इस चुनाव में हर दूसरे दिन बीजेपी की रणनीति के इतने रंग देखने को मिले हैं कि उसे गिरगिटिया राजनीति की संज्ञा देना अनुचित नहीं होगा। मोदी, एक व्यक्ति की सनक और बीजेपी की रणनीति, एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। इनकी कुल मिलाकर एक ही कोशिश रहती है कि चुनावी परिदृश्य में एक अजीब प्रकार का कुहासा और उलझन छाई रहे जिससे मतदाता अपने इर्द-गिर्द के सच को झुठलाता हुआ समग्र स्थिति के विभ्रम में मोदी को पहले से विजेता मान कर उसके पीछे चलता रहे।
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लोकसभा चुनाव के पहले हुए पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव परिणामों और उत्तर प्रदेश, बिहार तथा दक्षिण के राज्यों में बने विपक्ष के गठबंधनों के कारण यह साफ़ हो गया था कि मोदी को इस बार बड़ा झटका लगने वाला है। इसीलिए शुरू से ही पराजय की छाया को ख़ुद से दूर रखने के लिये मोदी ने बंगाल और उड़ीसा की तरह पूर्वी राज्यों को अपना सहारा बनाने की रणनीति अपनाई थी। ऐसा भ्रम पैदा करने की कोशिश की गई कि अन्य राज्यों में उन्हें जो भी नुक़सान होगा, वह इन राज्यों से उसकी भरपाई कर लेंगे।
लेकिन बंगाल के छह राउंड के मतदान के पूरा हो जाने के बाद अब हम काफ़ी विश्वास के साथ यह कह सकते हैं कि वास्तविकता में इस राज्य से बीजेपी को एक सीट भी मिलनी मुश्किल है। वाम दलों की सीटों में अच्छा इज़ाफ़ा होगा और कांग्रेस उत्तरी बंगाल के अपने गढ़ों को बचाने में पूरी तरह से सफल रहेगी।
जहाँ तक बीजेपी की राजनीति का सवाल है, बंगाल उसके लिये ज़रा भी मुफ़ीद जगह नहीं है। बंगाल में बीजेपी का आरएसएस वाला सांप्रदायिक घृणा पर टिका आधार ऐतिहासिक कारणों से ही कमजोर है।
बीजेपी ने बंगाल की तासीर को समझा ही नहीं है। ऊपर से बीजेपी ने ‘ख़ून के बदले ख़ून’ की नीति पर चलते हुए और तृणमूल से मुक़ाबले के नाम पर पूरी पार्टी को शुद्ध गुंडों को सौंप दिया है। गुंडागर्दी के आधार पर कोई भी सत्ताधारी तृणमूल का मुक़ाबला नहीं कर सकता है। बीजेपी ने तृणमूल का मुक़ाबला करने के लिये मूलत: एक ग़ैर-राजनीतिक रास्ता पकड़ने की कोशिश की है जिसमें किसी भी दल के लिये तृणमूल की तरह सत्ताधारी पार्टी से मुक़ाबला करना संभव नहीं है। सारे समाज विरोधी तत्वों को बीजेपी में शामिल किया जा रहा है। तृणमूल सरकार में है। उसे अलग से गुंडों के प्रयोग की उतनी ज़रूरत नहीं है क्योंकि पुलिस से ज़्यादा ताक़तवर और संगठित कौन है? इस मामले में जब तक प्रशासन पर उसकी पकड़ में कोई दरार नहीं आती है, उसका कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता है। बीजेपी की मुसीबत यह है कि उसने बाहर से बटोरे गये पैसों और स्थानीय पैसे वालों के ख़ास समाज के कुछ लोगों के सक्रिय समर्थन से प्रशासन की ताक़त के ख़िलाफ़ निजी गुंडा सेना के साथ उतारने का आत्म-हननकारी रास्ता पकड़ लिया है। राजनीतिक रास्ता पकड़ने का उनमें धीरज नहीं है।
