भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी ही थे। मतगणना के बाद इनके सांसदों का आँकड़ा सैकड़ा पार करेगा, यह भी अब स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है, लेकिन फिर भी तीसरे मोर्चे और फ़ेडरल फ़्रंट की कोई ठोस पहल नज़र नहीं आ रही? ऐसे में सवाल यह खड़ा होता है कि क्या ये नेता यूपीए-3 में ही नया गणित बैठाने जा रहे हैं?

फ़ेडरल फ़्रंट में क्या है दिक्कत?

शरद पवार, एच. डी. देवेगौड़ा, चंद्राबाबू नायडू, स्टालिन, लालू यादव, शरद यादव आदि तो पहले ही यूपीए का हिस्सा हैं। इसमें शरद पवार और चंद्राबाबू नायडू तीसरे मोर्चे से ज़्यादा यूपीए के लिए रणनीति तैयार करने में जुटे हैं। और इसके पीछे उनका तर्क भी है कि जिस तरह से यूपीए-1और 2 ने स्थायी सरकार दी थी वैसी ही कोई व्यवस्था बननी चाहिए न कि सरकारें बनने और बिगड़ने का नया खेल शुरू हो जो 90 के दशक में चला था। शायद इस वजह से भी तीसरा मोर्चा या फ़ेडरल फ़्रंट के गठन की हवा ज़ोर नहीं पकड़ पा रही है। दूसरी बात यह कि फ़ेडरल फ़्रंट का नेता कौन होगा? मायावती और ममता बनर्जी दोनों ही अति महत्वाकांक्षी नेता हैं और दोनों की नज़रें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी होगी, लेकिन फ़ेडरल फ़्रंट क्या उनके इस लक्ष्य की पूर्ति कर देगा, यह भी स्पष्ट नज़र नहीं आता। ऐसे में मायावती ने फ़ेडरल फ़्रंट से अपनी दूरी बनाकर रखी है। 

तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर ने पिछले साल फ़ेडरल फ़्रंट बनाने की कोशिशें शुरू की थीं, जिस पर ज़्यादातर नेताओं से उन्हें उदासीन प्रतिक्रिया मिली थी। बसपा चीफ़ मायावती और सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव बैठक में नहीं पहुँचे थे और ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक को इस आइडिया में दिलचस्पी नहीं दिखी। सिर्फ़ पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने केसीआर के साथ कुछ बैठकें कीं।

अब जब इस बात के संकेत साफ़ दिखने लगे हैं कि कांग्रेस या बीजेपी किसी भी गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिल रहा है, ऐसे में केसीआर ने फिर से प्रयास तेज़ किये हैं। पिछले हफ़्ते राव ने अपनी कोशिशों के तहत केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन से मुलाक़ात की थी।

केसीआर ने साथ ही स्टालिन से मिलने का वक़्त माँगा था। सोमवार को दोनों नेताओं के बीच बैठक एक घंटे बैठक चली, जिसके बाद राव मीडिया से बिना बातचीत किए ही चले गए। डीएमके के हवाले से सूत्रों ने कहा कि स्टालिन ने फ़ेडरल फ़्रंट में शामिल होने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि केसीआर कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए को समर्थन दें। इसके बाद पार्टी के प्रवक्ता सर्वानन अन्नादुरई ने ट्वीट किया। इसमें उन्होंने लिखा, आज हुई बैठक में एम.के. स्टालिन ने तेलंगाना के सीएम केसीआर को समझाया कि वह कांग्रेस गठबंधन को समर्थन दें। 

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पीएम पद की दौड़ में राहुल?

स्टालिन दो बार प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गाँधी के नाम की पैरवी कर चुके हैं। वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगन रेड्डी ने भी गत दिनों एक टेलीविजन चैनल में दिए साक्षात्कार के दौरान कहा कि उन्हें राहुल या प्रियंका गाँधी को लेकर किसी प्रकार की नाराज़गी नहीं है। आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविन्द केजरीवाल की इस फ़्रंट में क्या भूमिका हो सकती है यह तो उनकी पार्टी को मिलने वाली सीटें ही तय करेंगी। वैसे, फ़ेडरल फ़्रंट के एक अन्य सूत्रधार चंद्रबाबू नायडू भी अब कांग्रेस को साथ रख यूपीए को नया रूप देने में लगे हुए हैं। चंद्रबाबू और शरद पवार ने दिल्ली में विभिन्न सहयोगी दलों के नेताओं से चर्चाओं का दौर भी शुरू कर रखा है। शरद पवार इन बैठकों के बारे में कहते हैं कि 23 तारीख़ को तो केवल दलीय स्थिति ही देखनी पड़ेगी, बाक़ी की चर्चाएँ पहले हो जाएँगी तो आगे का मार्ग सरल रहेगा। 

छह चरणों के मतदान के बाद जो अनुमान आ रहे हैं उनके साफ़ संकेत तो यही हैं कि अगर ग़ैर-भाजपाई सरकार का कोई भी तानाबाना तैयार होता है तो सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ममता बनर्जी की रहेगी क्योंकि संख्या बल मायावती और अखिलेश के मुक़ाबले उनके पास कहीं ज़्यादा रहेगा। मायावती का प्रधानमंत्री की कुर्सी का दावा बिना अखिलेश यादव के कोई ख़ास वजन नहीं रख पायेगा, यह भी एक हक़ीकत है। मायावती और अखिलेश का गठबंधन लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का मज़बूती से मुक़ाबला करने के लिए हुआ था, आगे इसका क्या स्वरूप होगा, यह तो नयी सरकार के बाद ही तय होगा।

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संजय राय

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