बीजेपी बिना जन-समर्थन के गुंडागर्दी के बल पर अपना वर्चस्व बनाना चाहती है। लेकिन ममता उन्हें एक इंच ज़मीन नहीं छोड़ रही हैं। असली समस्या यही है। यह सभी उग्रपंथियों की सामान्य समस्या है और बीजेपी इसमें बुरी तरह से फँस गई है।
बीजेपी को होगा नुक़सान
जो अभी बीजेपी की उत्तेजना को देख कर उसके प्रभावी होने की कल्पना कर रहे हैं, वे दृष्ट के विभ्रम के शिकार हैं। बीजेपी की उग्रता के तेवर को लोग तृणमूल के ख़िलाफ़ सत्ता-विरोधी तेवर मान कर नतीजे निकाल रहे हैं। जबकि उल्टे, बीजेपी अपनी उग्रता में फँस कर राजनीतिक तौर पर खोखली हो रही है। इससे उसे सिर्फ़ नुक़सान होने वाला है, लाभ नहीं। पिछली बार की दो सीटें भी वह गँवाने वाली है। इस मामले में वामपंथी ज़्यादा यथार्थवादी हैं। वे राजनीतिक प्रक्रियाओं को राजनीतिक प्रक्रियाओं के तौर पर, वस्तुनिष्ठ परिस्थिति और आत्मगत तैयारी के मेल के तौर पर देखते हैं। अभी यहाँ जन-असंतोष की वैसी वस्तुनिष्ठ परिस्थिति नहीं है कि लोग सिर पर कफ़न बाँध कर सत्ता के विरोध में उतरने के लिये पूरी तरह से तैयार हों। बीजेपी इसी आकलन में चूक कर रही है और गुंडा तत्वों के ज़रिये सीधे प्रशासन को चुनौती दे रही है।लेकिन वामपंथी अपने सांगठनिक ताने-बाने में पड़ी दरारों को क़ायदे से दुरुस्त करने में लगे हुए हैं और जनता के असंतोष को उसके अनुपात के अनुसार सामने लाने का काम कर रहे हैं। इसी प्रक्रिया में वामपंथ का नया नेतृत्व जब तैयार होगा, वह सही राजनीतिक विकल्प दे पायेगा।यह सही है कि किसी के लिये भी नया नेतृत्व इतनी जल्दी तैयार करना आसान नहीं है। यह बहुत कठिन है। लेकिन यही वाम की प्रमुख समस्या है जिससे अभी का प्रभावी नेतृत्व आँख चुरा कर चलना चाहता है। लेकिन वामपंथ के अंदर इसका तनाव दिखाई देने लगा है। इसीलिये जनतांत्रिक लामबंदी की वामपंथियों की धैर्यपूर्ण गतिविधियों के लिये अब स्वीकृति बढ़ रही है। इस चुनाव में भी उसका परिणाम दिखाई देगा। यद्यपि तृणमूल को परास्त करने लायक ताक़त से वह काफ़ी दूर है। बीजेपी तो गुंडों के हाथ में जा कर भटक गई है। लगता है कि इस बार बीजेपी राज्य में चौथे नंबर की पार्टी होगी।
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जो लोग वाम शासन और तृणमूल के शासन में गुंडागर्दी की बात को उठा कर उनमें समानता की बात करते हैं, वे वाम मोर्चा के लगातार चौतीस साल के शासन के पीछे के राजनीतिक सार को समझने में असमर्थ हैं। और न ही तृणमूल के शासन की राजनीति को पकड़ पा रहे हैं। इसी ग़लत समझ के कारण अभी बीजेपी गुंडों को बटोरने में लगी हुई है। उसे कुछ स्थानीय पैसे वाले समाज के लोगों का सहयोग भी मिल रहा है जो ऐसे भाड़े के लठैतों को पाल कर अपने को बहादुर समझते हैं। ये पैसों की ताक़त से राजनीति को संचालित करने का मेढकी सपना पाले हुए बेवकूफ़ लोग हैं। इस चुनाव में इनके सारे सपनों का हमेशा के लिये बिखर जाना तय है।
डिस्क्लेमर - लेखक अरुण माहेश्वरी सीपीएम की पूर्व राज्यसभा सांसद सरला माहेश्वरी के पति हैं।
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